Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
सामाजिक जीवन की भूमिका को अमुक अश मे ही आर्द्र करता है। भूमिका की इस अपूर्ण आर्द्रता से ही अनेक कीटाणु पैदा होते है और वे अपनी आधारभूत भूमिका को ही खा डालते हैं। इतने में किसी दूसरे व्यक्ति मे धर्म का स्रोत फूट पडता है और वह पहले की कीटाणुजन्य दुर्गन्ध को साफ करने के लिए प्रयत्नशील होता है। यह दूसरा स्रोत पूर्वस्रोत पर जमी हुई काई को साफ करके जीवन की भूमिका में अधिक फलदायी कॉप छोड़ जाता है। इसके बाद काप के इस दूसरे स्तर पर जब काई जमती है, तब कभी कालक्रम से तीसरे व्यक्ति मे से पैदा धर्म-स्रोत उसका मार्जन कर डालता है। इस प्रकार मानवजीवन की भूमिका पर धर्म-स्रोत के अनेक प्रवाह बहते रहते है। इसके फलस्वरूप भूमिका विशेष एव विशेष योग्य तथा उपजाऊ बनती जाती है।
.धर्म-स्रोत का प्रकटीकरण किसी एक देश या किसी एक जाति की पैतृक सम्पत्ति नही है, वह तो मानवजातिरूपी एक वृक्ष की भिन्न-भिन्न शाखाओ पर आनेवाले सु-फल है । इसका प्रभाव चाहे विरल व्यक्ति मे हो, परन्तु उसके द्वारा समुदाय का अमुक अश मे विकास अवश्य होता है।
(द० अ० चि० भा० १, पृ० २८)
६. धर्म के दो रूप : बाह्य और आभ्यन्तर धर्म के दो रूप है । एक तो वह जो नज़र मे आता है और दूसरा बह जो आँखो से नही देखा जाता, परन्तु केवल मन से ही समझा जा सकता है। पहले रूप को धर्म की देह और दूसरे रूप को उसकी आत्मा कह सकते है।
दुनिया के सभी धर्मों का इतिहास कहता है कि सभी धर्मों की देह जरूर होती है। अतः प्रथम यह देखे कि यह देह किसकी बनती है। सभी छोटे-बडे धर्मपन्थो का अवलोकन करने पर इतनी बाते तो सर्वसाधारणसी है : शास्त्र, उसका रचयिता तथा उसे समझानेवाला पण्डित अथवा गुरु, तीर्थ, मन्दिर आदि पवित्र समझे जानेवाले स्थान, अमुक प्रकार की उपासना अथवा विशिष्ट प्रकार के क्रियाकाण्ड, वैसे क्रियाकाण्डों और उपासनाओ को पोसने और उन पर निभनेवाला एक वर्ग । सभी धर्मपन्थो मे, एक अथवा दूसरे रूप मे, उपर्युक्त बाते पाई जाती हैं और वे ही