Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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तप
बौद्ध-पिटकों मे अनेक जगह 'निगठ' के साथ 'तपस्सी', 'दीघ तपस्सी' ऐसे विशेषण आते है। इस तरह कई बौद्ध सुत्तो मे राजगृही आदि जैसे स्थानों मे तपस्या करते हुए निर्ग्रन्थो का वर्णन है, और खुद तथागत बुद्ध के द्वारा की गई निर्ग्रन्थो की तपस्या की समालोचना भी आती है। इसी तरह जहाँ बुद्ध ने अपनी पूर्व-जीवनी शिष्यो से कही वहाँ भी उन्होने अपने साधनाकाल मे की गई कुछ ऐसी तपस्याओ का वर्णन किया है, जो एकमात्र निर्ग्रन्थपरंपरा की ही कही जा सकती है और इस समय उपलब्ध जैन आगमों में वर्णन की गई निर्ग्रन्थ-तपस्याओ के साथ अक्षरश. मिलती हैं । अब हमें देखना यह है कि बौद्ध पिटकों मे आनेवाला निर्ग्रन्थ-तपस्या का वर्णन कहाँ तक ऐतिहासिक है।
तपश्चर्याप्रधान निर्ग्रन्थ-परम्परा खुद ज्ञातपुत्र महावीर का जीवन ही केवल उग्र तपस्या का मूर्त स्वरूप है, जो आचाराग के प्रथम श्रुतस्कध मे मिलता है । इसके सिवाय आगमों के सभी पुराने स्तरो मे जहाँ कही किसी के प्रव्रज्या लेने का वर्णन आता है वहाँ शुरू मे ही हम देखते है कि वह दीक्षित निर्ग्रन्थ तप.कर्म का आचरण करता है। एक तरह से महावीर के साधुसघ की सारी चर्या ही तपोमय मिलती है । अनुत्तरोववाई आदि आगमो मे अनेक ऐसे मुनियो का वर्णन
१. मज्झिम० सु० ५६ और १४ । २. देखो मज्झिम० सु० २६ । प्रो० कोशांबीकृत 'बुद्धचरित'। ३. भगवती ९.३३ । २ १.। ९.६ ।