Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण उनके बलाबल की कुंजी जिनको प्राप्त हुई है, उनको व्यावहारिक धर्म के मतभेद क्लेशवर्धक हो नहीं सकते। इसका सार यही निकला कि यदि धर्म की सही और स्पष्ट समझ हो तो कोई भी मतभेद क्लेश पैदा नहीं कर सकता; एकमात्र सही समझ ही क्लेशवर्धक मतभेद के निवारण का उपाय है। यह समझ का तत्त्व प्रयत्न से मानवजाति मे फैलाया जा सकता है । अतः ऐसी समझ की प्राप्ति अथवा उसका व्यवस्थित विकास इष्ट है।
शुद्ध वृत्ति और शुद्ध निष्ठा निर्विवाद रूप से धर्म है, जबकि बाह्य व्यवहारो की धर्म-अधर्मता के बारे मे मतभेद है । इसलिए बाह्य आचार या व्यवहार, नियम या रीतिरिवाजो की धर्म्यता अथवा अधर्म्यता की कसौटी तात्त्विक धर्म ही हो सकता है।
__ (द० अ० चि० भा० १, पृ०५२-५३) ७. धर्मदृष्टि और उसका ऊर्वीकरण ऊर्वीकरण का अर्थ है शद्धीकरण तथा विस्तरण । धर्मदृष्टि जैसे-जैसे शुद्ध होती जाती है अथवा शुद्ध की जाती है तथा उसका विस्तार फैलता जाता है, अर्थात् सिर्फ व्यक्तिगत न रहकर उसके सामुदायिक रूप का जैसे-जैसे निर्माण होता जाता है, वैसे-वैसे उसका ऊर्वीकरण भी होता जाता है, ऐसा समझना चाहिए । इसी को Sublimation कहते है।
जिजीविषा अथवा जीवनवृत्ति तथा धर्मदृष्टि ये दोनो प्राणीमात्र मे सहभू एव सहचारी है । धर्मदृष्टि के अभाव मे जीवनवृत्ति सन्तुष्ट नही होती और जीवनवृत्ति के होने पर ही धर्मदृष्टि का अस्तित्व सम्भव है। ऐसा होने पर भी मनुष्य एव इतर जीवजगत् के बीच स्थिति भिन्न-भिन्न है । पशु-पक्षी और कीट-पतग जैसे अनेक प्राणीजातियो के जीव-जन्तुओ मे हम देखते है कि वे केवल अपने दैहिक जीवन के लिए ही प्रवृत्ति नही करते, परन्तु वे अपने-अपने छोटे-बडे यूथ, दल अथवा वर्ग के लिए भी कुछ-न-कुछ करते ही है । यह उनकी एक प्रकार की धर्मवृत्ति हुई । परन्तु इस धर्मवृत्ति के मूल मे जातिगत परम्परा से चला आता एक रूढ सस्कार होता है, उसके साथ समझदारी अथवा विवेक का तत्त्व खिला नही होता