Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
के तत्त्व-चिन्तन की आद्य भूमि ग्रीस के चिन्तको मे भी परस्पर विरोधी अनेक सम्प्रदाय रहे है, पर भारतीय तत्त्व-चिन्तको के सम्प्रदाय की कथा कुछ निराली ही है। इस देश के सम्प्रदाय मूल मे धर्मप्राण और धर्मजीबी रहे है । सभी सम्प्रदायो ने तत्त्व-चिन्तन को आश्रय ही नही दिया, बल्कि उसके विकास और विस्तार मे भी बहुत कुछ किया है। एक तरह से भारतीय तत्त्व-चिन्तन का चमत्कारपूर्ण बौद्धिक प्रदेश जुदे-जुदे सम्प्रदायो के प्रयत्न का ही परिणाम है। पर हमे जो सोचना है वह तो यह है कि हरएक सम्प्रदाय अपन जिन मन्तव्यो पर सबल विश्वास रखता है और जिन मन्तव्यो को दूसरा विरोधी सम्प्रदाय कतई मानने को तैयार नही है वे मन्तव्य साम्प्रदायिक विश्वास या साम्प्रदायिक भावना के ही विषय माने जा सकते है, साक्षात्कार के विषय नही । इस तरह साक्षात्कार का सामान्य स्रोत सम्प्रदायो की भूमि पर ब्यौरे के विशेष प्रवाहो मे विभाजित होते ही विश्वास और प्रतीति का रूप धारण करने लगता है।
जब साक्षात्कार विश्वास रूप में परिणत हुआ तब उस विश्वास को स्थापित रखने और उसका समर्थन करने के लिए सभी सम्प्रदायो को कल्पनाओ का, दलीलो का तथा तर्कों का सहारा लेना पड़ा ।। सभी साम्प्रदायिक तत्त्व-चिन्तक अपने-अपने विश्वास की पुष्टि के लिए कल्पनाओं का सहारा पूरे तौर से लेते रहे, फिर भी यह मानते रहे कि हम और हमारा सम्प्रदाय जो कुछ मानते है वह सब कल्पना नही, अपितु साक्षात्कार है। इस तरह कल्पनाओ का तथा सत्य-असत्य और अर्धसत्य तर्को का समावेश भी दर्शन के अर्थ मे हो गया। एक तरफ से जहा सम्प्रदाय ने मूल दर्शन अर्थात् साक्षात्कार की रक्षा की और उसे स्पष्ट करने के लिये अनेक प्रकार के चिन्तन को चालू रखा तथा उसे व्यक्त करने की अनेक मनोरम कल्पनाएँ की, वहा दूसरी तरफ से सम्प्रदाय की बाड पर बढने तथा फूलने-फलनेवाली तत्त्व-चिन्तन की बेल इतनी पराश्रित हो गई कि उसे सम्प्रदाय के सिवाय कोई दूसरा सहारा ही न रहा । फलत. पर्देबन्द पधिनियो की तरह तत्त्व-चिन्तन की बेल भी कोमल और सकुचित दृष्टिबाली बन गई।
(द० औ० चिं० ख० १, पृ० ६७-६९)