Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
एक ओर विवेक-शक्ति का विकास साधने की बात कहता है और दूसरी ओर वह राग द्वेष के सस्कारो को नष्ट करने की बात कहता है । जैन दर्शन आत्मा को तीन विभागो मे बॉटता है जब अज्ञान और मोह का पूर्ण प्राबल्य हो और उसके कारण आत्मा वास्तविक तत्त्व का विचार ही न कर सके तथा सत्य एव स्थायी सुख की दिशा में एक भी कदम उठाने की इच्छा तक न कर सके, तब वह बहिरात्मा कहलाती है । जीव की यह प्रथम भूमिका हुई। यह भूमिका रहती है तब तक पुनर्जन्म के चक्र का बन्द होना सम्भव ही नहीं है, और लौकिक दृष्टि में चाहे जितना विकास दिखाई दे, परन्तु वास्तव मे वह आत्मा अविकसित ही होती है।
विवेकशक्ति का प्रादुर्भाव होने पर तथा रागद्वेष के संस्कारो का बल घटने पर दूसरी भूमिका शुरू होती है। इसे जैनदर्शन अन्तरात्मा कहता है । इस भूमिका के समय यद्यपि देहधारण के लिए उपयोगी सभी सासारिक प्रवृत्तियाँ कमोवेश चलती है, तथापि विवेकशक्ति के विकास एव रागद्वेष की मन्दता के अनुपात मे वे प्रवृत्तियाँ अनासक्तियुक्त होती है। इस दूसरी भूमिका मे प्रवृत्ति के होने पर भी उसमे आन्तरिक दृष्टि से निवृत्ति का तत्त्व होता है।
दूसरी भूमिका के अनेक सोपान पार करने पर आत्मा परमात्मा की दशा प्राप्त करती है। यह जीवन-शोधन की अन्तिम एव पूर्ण भूमिका है।
जैन दर्शन कहता है कि इस भूमिका पर पहुंचने के पश्चात् पुनर्जन्म का चक्र सर्वदा के लिए सर्वथा रुक जाता है।
ऊपर के सक्षिप्त वर्णन पर से हम देख सकते है कि अविवेक (मिथ्यादृष्टि) और मोह (तृष्णा) ये दो ही ससार है अथवा ससार के कारण है। इससे उल्टा, विवेक और वीतरागत्व ही मोक्ष है अथवा मोक्ष का मार्ग है। इसी जीवन-शोधन की सक्षिप्त जैन मीमासा का अनेक जैन-ग्रन्थों मे, अनेक रूप से, सक्षेप या विस्तारपूर्वक, तथा भिन्न-भिन्न परिभाषाओ मे वर्णन पाया जाता है और यही जीवनमीमासा अक्षरश. वैदिक एवं बौद्ध दर्शनो मे भी पद-पद पर दृष्टिगोचर होती है।