Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
क्या धर्म और बुद्धि में विरोध है ? इसके उत्तर में सक्षेप में इतना कहा जा सकता है उनके बीच कोई विरोध नही है और न हो सकता है। यदि सचमुच ही किसी धर्म मे इनका विरोध माना जाए तो हम यही कहेगे कि उस बुद्धि-विरोधी धर्म से हमें कोई मतलब नही । ऐसे धर्म को अगीकार करने की अपेक्षा उसको अगीकार न करने मे ही जीवन सुखी और विकसित रह सकता है।
(द० औ० चिं० ख० १, पृ० १३)
१०. धर्म और विचार विचार ही धर्म का पिता, उसका मित्र और उसकी प्रजा है । जिस में विचार न हो उसमे धर्म की उत्पत्ति सम्भव नही। धर्म के जीवन और प्रसरण के साथ विचार होता ही है । जो धर्म विचारो को उबुद्ध न करे
और उनका पोषण न करे वह अपनी आत्मा खो देता है। अतएव धर्म विषयक विचारणा या परीक्षा की भी परीक्षा होती रहे तो परिणाम में वह लाभदायी ही है।
(द० अ० चि० भा० १, पृ० ४९) ११. धर्म और संस्कृति के बीच अन्तर धर्म का सच्चा अर्थ है आध्यात्मिक उत्कर्ष, जिसके द्वारा व्यक्ति बहिर्मुखता को छोडकर-वासनाओ के पाश से हटकर--शुद्ध चिद्रूप या आत्म-स्वरूप की ओर अग्रसर होता है । यही है यथार्थ धर्म । अगर ऐसा धर्म सचमुच जीवन मे प्रकट हो रहा हो तो उसके बाह्य साधन भीचाहे वे एक या दूसरे रूप मे अनेक प्रकार के क्यो न हो-धर्म कहे जा सकते है। पर यदि वासनाओ के पाश से मुक्ति न हो या मुक्ति का प्रयत्न भी न हो, तो बाह्य साधन कैसे भी क्यो न हो, वे धर्म-कोटि मे कभी आ नही सकते । बल्कि वे सभी साधन अधर्म ही बन जाते है । साराश यह कि धर्म का मुख्य मतलब सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह-जैसे आध्यात्मिक सद्गुणो से है । सच्चे अर्थ मे धर्म कोई बाह्य वस्तु नही है । तो भी वह बाह्य जीवन और व्यवहार के द्वारा ही प्रकट होता है । धर्म को यदि आत्मा