Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
या नकारात्मक धर्मों को पोसा, विकसित किया, और विधायक-भावात्मक धर्म का विकास साधने का पक्ष प्राय समग्र देश मे गौण बन गया । ऐसी दशा मे महायान भावना का उदय हुआ। अशोक की धर्मलिपियो मे इसका दर्शन होता है । इसके पश्चात् तो अनेक भिक्षुक अपने-अपने ढग से इस भावना के द्वारा प्रवर्तकधर्म का विकास साधने लगे। छठी शती के गुजरात मे होनेवाले शान्तिदेव ने यहा तक कह दिया कि दुनिया दुःखी हो और हम मोक्ष की इच्छा रखे, ऐसा अरसिक मोक्ष किस काम का? मध्यकाल तथा उसके बाद के भारत मे अनेक सन्त, विचारक और धर्मदृष्टि के शोधक महात्मा हुए है, परन्तु हमने अपने ही जीवन मे धर्म-दृष्टि का जो ऊर्वीकरण देखा है और अब भी देखते है, वह आज तक विश्व मे धर्म-दृष्टि के होनेवाले विकास का सर्वोपरि सोपान है ऐसा ज्ञात हुए बिना नही रहता ।
(द० अ० चि० भा० १, पृ० ७२-७५) ८. दो धर्म-संस्थाएँ : गृहस्थाश्रम-केन्द्रित और संन्यास केन्द्रित
हमारे देश मे मुख्यतया दो प्रकार की धर्म-सस्थाएँ रही हैं, जिनकी जड़े तथागत बुद्ध और निर्ग्रथनाथ महावीर से भी पुरानी है। इनमे से एक गृहस्थाश्रम-केद्रित है और दूसरी है सन्यास व परिव्रज्या-केद्रित । पहली सस्था का पोषण और सवर्धन मुख्यतया वैदिक ब्राह्मणो के द्वारा हुआ है, जिनका धर्म-व्यवसाय गृह्य तथा श्रौत यज्ञयागादि एव तदनुकूल सस्कारो को लक्ष्य करके चलता रहा है।
दूसरी सस्था शुरू मे और मुख्यतया ब्राह्मणेतर यानी वैदिकेतर, खासकर कर्मकाडी ब्राह्मणेतर वर्ग के द्वारा आविर्भूत हुई है। आज तो हम चार आश्रम के नाम से इतने अधिक सुपरिचित है कि हर कोई यह समझता है कि भारतीय प्रजा पहले ही से चतुराश्रम सस्था की उपासक रही है। पर वास्तव मे ऐसा नही है। गृहस्थाश्रम-केद्रित और सन्यासाश्रम-केद्रित दोनो सस्थाओ के पारस्परिक सघर्ष तथा आचार-विचार के आदान-प्रदान मे से यह चतुराश्रम सस्था का विचार व आचार स्थिर हुआ है।
जो गहस्थाश्रम-केद्रित सस्था को जीवन का प्रधान अङ्ग समझते थे वे सन्यास का विरोध ही नही, अनादर तक करते थे। इस विषय मे गोभिल