Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण दोषों की पुष्टि होती है। इस पर कुम्हार के बर्तनों को कंकर द्वारा बारबार फोड़कर बार-बार माफी मांगनेवाले एक क्षुल्लक-साधु का दृष्टान्त प्रसिद्ध है।
(५) कायोत्सर्ग-धर्म या शुक्ल-ध्यान के लिए एकाग्र होकर शरीर पर से ममता का त्याग करना 'कायोत्सर्ग' है। कायोत्सर्ग को यथार्थ रूप मे करने के लिए इसके दोषो का परिहार करना चाहिए। वे घोटक आदि दोष' सक्षेप मे उन्नीस है ।।
कायोत्सर्ग से देह की और बुद्धि की जड़ता दूर होती है, अर्थात् वात आदि धातुओ की विषमता दूर होती है और बुद्धि की मन्दता दूर होकर विचारशक्ति का विकास होता है । सुख-दुख की तितिक्षा अर्थात् अनूकूल
और प्रतिकूल दोनो प्रकार के सयोगो मे समभाव से रहने की शक्ति कायोत्सर्ग से प्रकट होती है। भावना और ध्यान का अभ्यास भी कायोत्सर्ग से ही पुष्ट होता है । अतिचार का चिन्तन भी कायोत्सर्ग मे ठीक-ठीक हो सकता है। इस प्रकार देखा जाय तो कायोत्सर्ग बहुत महत्त्व की क्रिया है। कायोत्सर्ग के अन्दर लिये जानेवाले एक श्वासोच्छ्वास का काल-परिमाण श्लोक के एक पाद के उच्चारण के काल-परिमाण जितना कहा गया है।
(६) प्रत्याख्यान-त्याग करने को 'प्रत्याख्यान' कहते है । त्यागने योग्य वस्तुएँ (१) द्रव्य और (२) भावरूप से दो प्रकार की है। अन्न, वस्त्र आदि बाह्य वस्तुएँ द्रव्यरूप है और अज्ञान, असंयम आदि वैभाविक परिणाम भावरूप है। अन्न, वस्त्र आदि बाह्य वस्तुओं का त्याग अज्ञान, असंयम आदि के त्याग द्वारा भावत्यागपूर्वक और भावत्याग के उद्देश्य से ही होना चाहिए । जो द्रव्यत्याग भावत्यागपूर्वक तथा भावत्याग के लिए नही किया जाता, उस से आत्मा को गुण-प्राप्ति नहीं होती।
(१) श्रद्धान, (२) ज्ञान, (३) वंदन, (४) अनुपालन, (५) अनुभाषण और (६) भाव, इन छः शुद्धियो के सहित किया जानेवाला प्रत्याख्यान शुद्ध प्रत्याख्यान है।'
१. आवश्यकनियुक्ति गाथा १५४६, १५४७ । २. आवश्यक वृत्ति पृ० ८४७ ।