Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
प्रतिक्रमण के समानार्थक शब्द है । इन शब्दो का भाव समझाने के लिए प्रत्येक शब्द की व्याख्या पर एक-एक दृष्टान्त दिया गया है, जो बहुत मनोरजक है। प्रतिक्रमण का मतलब पीछे लौटना है-एक स्थिति में जाकर फिर मूल स्थिति को प्राप्त करना प्रतिक्रमण है ।
(१) दैवसिक, (२) रात्रिक, (३) पाक्षिक, (४) चातुर्मासिक और (५)-सावत्सरिक, ये प्रतिक्रमण के पॉच भेद बहुत प्राचीन तथा शास्त्रसमत है, क्योकि इनका उल्लेख श्री भद्रबाहुस्वामी भी करते है । कालभेद से तीन प्रकार का प्रतिक्रमण भी बतलाया है.-(१) भूतकाल में लगे हुए दोषों की आलोचना करना, (२) सवर करके वर्तमान काल के दोषो से बचना, और (३) प्रत्याख्यान द्वारा भविष्यके दोषो को रोकना प्रतिक्रमण है ।
उत्तरोत्तर आत्मा के विशेष शुद्ध स्वरूप मे स्थित होने की इच्छा करनेवाले अधिकारियो को यह भी जानना चाहिये कि प्रतिक्रमण किस-किस का करना चाहिए।
(१) मिथ्यात्व, (२) अविरति, (३) कषाय' और (४) अप्रशस्त योग-इन चार का प्रतिक्रमण करना चाहिए । अर्थात् मिथ्यात्व छोडकर सम्यक्त्व को पाना चाहिए, अविरति का त्याग कर विरति को स्वीकार करना चाहिये, कषाय का परिहार करके क्षमा आदि गुणप्राप्त करने चाहिये और समार बढानेवाले व्यापारी को छोड़कर आत्मस्वरूप की प्राप्ति करनी चाहिए। __ सामान्य रीति से प्रतिक्रमण (१) द्रव्य और (२) भाव, यो दो प्रकार का है। भावप्रतिक्रमण ही उपादेय है, द्रव्यप्रतिक्रमण नही । द्रव्यप्रतिक्रमण वह है, जो दिखावे के लिए किया जाता है। दोष का प्रतिक्रमण करने के बाद भी फिर से उस दोष को बार-बार सेवन करना, यह द्रव्य प्रतिक्रमण है। इससे आत्मा शुद्ध होने के बदले ढिठाई द्वारा और भी
१. आवश्यकनियुक्ति गाथा १२३३ । २. वही, गाथा १२४२ । ३. वही, गाथा १२४७ ।। ४. आवश्यकवृत्ति पृ० ५५१ ।