Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
है। इसके विपरीत पन्थ में चौकावृत्ति इतनी प्रबल होती है कि जहाँ देखो वहाँ छुआछूत की गन्ध आती है और फिर भी चौका-वृत्ति की नाक अपने पाप की दुर्गन्ध सूघ ही नही सकती ! उसे तो जो उसने मान लिया है वही खुशबूदार और स्वय जिस पर चलता हो वही मार्ग श्रेष्ठ लगता है । इसके परिणामस्वरूप उसे अन्यत्र सर्वत्र बदबू और दूसरे मे अपने पथ की अपेक्षा ओछापन मालूम होता है।
सक्षेप मे कहे तो धर्म मनुष्य को रात-दिन पोषित होनेवाले भेदसस्कारो मे से अभेद की ओर ले जाता है, तो पन्थ इन भेदों मे अधिकाधिक वृद्धि करता है और कभी दैवयोग से अभेद का अवसर कोई उपस्थित करे तो उससे उसको दुख होता है। धर्म मे सासारिक छोटे-मोटे झगड़े (जर, जोरू, जमीन के तथा मान-अपमान के झगडे) भी शान्त हो जाते है, जबकि पन्थ में धर्म के नाम पर और धार्मिक भावना के बल पर ही झगडे पैदा होते हैं। झगड़े के बिना धर्म की रक्षा ही नही दिखती !
पन्थ थे, है और रहेगे, परन्तु उनमे सुधारने जैसा अथवा करने जैसा कुछ हो तो वह इतना ही है कि उसमेसे बिछुड़ी हुई धर्म की आत्मा को उसमे पुन. स्थापित किया जाय । इसलिए हम चाहे जिस पन्थ के हो, परन्तु धर्म के तत्त्वो को आत्मसात् करके ही हम उस पन्थ का अनुगमन करे, अहिंसा के लिए हिंसा न करे और सत्य के लिए असत्य न बोले। पन्थ मे धर्म के प्राण फूकने की खास शर्त यह है कि दृष्टि सत्याग्रही हो । सत्याग्रही होने के लक्षण सक्षेप मे इस प्रकार है -
(१) हम स्वय जो मानते या करते हो उसकी पूरी समझ हमें होनी चाहिए और अपनी समझ पर हमे इतना अधिक विश्वास होना चाहिए कि दूसरो को समझाने की आवश्यकता उपस्थित हो तो वह बराबर समझाई जा सके।
(२) अपनी मान्यता की सही समझ और यथार्थ विश्वास की कसौटी यह है कि दूसरो को समझाते समय तनिक भी आवेश अथवा क्रोष न आने पाये और उसकी (अपनी मान्यता और विश्वास की) विशेषता के साथ ही यदि उसमे कोई कमी दिखाई दे तो उसका नि.संकोच स्वीकार करना चाहिए।