Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
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दृष्टि के गज से बदल डाला और उसकी इस धर्म - दृष्टि का आज तो चारों ओर से सत्कार हो रहा है ।
यहोवा ने मूसा को जो आदेश दिया वह केवल यहूदी लोगो के स्थूल उद्धार तक ही मर्यादित था और इतर समकालीन जातियो का उसमे विनाश भी सूचित होता था, परन्तु उसी जाति मे ईसा मसीह के पैदा होने पर धर्मदृष्टि ने दूसरा ही रूप लिया । ईसा मसीह ने धर्म की सभी आज्ञाओ का बाहर-भीतर से सशोधन किया तथा देश-काल का भेद किये बिना सर्वत्र लागू हो सके उस प्रकार उनको उदात्त बनाया । इन सबके पहले ईरान मेजरथोस्त्र ने नवीन दर्शन प्रदान किया था, जो अवेस्ता में जीवित है । आपस मे लडते-झगडते और अनेक प्रकार के वहमो से जकड़े हुए अरब के कबीलो को एक-दूसरे के साथ जोडने की और कुछ अशो मे वहमों से मुक्त करने की धर्म - दृष्टि मुहम्मद पैगम्बर मे विकसित हुई ।
परन्तु धर्मदृष्टि के विकास एवं ऊर्ध्वकरण की मुख्य कथा तो मै भारतीय परम्पराओ के आधार पर कहना चाहता हूँ । वेदो के उष, वरुण इन्द्र आदि सूक्तो मे कवियो की सौन्दर्य- दृष्टि, पराक्रम के प्रति अहोभाव तथा किसी दिव्यशक्ति के प्रति भक्ति जैसे मगल तत्त्व देखे जाते है, परन्तु उन कवियो की धर्म-दृष्टि मुख्य रूप से सकाम है । इसीलिए वे दिव्यशक्ति के पास अपनी अपने कुटुम्ब की और पशु आदि परिवार की समृद्धि की याचना करते है और बहुत हुआ तो दीर्घायुष्य के लिए प्रार्थना करते है । सकामता की यह भूमिका ब्राह्मणकाल मे विकास पाती है । उसमें ऐहिक के अलावा आमुष्मिक भोगो को साधने के नये-नये मार्ग निकाले जाते है |
परन्तु, यह सकाम धर्म-दृष्टि समाज मे व्याप्त थी उसी समय सहसा धर्म-दृष्टि का प्रवाह बदलता दिखता है । किसी तपस्वी अथवा ऋषि को सूझा कि दूसरे लोक के सुखभोग चाहना और वह भी अपने लिए अथवा बहुत हुआ तो परिवार या जनपद के लिए तथा दूसरों की अपेक्षा खूब अधिक, तो यह कुछ धर्म-दृष्टि नही कही जा सकती । धर्म-दृष्टि मे कामना का तत्त्व हो तो वह एक प्रकार की न्यूनता ही है । इस विचार मे से नया प्रस्थान शुरू हुआ और उसका जादू व्यापक रूप से फैल गया । ईसापूर्व