Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
जीवन का अधिक से अधिक विकास शक्य है। इतना ही नही, वैसे योगवाली आत्मा का ही अधिक व्यापक प्रभाव दूसरे पर पड़ता है, अथवा यों कहो कि वैसा ही मनुष्य दूसरो का नेतृत्व कर सकता है। इसी कारण भगवान ने तप और परिषहो मे इन तीन तत्त्वो का समावेश किया है । उन्होने देखा कि मानव का जीवनपथ लम्बा है, उसका ध्येय अत्यन्त दूर है, यह ध्येय जितना दूर है उतना ही सूक्ष्म है और उस ध्येय तक पहुँचतेपहुँचते बडी-बडी मसीबते झेलनी पड़ती है; उस मार्ग मे भीतरी और बाहरी दोनो शत्रु आक्रमण करते है। उन पर पूर्ण विजय अकेले व्रतनियम से, अकेले चारित्र से अथवा अकेले तप से शक्य नही । इस तत्त्व का अपने जीवन मे अनुभव करने के बाद ही भगवान ने तप और परिषहो की ऐसी व्यवस्था की कि उनमे व्रत-नियम, चारित्र और ज्ञान इन तीनो का समावेश हो जाय । यह समावेश उन्होने अपने जीवन मे शक्य करके दिखलाया।
जैन तप मे क्रियायोग और ज्ञानयोग का सामंजस्य असल मे तो तप और परिषह की उत्पत्ति त्यागी एव भिक्षुजीवन मे से ही हुई है यद्यपि इनका प्रचार और प्रभाव तो एक सामान्य गृहस्थ तक भी पहुंचा है। आर्यावर्त के त्यागजीवन का उद्देश्य आध्यात्मिक शान्ति ही रहा है। अध्यात्मिक शान्ति अर्थात् क्लेशो और विकारो की शान्ति । आर्य ऋषियो के मन क्लेशों पर विजय ही सच्ची विजय है। इसीलिए महर्षि पतजलि तप का प्रयोजन बताते हुए कहते है कि 'तप क्लेशो को निर्बल करने तथा समाधि के सस्कारो को पुष्ट करने के लिए है ।' तप को पतजलि क्रियायोग कहते है, क्योकि वे तप मे व्रत-नियमो की ही परिगणना करते है। इसीलिए उनको क्रियायोग से भिन्न ज्ञानयोग मानना पड़ा है। परन्तु जैन तप मे क्रियायोग और ज्ञानयोग दोनो आ जाते है। और यह भी स्मरण मे रखना चाहिए कि बाह्य तप, जो क्रियायोग ही है, आभ्यन्तर तप यानी ज्ञानयोग की पुष्टि के लिए ही है, और वह ज्ञानयोग की पुष्टि के द्वारा ही जीवन के अन्तिम साध्य मे उपयोगी है, स्वतत्र रूप से नही।
(द० अ० चि० भा० १, पृ० ४४१-४४४)