Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनव का प्राण
जैन ऊहापोह की क्रमिक भूमिकाएं
उपर्युक्त विवेचन से अहिंसा सबधी जैन ऊहापोह की नीचे लिखी क्रमिक भूमिकाएँ फलित होती है :
(१) प्राण का नाश हिंसारूप होने से उसको रोकना ही अहिसा है ।
(२) जीवन धारण की समस्या मे से फलित हुआ कि जीवन- खासकर सयमी जीवन के लिए अनिवार्य समझी जानेवाली प्रवृत्तियाँ करते रहने पर अगर जीवघात हो भी जाए तो भी यदि प्रमाद नही है तो वह जीवघात हिंसारूप न होकर अहिंसा ही है ।
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(३) अगर पूर्णरूपेण अहिसक रहना हो तो वस्तुतः और सर्वप्रथम चित्तगत क्लेश (प्रमाद) का ही त्याग करना चाहिए । यह हुआ तो अहसा सिद्ध हुई । अहिसा का बाह्य प्रवृत्तियों के साथ कोई नियत सबंध नही है । उसका नियत संबध मानसिक प्रवृत्तियो के साथ है ।
(४) वैयक्तिक या सामूहिक जीवन मे ऐसे भी अपवाद-स्थान आते हैं जब कि हिसा मात्र अहिसा ही नही रहती, प्रत्युत वह गुणवर्धक भी बन जाती है । ऐसे आपवादिक स्थानो मे अगर कही जानेवाली हिसा से डरकर उसे आचरण में न लाया जाए तो उलटा दोष लगता है ।
जैन एवं मीमांसक आदि के बीच साम्य
जैन अहिंसा के उत्सर्ग - अपवाद की यह चर्चा ठीक अक्षरशः मीमासा और स्मृति के अहिंसा सबधी उत्सर्ग अपवाद की विचारसरणी से मिलती है । अन्तर है तो यही कि जहाँ जैन विचारसरणी साधु या पूर्णत्यागी के जीवन को लक्ष्य मे रखकर प्रतिष्ठित हुई है वहाँ मीमासक और स्मातों की विचारसरणी गृहस्थ, त्यागी सभी के जीवन को केन्द्रस्थान मे रखकर प्रचलित हुई है । दोनो का साम्य इस प्रकार है
१ जैन
१. सव्वे पाणा न हतव्वा
२ वैदिक
१. मा हिंस्यात् सर्वभूतानि