Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
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आध्यात्मिक विकास का प्रारम्भ हो जाता है । इसके पश्चात् आत्मा अपनी ज्ञान एव वीर्यशक्ति की सहायता लेकर अज्ञान और रागद्वेष के साथ कुश्ती करने के लिए अखाडे मे उतरती है। वह कभी हारती भी है, परन्तु अन्त मे उस हार के परिणामस्वरूप वढी हुई ज्ञान एव वीर्यशक्ति को लेकर हरानेवाले अज्ञान और रागद्वेष को दबाती जाती है । जैसे-जैसे वह दबाती है वैसेवैसे उसका उत्साह बढता है। उत्साहवृद्धि के साथ ही एक अपूर्व आनन्द की लहर बहने लगती है। इस आनन्द की लहर मे आनखशिख डूबी आत्मा अज्ञान एव रागद्वेष के चक्र को अधिकाधिक निर्बल करती हुई अपनी सहज स्थिति की ओर आगे बढती जाती है। यह स्थिति आध्यात्मिक विकासक्रम की है।
(क) इस स्थिति की अन्तिम मर्यादा ही विकास की पूर्णता है। इस पूर्णता के प्राप्त होने पर ससार से पर स्थिति प्राप्त होती है। उसमे केवल स्वाभाविक आनन्द का ही साम्राज्य होता है । वह है मोक्षकाल ।
चौदह गुणस्थान और उनका विवरण जैन साहित्य के प्राचीन ग्रन्थ, जो आगम के नाम से प्रसिद्ध है, उनमे भी आध्यात्मिक विकास के क्रम से सम्बन्ध रखनेवाले विचार व्यवस्थित रूप से उपलब्ध होते है। उनमे आत्मिक स्थिति के चौदह विभाग किये गये है, जो गुणस्थान के नाम से प्रसिद्ध है।
गुणस्थान ___ गुण यानी आत्मा की चेतना, सम्यक्त्व, चारित्र, वीर्य आदि शक्तिया। स्थान यानी उन शक्तियों की शुद्धता की तरतमभाववाली अवस्थाएँ। आत्मा के सहज गुण विविध आवरणों से ससारदशा मे आवृत है । आवरणों की विरलता या क्षय का परिमाण जितना विशेप उतनी गुणों की वृद्धि विशेष, और आवरणो की विरलता या क्षय का परिमाण जितना कम उतनी गुणो की वृद्धि कम । इस प्रकार आत्मिक गुणो की शुद्धि के प्रकर्ष या अपकर्षवाले असख्यात प्रकार सम्भव है, परन्तु सक्षेप मे उनको चौदह भार्गों मे बाँटा गया है। वे गुणस्थान कहलाते है । गुणस्थान की कल्पना मुख्य