Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण जब विवेक के द्वारा इष्ट-अनिष्टत्व की भावना नष्ट हो जाती है तब वैसी स्थिति समता कहलाती है।
(५) वासना के सम्बन्ध से उत्पन्न होनेवाली वृत्तियों का निर्मूल निरोध वृत्तिसक्षय है।
ये दोनों प्रकार के वर्णन प्राचीन जैन गुणस्थानक के विचारो का नवीन पद्धति से किया गया वर्णनमात्र है।
(द० अ० चि० भा॰ २, पृ० १०११-१०१४, १०१७-१०२१)