Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
अहिंसा और अमारि
प्रकृति मे हिंसा और अहिसा के तत्त्व रहे हुए है । भारत मे उसके मूल निवासियो की और बाद में उनके विजेता के रूप मे प्रसिद्ध आर्यों की समृद्धि के समय अनेक प्रकार के बलिदान एव यज्ञ-याग की प्रथा थी और उसमे केवल पशुपक्षी ही नही, बल्कि मनुष्य तक की बलि दी जाती थी । धार्मिक समझा जानेवाला हिसा का यह प्रकार इतनी हद तक फैला हुआ था कि उसकी प्रतिक्रिया के रूप में दूसरी ओर हिसा का विरोध शुरू हुआ था । अहिसा की भावनावाले ऐसे पन्थ तो भगवान महावीर और बुद्ध के पहले भी स्थापित हो चुके थे। ऐसा होने पर भी अहिंसातत्त्व के अनन्य पोषक एव अहिंसा की आज की चालू गगोत्री के रूप मे जो दो महान् ऐतिहासिक पुरुष हमारे समक्ष है वे भगवान महावीर और बुद्ध ही है । उनके समय में और उनके पीछे भारत मे अहिंसा को जो पोषण मिला है, उसका जितने प्रकार से और जितनी दिशा मे प्रचार हुआ है तथा अहिंसा तत्त्व के बारे मे जो शास्त्रीय और सूक्ष्म विचार हुआ है उसकी तुलना भारत के बाहर किसी भी देश के इतिहास मे प्राप्त नही हो सकती । दुनिया के दूसरे देशों और दूसरी जातियो पर असाधारण प्रभाव डालनेवाला, उनको जीतनेवाला और सर्वदा के लिए उनका मन हरनेवाला कोई तत्त्व भारत मे उत्पन्न हुआ हो, तो वह हजारो वर्षो से आज तक लगातार कमोबेश रूप मे प्रचलित और विकसित अहिंसातत्त्व ही है ।
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अशोक, सम्प्रति और खारवेल
अहिंसा के प्रचारक जैन एव बौद्ध सघो की व्यवस्थित स्थापना के पश्चात् उनका प्रचारकार्य चारो ओर जोरो से चलने लगा । इसके प्रमाण आज भी विद्यमान है। महान् सम्राट् अशोक के धर्मानुशासनो में जो आदेश है उससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि उसने उत्सवो और समारम्भो मे हिसा न करने की आज्ञा दी थी, अथवा एक प्रकार से लोगों के समक्ष वैसा न करने की अपनी इच्छा उसने प्रदर्शित की थी । स्वय हिंसामुक्त हो, फकीरी अपनाकर राजदण्ड धारण करनेवाले अशोक की धर्माज्ञाओ का प्रभाव