Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
जैन संस्कृति का हृदय निवर्तक धर्म अब प्रश्न यह है कि जैन-सस्कृति का हृदय क्या चीज़ है ? इसका सक्षिप्त जवाब यही है कि निवर्तक धर्म जैन सस्कृति की आत्मा है । जो धर्म निवृत्ति करानेवाला अर्थात् पुनर्जन्म के चक्र का नाश करानेवाला हो या उस निवृत्ति के साधन रूप से जिस धर्म का आविर्भाव, विकास और प्रचार हआ हो वह निवर्तक धर्म कहलाता है। इसका असली अर्थ समझने के लिए हमे प्राचीन किन्तु समकालीन इतर धर्म-स्वरूपो के बारे मे थोड़ा-सा विचार करना होगा।
धर्मों का वर्गीकरण इस समय जितने भी धर्म दुनिया मे जीवित है या जिनका थोडा-बहुत इतिहास मिलता है, उन सबके आन्तरिक स्वरूप का अगर वर्गीकरण किया जाय तो वह मुख्यतया तीन भागो मे विभाजित होता है।
१. पहला वह है, जो मौजूदा जन्म का ही विचार करता है। २ दूसरा वह है जो मौजूदा जन्म के अलावा जन्मान्तर का भी
विचार करता है। ३. तीसरा वह है जो जन्म-जन्मान्तर के उपरान्त उसके नाश का,
या उच्छेद का भी विचार करता है।
अनात्मवाद आज की तरह बहुत पुराने समय मे भी ऐसे विचारक लोग थे जो वर्तमान जीवन मे प्राप्त होनेवाले सुख से उस पार किसी अन्य सुख को कल्पना से न तो प्रेरित होते थे और न उसके साधनो की खोज मे समय बिताना ठीक समझते थे। उनका ध्येय वर्तमान जीवन का सुख-भोग ही था
और वे इसी ध्येय की पूर्ति के लिए सब साधन जुटाते थे। वे समझते थे कि हम जो कुछ है वह इसी जन्म तक है और मृत्यु के बाद हम फिर जन्म ले नही सकते । बहुत हुआ तो हमारे पुनर्जन्म का अर्थ हमारी सन्तति का चालू रहना है । अतएव हम जो अच्छा करेगे उसका फल इस जन्म के बाद भोगने के वास्ते हमे उत्पन्न होना नहीं है। हमारे किये का फल हमारी सन्तान