Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
अशों में अहिंसा की भावना से प्रभावित किया। इसका फल अनेक दिशाओं में अच्छा आया । अनेक देव-देवियो के सामने खास-खास पर्वो पर होनेवाली हिंसा रुक गई और ऐसी हिसा को रोकने के व्यापक आन्दोलन की एक नीव पड़ गई। सिद्धराज का उत्तराधिकारी गुर्जरपति कुमारपाल तो परमार्हत ही था। वह सच्चे अर्थ में परमात इसलिए माना गया कि उसने जैसी और जितनी अहिंसा की भावना पुष्ट की और जैसा उसका विस्तार किया वह इतिहास मे बेजोड़ है। कुमारपाल की 'अमारि-घोषणा' इतनी लोकप्रिय बनी कि आगे के अनेक निर्ग्रन्थ और उनके गृहस्थ-शिष्य 'अमारि-घोषणा' को अपने जीवन का ध्येय बनाकर ही काम करने लगे। आचार्य हेमचन्द्र के पहले कई निर्ग्रन्थो ने मासागी जातियो को अहिंसा की दीक्षा दी थी और निर्ग्रन्थ-संघ मे ओसवाल-पोरवाल आदि वर्ग स्थापित किए थे। शक आदि विदेशी जातियाँ भी अहिसा के चेप से वच न सकीं। हीरविजयसूरि ने अकबर जैसे भारत-सम्राट से भिक्षा मे इतना ही माँगा कि वह हमेशा के लिए नही तो कुछ खास-खास तिथियो पर अमारि-घोषणा जारी करे। अकवर के उस पथ पर जहाँगीर आदि उनके वशज भी चले। जो जन्म से ही मासागी थे उन मुगल सम्राटो के द्वारा अहिसा का इतना विस्तार कराना यह आज भी सरल नही है।
आज भी हम देखते है कि जैन-समाज ही ऐसा है, जो जहाँ तक सभव हो विविध क्षेत्रो मे होनेवाली पशु-पक्षी आदि की हिंसा को रोकने का सतत प्रयत्न करता है। इस विगाल देश में जुदे-जुदे सस्कारवाली अनेक जातियाँ पडोस-पडोस में बमती हैं । अनेक जन्म से ही मासाशी भी है। फिर भी जहाँ देखो वहाँ अहिंसा के प्रति लोकरुचि तो है ही। मध्यकाल मे ऐसे अनेक सन्त और फकीर हुए जिन्होने एक मात्र अहिंसा और दया का ही उपदेश दिया है, जो भारत की आत्मा मे अहिंसा की गहरी जड की साक्षी है।
महात्मा गाँधीजी ने भारत मे नव-जीवन का प्राण प्रस्पदित करने का संकल्प किया, तो वह केवल अहिंसा की भूमिका के ऊपर ही। यदि उनको अहिंसा की भावना का ऐसा तैयार क्षेत्र न मिलता, तो वे शायद ही इतने सफल होते।
(द० औ० चि० ख० २, पृ० ७५-७८)