Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
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ओर खीचा । फलत जनता मे सामाजिक तथा धार्मिक उत्सवों मे अहिंसा की भावना ने जड़ जमाई, जिसके ऊपर आगे की निर्ग्रन्थ-परपरा की अगली पीढ़ियों की कारगुजारी का महल खड़ा हुआ है ।
हंसा के अन्य प्रचारक
अशोक के पौत्र सप्रति ने अपने पितामह के अहिंसक सस्कार की विरासत को आर्य सुहस्ति की छत्रछाया मे और भी समृद्ध किया । सप्रति ने केवल अपने अधीन राज्य- प्रदेशो मे ही नही, बल्कि अपने राज्य की सीमा के बाहर भी — जहाँ अहिसामूलक जीवन व्यवहार का नाम भी न था - अहिसा - भावना का फैलाव किया । अहिसा भावना के उस स्रोत की बाढ़ मे अनेक का हाथ अवश्य है, पर निर्ग्रन्थ अनगारी का तो इसके सिवाय और कोई ध्येय ही नही रहा है । वे भारत मे पूर्व - पश्चिम, उत्तर-दक्षिण जहाँजहाँ गए वहा उन्होने अहिसा की भावना का ही विस्तार किया और हिंसामूलक अनेक व्यसनो के त्याग की जनता को शिक्षा देने मे ही निर्ग्रन्थधर्म की कृतकृत्यता का अनुभव किया। जैसे शकराचार्य ने भारत के चारो कोनो पर मठ स्थापित करके ब्रह्माद्वैत का विजय स्तम्भ रोपा है, वैसे ही महावीर के अनुयायी अनगार निर्ग्रन्थो ने भारत जैसे विशाल देश के चारो कोनो मे अहिसाद्वैत की भावना के विजय स्तम्भ रोप दिए है - ऐसा कहा जाए तो अत्युक्ति न होगी । लोकमान्य तिलक ने इस बात को यो कहा था कि गुजरात की अहिसा - भावना जैनो की ही देन है, पर इतिहास हमे कहता है कि वैष्णवादि अनेक वैदिक परम्पराओ की अहिसामूलक धर्मवृत्ति में निर्ग्रन्थ सप्रदाय का थोडा बहुत प्रभाव अवश्य काम कर रहा है । उन वैदिक सम्प्रदायो के प्रत्येक जीवनव्यवहार की छानबीन करने से कोई भी विचारक यह सरलता से जान सकता है कि इसमे निर्ग्रन्थों की अहिसा-भावना का पुट अवश्य है । आज भारत में हिसामूलक यज्ञ-यागादि धर्म - विधि का समर्थक भी यह साहस नही कर सकता है कि वह यजमानों को पशुवध के लिए प्रेरित करे ।
आचार्य हेमचन्द्र ने गुर्जरपति परममाहेश्वर सिद्धराज तक को बहुत