Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
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संघ मे सजीव और प्रचलित विविध तपो के प्रकारों का एक प्रतिघोषमात्र है । आज भी तप करने में जैन एक और अद्वितीय समझे जाते है । दूसरी किसी भी बात मे जैन शायद दूसरो की अपेक्षा पीछे रह जायें, परन्तु यदि तप की परीक्षा — खास करके उपवास - आयबिल की परीक्षा ली जाय तो समग्र देश मे और सम्भवतः समग्र दुनिया मे पहले नम्बर पर आनेवाले लोगो मे जैन पुरुष नही तो स्त्रियाँ तो होगी ही, ऐसा मेरा विश्वास है । तप से सम्बन्ध रखनेवाले उत्सव, उद्यापन और वैसे ही दूसरे उत्तेजक प्रकार आज भी इतने अधिक प्रचलित है कि जिस कुटुम्ब ने खास करके जिस स्त्री ने तप करके छोटा-बडा उद्यापन न किया हो उसे एक तरह अपनी कमी महसूस होती है । मुगल सम्राट् अकबर का आकर्षण करनेवाली एक कठोर तपस्विनी जैन स्त्री ही थी ।
परिषह
तप को तो जैन न हो वह भी जानता है, परन्तु परिषहो के बारे मे वैसा नही है । अजैन के लिए परिषद् शब्द कुछ नया-सा लगेगा, परन्तु उसका अर्थ नया नही है । घर का त्याग करके भिक्षु बननेवाले को अपने ध्येय की सिद्धि के लिए जो-जो सहन करना पडता है वह परिषह है । जैन आगमों मे ऐसे जो परिषह गिनाये गये है वे केवल साधु-जीवन को लक्ष्य में रखकर ही गिनाये है । बारह प्रकार का तप तो गृहस्थ और त्यागी दोनो को उद्दिष्ट करके बतलाया है, परन्तु बाईस परिषह तो त्यागी जीवन को उद्दिष्ट करके ही बतलाये है । तप और परिषह ये दो अलग-अलग से दीखते है, इनके भेद भी अलग-अलग है, फिर भी ये दोनो एक-दूसरे से अलग किये न जा सके ऐसे दो अकुर हैं ।
व्रत- नियम और चारित्र ये दोनो एक ही वस्तु नही है । इसी प्रकार ज्ञान भी दोनो से भिन्न वस्तु है । ऐसा होने पर भी व्रत - नियम, चारित्र और ज्ञान इन तीनो का योग एक व्यक्ति में शक्य है और वैसा योग हो तभी
१. बौद्ध पिटको मे 'परिसह' के स्थान मे 'परिसय' शब्द मिलता है । इस अर्थ में 'उपसर्ग' शब्द तो सर्वसाधारण है । —सम्पादक