Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
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एव सर्वथा मुक्ति का आधार एक मात्र कर्म है। जैसा कर्म, जैसा संस्कार या जैसी वासना वैसी ही आत्मा की अवस्था, पर तात्त्विक रूप से सब आत्माओ का स्वरूप सर्वथा एक-सा है, जो नैष्कर्म्य अवस्था मे पूर्ण रूप से प्रकट होता है । यही आत्मसाम्यमूलक उत्क्रान्तिवाद है ।
साख्य, योग, बौद्ध आदि द्वैतवादी अहिसा समर्थक परम्पराओं का और और बातो मे जैन-परम्परा के साथ जो कुछ मतभेद हो, पर अहिंसाप्रधान आचार तथा उत्क्रान्तिवाद के विषय मे सब का पूर्ण ऐकमत्य है । आत्माद्वैतवादी औपनिषद परम्परा अहिसा का समर्थन समानता के सिद्धान्त पर नही पर अद्वैत के सिद्धान्त पर करती है । वह कहती है कि तत्त्व रूप से जैसे तुम वैसे ही अन्य सभी जीव शुद्ध ब्रह्म - एक ब्रह्मरूप है । जो जीवो का पारस्परिक भेद देखा जाता है वह वास्तविक न होकर अविद्यामूलक है । इसलिए अन्य जीवो को अपने से अभिन्न ही समझना चाहिए और अन्य के दुख को अपना दुख समझकर हिसा से निवृत्त होना चाहिए ।
द्वैतवादी जैन आदि परम्पराओं के और अद्वैतवादी परम्परा के बीच अतर केवल इतना ही है कि पहली परपराऍ प्रत्येक जीवात्मा का वास्तविक भद मानकर भी उन सबमे तात्त्विक रूप से समानता स्वीकार करके अहिसा का उद्बोधन करती है, जब कि अद्वैत परम्परा जीवात्माओ के पारस्परिक भेद को ही मिथ्या मानकर उनमे तात्त्विक रूप से पूर्ण अभेद मानकर उसके आवार पर अहिसा का उद्बोधन करती है । अद्वैत परम्परा के अनुसार भिन्न-भिन्न योनि और भिन्न-भिन्न गतिवाले जीवो मे दिखाई देनेवाले भेद का मूल अधिष्ठान एक शुद्ध अखड ब्रह्म है, जबकि जैन-जैसी द्वैतवादी परम्पराओ के अनुसार प्रत्येक जीवात्मा तत्त्व रूप से स्वतंत्र और शुद्ध ब्रह्म है । एक परम्परा के अनुसार अखड एक ब्रह्म में से नाना जीव की सृष्टि हुई है जबकि दूसरी परम्पराओ के अनुसार जुदे-जुदे स्वतंत्र और समान अनेक शुद्ध ब्रह्म ही अनेक जीव है । द्वैतमूलक समानता के सिद्धान्त मे से ही अद्वैतमूलक ऐक्य का सिद्धान्त क्रमश. विकसित हुआ जान पड़ता है, परन्तु अहिंसा का आचार और आध्यात्मिक उत्क्रान्तिवाद अद्वैतवाद में भी द्वैतवाद के विचार के अनुसार ही घटाया गया है । वाद कोई भी हो, पर अहिसा की दृष्टि से महत्त्व की बात एक ही है कि अन्य जीवो के साथ समानता या