Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
भी छोटे गाँवो तक मे यदि कोई भूखे मर रहा हो ऐसा ज्ञात हो तो उसके लिए महाजन अथवा कोई एकाध गृहस्थ क्या और किस तरह सहायता करता है इसकी जानकारी प्राप्त की जाय।
(३) आधे करोड जितने फकीरो, बावाओ और साधुसन्तो का वर्ग अधिकाशत. श्रम किये बिना ही दूसरे साधारण श्रमिकवर्ग जितने ही सुख और आराम से हमेशा निभता आया है और अब भी निभ रहा है।
अमारिका निषेधात्मक और भावात्मक रूप : अहिंसा और दया
अहिंसा अथवा अमारिके दो रूप है । (१) निषेधात्मक, (२) उसमें से फलित होने वाला भावात्मक । किसी को आघात न पहुंचाना अथवा किसी को अपने दुख का, उसकी अनिच्छा से, साझी न बनाना, यह निषेधात्मक अहिसा है। दूसरे के दुख मे हाथ बँटाना अथवा तो अपनी सुख-सुविधा का लाभ दूसरे को देना, यह भावात्मक अहिंसा है। यही भावात्मक अहिसा दया अथवा सेवा कही जाती है । सुविधा की दृष्टि से हम उक्त दोनो प्रकार की अहिंसा का अनुक्रम से अहिसा और दया इन दो नामो से व्यवहार करेगे। अहिसा एक ऐसी वस्तु है जिस की दया की अपेक्षा कही अधिक मूल्यवत्ता होने पर भी वह दया की भॉति एकदम सबकी नजर मे नही आती। दया को लोकगम्य कहे, तो अहिंसा को स्वगम्य कह सकते हैं। अहिसा का अनुसरण करनेवाला मनुष्य उसकी सुगन्ध का अनुभव करता है। उसका लाभ तो अनिवार्यत. दूसरो को मिलता है, परन्तु बहुत बार लाभ पानेवाले तक को उस लाभ के कारणरूप अहिसातत्त्व का ख्याल तक नही आता और उस अहिसा का सुन्दर प्रभाव दूसरो के मन पर पडने मे बहुत बार काफी लम्बा समय बीत जाता है। दया के बारे मे इससे उल्टा है। दया एक ऐसी वस्तु है, जिसके पालनेवाले की अपेक्षा उसका लाभ उठानेवाले को ही वह अधिक सुगन्ध देती है। दया का सुन्दर प्रभाव दूसरो के मन पर पडने मे समय नही लगता। इससे दया खुली तलवार की तरह सबकी दृष्टि मे आ जाय ऐसी वस्तु है। इसीलिए उसके आचरण मे ही धर्म की प्रभावना दिखती है।
समाज के व्यवस्थित धारण एव पोषण के लिए अहिंसा एवं दया दोनों की अनिवार्य आवश्यकता है । जिस समाज और जिस राष्ट्र में जितने अंश में