Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
View full book text
________________
जैनधर्म का प्राण
और रागद्वेष के ऐसे प्रबल सस्कार जमे हुए हैं कि उनके कारण उसे सच्चे सुख का भान नही हो सकता, और कुछ भान होता है तो भी वह सच्चे सुख की प्राप्ति के लिए प्रवृत्ति नही कर सकती।' अज्ञान चेतना के स्फुरण का विरोधी तत्त्व है, अत जब तक अज्ञान की तीव्रता होती है तब तक चेतना का स्फुरण अत्यन्त मन्द होता है। उसकी वजह से सच्चे सुख और सच्चे सुख के साधन का भास ही नहीं होने पाता। इस कारण आत्मा स्वय एक विषय मे सुख पाने की धारणा से प्रवृत्ति करती है और उसमे निराश होने पर दूसरे विषय की ओर झुकती है । दूसरे विषय मे निराश होने पर वह तीसरे विषय की ओर दौडती है। इस प्रकार उसकी स्थिति भँवर मे पड़ी लकड़ी जैसी अथवा ऑधी में उड़ते तिनके जैसी होती है । ऐसी कष्ट-परपरा का अनुभव करते-करते थोडा-सा अज्ञान दूर होता है, तो भी राग-द्वेष की तीव्रता के कारण सुख की सही दिशा मे प्रयाण नहीं होता। अज्ञान की कुछ मन्दता से बहुत बार ऐसा भान होता है कि सुख और दुख के बीज बाह्य जगत मे नही है, फिर भी रागद्वेप की तीव्रता के परिणामस्वरूप पूर्वपरिचित विषयो को ही सुख और दुख के साधन मानकर उनमें हर्ष एव विषाद का अनुभव हुआ करता है । यह स्थिति निश्चित लक्ष्यहीन होने से दिशा का सुनिश्चय किये बिना जहाज चलानेवाले मांझी की स्थिति जैसी होती है । यह स्थिति आध्यात्मिक अविकास काल की है।
(ब) अज्ञान एव रागद्वेष के चक्र का बल भी सर्वदा जैसा का तैसा नही रह सकता, क्योकि वह बल चाहे जितना प्रबल क्यो न हो, तो भी आखिरकार आत्मिक बल के सामने तो अगण्य है। लाखो मन घास और लकड़ी को जलाने के लिए उतनी ही आग की आवश्यकता नहीं होती। उसके लिए तो आग की एक चिनगारी भी काफी है। शुभ, मात्रा मे थोडा हो तो भी, लाखो गुना अशुभ की अपेक्षा अधिक बलवान होता है। जब आत्मा मे चेतनता का स्फुरण कुछ बढता है और रागद्वेष के साथ होनेवाले आत्मा के युद्ध मे जब रागद्वेष की शक्ति कम होती है, तब आत्मा का वीर्य, जो अब तक उल्टी दिशा में कार्य करता था, सही दिशा की ओर मुडता है । उसी समय आत्मा अपने ध्येय का निश्चय करके उसे प्राप्त करने का दृढ निश्चय करती है और उसके लिए प्रवृत्ति करने लगती है। इस समय