Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण बाह्य ज्ञान कम हो, तबसे सदृष्टि शुरू होती है, क्योकि उस समय आत्मा की वृत्ति ससारोन्मुख न रहकर मोक्षोन्मुख हो जाती है । ___ इस सदृष्टि (योगदृप्टि) के, विकास के तारतम्य के अनुसार, आठ भेद है । इन आठ भेदो में उत्तरोत्तर सविशेष बोध अर्थात् जागृति होती है। पहली मित्रा नामक दृष्टि में वोध और वीर्य का बल तृणाग्नि की प्रभा जैसा होता है । दूसरी तारा दृष्टि मे कण्डे की आग की प्रभा जैसा, तीसरी वला दृष्टि मे लकड़ी की आग की प्रभा जैसा, चौथी दीप्रा दृष्टि मे दीपक की प्रभा जैसा, पाचवी स्थिर दृष्टि मे रत्न की प्रभा जैसा, छठी कान्ता दृष्टि मे नक्षत्र की प्रभा जैसा, सातवी प्रभा दृष्टि मे सूर्य की प्रभा जैसा और आठवी परा दृष्टि में चन्द्र की प्रभा जैसा होता है।
यद्यपि इनमे से पहली चार दृष्टियों मे स्पष्ट रूप से ज्ञेय आत्मतत्त्व का सवेदन नही होता, केवल अन्तिम चार दृष्टियों मे ही वैसा सवेदन होता है, तथापि पहली चार दृष्टियों की सदृष्टि में परिगणना करने का कारण यह है कि उस स्थिति में आने के बाद आध्यात्मिक उत्क्रान्ति का ‘मार्ग निश्चित हो जाता है । योग के यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि इन आठ अगो के आधार पर सद्दृष्टि के आठ विभाग समझने चाहिए । पहली दृष्टि मे यम की स्थिरता, दूसरी मे नियम की इस प्रकार अनुक्रम से आठवी मे समाधि की स्थिरता मुख्य रूप से होती है।
पहली मित्रा आदि चार दृप्टियो मे आध्यात्मिक विकास होता तो है, पर उनमे कुछ अज्ञान और मोह का प्राबल्य रहता है, जब कि स्थिरा आदि बाद की चार दृप्टियो मे ज्ञान एव निर्मोहता का प्राबल्य बढ़ता जाता है ।
योग के पाँच भागरूप दूसरा प्रकार दूसरे प्रकार के वर्णन में उन आचार्य ने केवल आध्यात्मिक विकास के क्रम का ही योग के रूप मे वर्णन किया है, उससे पूर्व की स्थिति का वर्णन नही किया।
१. देखो योगबिन्दु ।