Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
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भोगने के योग्य ही है तथा वास्तविक शान्ति अपरिमित भोग से भी सम्भव नहीं है। इसलिए प्रत्याख्यान-क्रिया के द्वारा मुमुक्षुगण अपने को व्यर्थ के भोगो से बचाते है और उसके द्वारा चिरकालीन आत्मशान्ति पाते है। अतएव प्रत्याख्यान क्रिया भी आध्यात्मिक ही है।
प्रतिक्रमण शब्द की रूढ़ि प्रतिक्रमण शब्द की व्युत्पत्ति 'प्रति+क्रमण प्रतिक्रमण' ऐसी है । इस व्युत्पत्ति के अनुसार उसका अर्थ 'पीछे फिरना', इतना ही होता है, परन्तु रूढि के बल से 'प्रतिक्रमण' शब्द सिर्फ चौथे 'आवश्यक' का तथा छह आवश्यक के समुदाय का भी बोध कराता है। अन्तिम अर्थ मे उस शब्द की प्रसिद्धि इतनी अधिक हो गई है कि आजकल 'आवश्यक' शब्द का प्रयोग न करके सब कोई छहो आवश्यको के लिए 'प्रतिक्रमण' शब्द काम में लाते हैं। इस तरह व्यवहार मे और अर्वाचीन ग्रन्थो मे 'प्रतिक्रमण' शब्द से 'आवश्यक' शब्द का पर्याय हो गया है। प्राचीन ग्रन्थो मे सामान्य 'आवश्यक' अर्थ मे 'प्रतिक्रमण' शब्द का प्रयोग कही देखने मे नही
आया। 'प्रतिक्रमणहेतुगर्भ, 'प्रतिक्रमणविधि', 'धर्मसग्रह' आदि अर्वाचीन प्रन्थो मे 'प्रतिक्रमण' शब्द सामान्य आवश्यक' के अर्थ में प्रयुक्त है और सर्वसाधारण भी सामान्य 'आवश्यक' के अर्थ मे प्रतिक्रमण शब्द का प्रयोग अस्खलित रूप से करते हुए देखे जाते है।
(द० औ० चि० ख० २ पृ० १७४-१८५)