Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
पुरुषो के जीवन-व्यवहारो से तथा आसपास के वातावरण पर पडनेवाले उनके असरो से वे किसी भी आन्तर सस्कृति का अन्दाजा लगा सकते है। यहा मुझे मुख्यतया जैन सस्कृति के उस आन्तर रूप का या हृदय का ही परिचय देना है, जो बहुधा अभ्यासजनित कल्पना तथा अनुमान पर ही निर्भर है।
जैन संस्कृति का बाह्य स्वरूप जैन सस्कृति के बाहरी स्वरूप मे, अन्य सस्कृतियो के बाहरी स्वरूप की तरह, अनेक वस्तुओ का समावेश होता है। शास्त्र, उसकी भापा, मन्दिर, उसका स्थापत्य, मूर्ति-विधान, उपासना के प्रकार, उसमे काम आनेवाले उपकरण तथा द्रव्य, समाज के खानपान के नियम, उत्सव, त्यौहार आदि अनेक विषयो का जैन समाज के साथ एक निराला सवन्ध है और प्रत्येक विषय अपना खास इतिहास भी रखता है । ये सभी बाते बाह्य सस्कृति की अग है, पर यह कोई नियम नही है कि जहाँ और जब ये तथा ऐसे दूसरे अग मौजूद हो वहाँ और तब उसका हृदय भी अवश्य होना ही चाहिए। बाह्य अगो के होते हुए भी कभी हृदय नही रहता और बाह्य अगो के अभाव मे भी सस्कृति का हृदय सभव है। इस दृष्टि को सामने रखकर विचार करनेवाला कोई भी व्यक्ति भली भाति समझ सकेगा कि जैन-सस्कृति का हृदय, जिसका वर्णन मै यहाँ करने जा रहा हूँ, वह केवल जैन समाजजात
और जैन कहलानेवाले व्यक्तियो मे ही सभव है ऐसी कोई बात नही है। सामान्य लोग जिन्हे जैन समझते है या जो अपनेको जैन कहते है, उनमे अगर आन्तरिक योग्यता न हो तो वह हृदय सभव नही और जैन नहीं कहलानेवाले व्यक्तियो मे भी अगर वास्तविक योग्यता हो तो वह हृदय संभव है। इस तरह जब सस्कृति का बाह्य रूप समाज तक ही सीमित होने के कारण अन्य समाज मे सुलभ नही होता, तब सस्कृति का हृदय उस समाज के अनुयायियों की तरह इतर समाज के अनुयायियो मे भी सभव होता है। सच तो यह है कि सस्कृति का हृदय या उसकी आत्मा इतनी व्यापक और स्वतन्त्र होती है कि उसे देश, काल, जात-पात, भाषा और रीति-रस्म आदि न तो सीमित कर सकते है और न अपने साथ बाध सकते है।