Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
१०७. अहिंसा का वातावरण जमाने मे कितना पुरुषार्थ किया था इसकी कुछ कल्पना आ सकती है।
___ अहिंसा के प्रचार का एक प्रमाण : पिंजरापोल
अहिसा के प्रचार के एक सबल प्रमाण के रूप में हमारे यहाँ पिंजरापोल की सस्था चली आ रही है। यह परम्परा कब से और किस के द्वारा अस्तित्व मे आई यह निश्चित रूप से कहना कठिन है, फिर भी गुजरात मे उसके प्रचार एव उसकी प्रतिष्ठा को देखते हुए ऐसा मानने का मन हो आता है कि पिंजरापोल सस्था को व्यापक रूप देने मे सम्भवत कुमारपाल और उनके धर्मगुरु आचार्य हेमचन्द्र का मुख्य हाथ रहा हो। समग्र कच्छ, सौराष्ट्र एव गुजरात तथा राजस्थान के अमुक भाग का कोई ऐसा प्रसिद्ध नगर या अच्छी बस्तीवाला कस्बा शायद ही मिले जहाँ पिजरापोल न हो । अनेक स्थानो पर तो छोटे-छोटे गावो तक मे भी प्राथमिक शालाओ (प्राइमरी स्कूल) की भॉति पिजरापोल की शाखाएँ है। ये सब पिजरापोल मुख्यत पशुओ को और अशत पक्षियो को बचाने का और उनकी देखभाल रखने का कार्य करती है। हमारे पास इस समय निश्चित आकड़े नहीं है, परन्तु मेरा स्थूल अनुमान है कि प्रतिवर्ष इन पिजरापोलो के पीछे जैन पचास लाख से कम खर्च नही करते होंगे और इन पिजरापोलो के आश्रय मे अधिक नही तो लाख के करीब छोटे-बडे जीव पोषण पाते होगे। गुजरात के बाहर के भागो मे जहाँ-जहाँ गोशालाएं चलती है वहाँ सर्वत्र आम तौर पर सिर्फ गायो की ही रक्षा की जाती है। गौशालाएँ भी देश मे बहुत है और उनमे हजारो गाये रक्षण पाती है। पिजरापोल की सस्था हो या गोशाला की सस्था हो, परन्तु यह सब पशुरक्षण की प्रवृत्ति अहिंसाप्रचारक संघ के पुरुषार्थ पर ही अवलम्बित है ऐसा कोई भी *विचारक कहे बिना शायद ही रहे। इसके अलावा चीटियो को आटा डालने की प्रथा तथा जलचरो को आटे की गोलियाँ खिलाने की प्रथा, शिकार एव देवी के भोगो को बन्द कराने की प्रथा यह सब अहिसा की भावना का ही परिणाम है।