Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
मे भी वह प्रथा नाम-शेष हो गई और जगह-जगह आजतक चली आनेवाली पिजरापोलो की लोकप्रिय सस्थाओ में परिवर्तित हो गई। __ पार्श्वनाथ का जीवन-आदर्श कुछ और ही रहा है। उन्होने एक बार दुर्वासा जैसे सहजकोपी तापस तथा उनके अनुयायियो की नाराजगी का खतरा उठाकर भी एक जलते सॉप को गीली लकडी से बचाने का प्रयत्न किया। फल यह हुआ कि आज भी जैन प्रभाववाले क्षेत्रो मे कोई सॉप तक को नहीं मारता।
दीर्घ तपस्वी महावीर ने भी एक बार अपनी अहिसा-वृत्ति की पूरी साधना का ऐसा ही परिचय दिया । जब जगल मे वे ध्यानस्थ खडे थे, एक प्रचण्ड विषधर ने उन्हे डस लिया। उस समय वे न केवल ध्यान मे अचल ही रहे वल्कि उन्होने मैत्री-भावना का उस विषधर पर प्रयोग किया, जिससे वह “अहिसाप्रतिष्ठाया तत्सनिघौ वैरत्याग" इस योगसूत्र का जीवित उदाहरण बन गया। अनेक प्रसगो पर यज्ञयागादि धार्मिक कार्यो मे होनेवाली हिंसा को तो रोकने का भरसक प्रयत्न वे आजन्म करते ही रहे । ऐसे ही आदर्शो से जैन-सस्कृति उत्प्राणित होती आई है और अनेक कठिनाइयो के बीच भी उसने अपने आदर्शों के हृदय को किसी-न-किसी तरह सँभालने का प्रयत्न किया है, जो भारत के धार्मिक, सामाजिक और राजकीय इतिहास मे जीवित है। जब कभी सुयोग मिला तभी त्यागी तथा राजा, मन्त्री और व्यापारी आदि गृहस्थो ने जैन-सस्कृति के अहिंसा, तप और सयम के आदर्शो का अपने ढग से प्रचार किया।
संस्कृति का उद्देश्य ___ सस्कृतिमात्र का उद्देश्य है मानवता की भलाई की ओर आगे बढ़ना। यह उद्देश्य वह तभी साध सकती है जब वह अपने जनक और पोषक राष्ट्र की भलाई मे योग देने की ओर सदा अग्रसर रहे। किसी भी सस्कृति के बाह्य अङ्ग केवल अभ्युदय के समय ही पनपते है और ऐसे ही समय वे आकर्षक लगते है। पर सस्कृति के हृदय की बात जुदी है । समय आफत का हो या अभ्युदय का, उसकी अनिवार्य आवश्यकता सदा एक-सी बनी रहती है। कोई भी सस्कृति केवल अपने इतिहास और पुरानी यशोगाथाओ के