Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
नही करता, उसका विधान तो मात्र निवृत्ति का है। इसलिए जैनधर्म को विधान की दृष्टि से एकाश्रमी कह सकते है । वह एकाश्रम यानी ब्रह्मचर्य और संन्यास आश्रम का एकीकरणरूप त्याग का आश्रम ।
इसी कारण जैनाचार के प्राणभूत समझे जानेवाले अहिसा आदि पाच महाव्रत भी विरमण (निवृत्ति) रूप है । गृहस्थ के अणुव्रत भी विरमणरूप हैं । फर्क इतना ही है कि एक में सर्वांश मे निवृत्ति है और दूसरे में अल्पाश मे । इस निवृत्ति का मुख्य केन्द्र अहिंसा है। हिसा से सर्वाशतः निवृत्त होने मे दूसरे सभी महाव्रत आ जाते है। हिंसा के 'प्राणघात' रूप अर्थ की अपेक्षा जैन शास्त्र मे उसका बहुत सूक्ष्म और व्यापक अर्थ है। दूसरा कोई जीव दुखी हो या नही, परन्तु मलिन वृत्तिमात्र से अपनी आत्मा की शुद्धता नष्ट हो तो भी वह हिंसा है। ऐसी हिसा मे प्रत्येक प्रकार की सूक्ष्म या स्थूल पापवृत्ति आ जाती है । असत्यभाषण, अदत्तादान (चौर्य), अब्रह्म (मैथुन अथवा कामाचार) और परिग्रह-इन सबके पीछे या तो अज्ञान या फिर लोभ, क्रोध, कुतूहल अथवा भय आदि मलिन वृत्तियाँ प्रेरक होती ही है । अत. असत्य आदि सभी प्रवृत्तियाँ हिसात्मक ही हैं। ऐसी हिसा से निवृत्त होना ही अहिंसा का पालन है, और वैसे पालन में स्वाभाविक रूप से दूसरे सब निवृत्तिगामी धर्म आ जाते है। जैनधर्म के अनुसार बाकी के सभी विधि-निषेध उक्त अहिंसा के मात्र पोषक अंग
चेतना और पुरुषार्थ आत्मा के मुख्य बल हैं । इन बलो का दुरुपयोग रोका जाय तभी सदुपयोग की दिशा मे उनको मोड़ा जा सकता है। इसीलिए जैनधर्म प्रथम तो दोषविरमण (निषिद्धत्याग) रूप शील का विधान करता है। परन्तु चेतना और पुरुषार्थ ऐसे नही है कि वे मात्र अमुक दिशा मे न जाने की निवृत्तिमात्र से निष्क्रिय होकर पड़े रहे। वे तो अपने विकास की भूख दूर करने के लिए गति की दिशा ढूढते ही रहते है। इसीलिए जैनधर्म ने निवृत्ति के साथ ही शुद्ध प्रवृत्ति (विहित आचरणरूप चारित्र) के विधान भी किये हैं। उसने कहा है कि मलिन वृत्ति से आत्मा का घात न होने देना और उसके रक्षण में ही (स्वदया मे ही) बुद्धि और पुरुषार्थ का उपयोग करना चाहिए। प्रवृत्ति के इस विधान मे से ही सत्यभाषण, ब्रह्मचर्य,