Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi

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Page 168
________________ १४६ जैनधर्म का प्राण श्यक' आध्यात्मिक है, क्योकि सामायिक का फल पापजनक व्यापार की निवृत्ति है, जो कि कर्म- निर्जरा द्वारा आत्मा के विकास का कारण है । चतुर्विंशतिस्तव का उद्देश्य गुणानुराग की वृद्धि द्वारा गुण प्राप्त करना है, जो कि कर्म-निर्जरा द्वारा आत्मा के विकास का साधन है । वन्दन-क्रिया के द्वारा विनय की प्राप्ति होती है, मान खण्डित होता है, गुरुजन की पूजा होती है, तीर्थकरो की आज्ञा का पालन होता है और श्रुतधर्म की आराधना होती है, जो कि अन्त मे आत्मा के क्रमिक विकास द्वारा मोक्ष के कारण होते है । वन्दन करनेवालो को नम्रता के कारण शास्त्र मुनने का अवसर मिलता है । शास्त्र श्रवण द्वारा क्रमश ज्ञान, विज्ञान, प्रत्याख्यान, सयम, अनास्रव, तप, कर्मनाश, अक्रिया और सिद्धि ये फल बतलाए गए है।' इसलिए वन्दन - क्रिया आत्मा के विकास का असदिग्ध कारण है । आत्मा वस्तु पूर्ण शुद्ध और पूर्ण बलवान है, पर वह विविध वासनाओं अनादि प्रवाह मे पडने के कारण दोषो की अनेक तहो से दब-सा गया है; इसलिए जब वह ऊपर उठने का प्रयत्न करता है, तब उससे अनादि अभ्यास भूले हो जाना सहज है। वह जब-तब उन भूलों का सशोधन न करे, तब तक इप्ट सिद्धि हो ही नही सकती। इसलिए पद-पद पर की हुई भूलो को याद करके प्रतिक्रमण द्वारा फिर से उन्हें न करने के लिए वह निश्चय कर लेता है । इस तरह से प्रतिक्रमण क्रिया का उद्देश्य पूर्व दोषो को दूर करना और फिर से वैसे दोषो को न करने के लिए सावधान कर देना है, जिससे कि आत्मा दोषमुक्त होकर धीरे-धीरे अपने शुद्ध स्वरूप मे स्थित हो जाय । इसीसे प्रतिक्रमणक्रिया आध्यात्मिक है । कायोत्सर्गचित्त की एकाग्रता पैदा करता है और आत्मा को अपना स्वरूप विचारने का अवसर देता है, जिससे आत्मा निर्भय बनकर अपने कठिनतम उद्देश्य को सिद्ध कर सकती है। इसी कारण कायोत्सर्ग-क्रिया भी आध्यात्मिक है । दुनिया मे जो कुछ है, वह सब न तो भोगा ही जा सकता है और न १. आवश्यकनिर्मुक्ति गाथा १२१५ तथा वृत्ति ।

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