Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
अवस्था है । इसका सास्वादन नाम इसलिए पड़ा है कि इसमे पतनोन्मुख आत्मा मे तत्त्वरुचिका स्वल्प भी आस्वाद होता है, जैसे कि मिष्टान्न के भोजन के अनन्तर उल्टी होने पर एक विलक्षण स्वाद होता है । यह दूसरा गुणस्थान पतनोन्मुख आत्मा की ही स्थिति है ।
(३) झूला झूलनेवाले मनुष्य की भाँति जिस अवस्था मे आत्मा दोलायमान होती है जिसके कारण वह सर्वथा सत्यदर्शन भी नही कर सकती अथवा सर्वथा मिथ्यादृष्टि की स्थिति मे भी नही रह सकती अर्थात् उसकी सवाल- सी स्थिति हो जाती है उस अवस्था को सम्यक् - मिथ्यादृष्टि कहते हैं । इस गुणस्थान मे दर्शनमोहनीय का विष पहले जैसा तीव्र नही रहता, परन्तु होता है तो अवश्य ।
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(४) जिस अवस्था में दर्शनमोहनीय का बल या तो बिलकुल दब जाता है अथवा विरल हो जाता है, या फिर बिलकुल क्षीण हो जाता है, जिसके कारण आत्मा असन्दिग्ध रूप से सत्यदर्शन कर सकती है, वह अवस्था अविरतसम्यग्दृष्टि है । इसका अविरत नाम इसलिए है कि इसमे चारित्र - मोहनीय की सत्ता सविशेष होने से विरति ( त्यागवृत्ति) का उदय नहीं हो पाता ।
(५) जिस अवस्था में मत्यदर्शन के अलावा अल्पाश मे भी त्यागवृत्ति का उदय होता है वह देशविरति है । इसमे चारित्रमोहनीय की सत्ता अवव्य कम होती है और कमी के अनुपात में त्यागवृत्ति होती है ।
(६) जिस अवस्था मे त्यागवृत्ति पूर्ण रूप से उदित होती है, परन्तु बीच-बीच मे प्रमाद ( स्खलन ) की सम्भावना रहती है वह प्रमत्तसयत अवस्था है ।
( ७ ) जिसमे प्रमाद की तनिक भी शक्यता नही होती वह अप्रमत्तसयत अवस्था है ।
( ८ ) जिस अवस्था मे पहले कभी अनुभव न किया हो ऐसी आत्मशुद्धिका अनुभव होता है और अपूर्व वीर्योल्लास — आत्मिक सामर्थ्य — प्रकट होता है वह अवस्था अपूर्वकरण है । इसका दूसरा नाम निवृत्तिबादर भी है ।
( ९ ) जिस अवस्था में चारित्रमोहनीय कर्म के शेष अशो का उप