Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैन दृष्टि से ब्रह्मचर्यविचार
जैन दृष्टि का स्पष्टीकरण
मात्र तत्त्वज्ञान या मात्र आचार मे जैन दृष्टि परिसमाप्त नहीं होती । वह तत्त्वज्ञान और आचार उमय की मर्यादा स्वीकार करती है। किसी भी वस्तु के ( फिर वह जड हो या चेतन) सभी पक्षो का वास्तविक समन्वय करना —— अनेकान्तवाद - - - जैन तत्त्वज्ञान की मूल नीव हैं, और रागद्वेष के छोटे-बड़े प्रत्येक प्रसंग से अलिप्त रहना -- निवृत्ति - - समग्र आचार का मूल आधार है । अनेकान्तवाद का केन्द्र मध्यस्थता में है और निवृत्ति भी मध्यस्थता मे से ही पैदा होती है, अतएव अनेकान्तवाद और निवृत्ति दोनो एक दूसरे के पूरक एव पोषक है। ये दोनो तत्त्व जितने अश मे समझे जायँ और जीवन में उतरे उतने अश मे जैनधर्म का ज्ञान और पालन हुआ ऐसा कहा जा सकता है ।
जैनधर्म का झुकाव निवृत्ति की ओर है । निवृत्ति यानी प्रवृत्ति का विरोधी दूसरा पहलू । प्रवृत्ति का अर्थ है रागद्वेष के प्रसगो मे रत होना । जीवन मे गृहस्थाश्रम रागद्वेष के प्रसंगों के विधान का केन्द्र है । अतः जिस धर्म मे गृहस्थाश्रम का विधान किया गया हो वह प्रवृत्तिधर्म और जिस धर्म मे 'गृहस्थाश्रम नही परन्तु केवल त्याग का विधान किया गया हो वह निवृत्तिधर्म | जैनधर्म निवृत्तिधर्म होने पर भी उसका पालन करनेवालो मे जो गृहस्थाश्रम का विभाग है वह निवृत्ति की अपूर्णता के कारण है । सर्वाश मे निवृत्ति प्राप्त करने में असमर्थ व्यक्ति जितने अशों मे निवृत्ति का सेवन करते है उतने अशो मे वे जैन है । जिन अशो मे निवृत्ति का सेवन न कर सके उन अशो मे अपनी परिस्थिति के अनुसार विवेकदृष्टि से वे प्रवृत्ति की मर्यादा कर सकते है; परन्तु उस प्रवृत्ति का विधान जैनशास्त्र