Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
चाहे पूर्वजन्मोपार्जित, पर विकसित मनुष्य-जाति में भी यह सामुदायिक वृत्ति अनिवार्य रूपसे देखी जाती है। जब पुरातन मनुष्य जगली अवस्था मे था तब और जब आज का मनुष्य सभ्य गिना जाता है तब भी, यह सामुदायिक वृत्ति एक-सी अखण्ड देखी जाती है। हॉ, इतना अतर अवश्य है कि जीवन-विकास की अमुक भूमिका तक सामुदायिक वृत्ति उतनी समान नही होती, जितनी कि विकसित बुद्धिशील गिने जानेवाले मनुष्य में है। हम अभान या अस्पष्ट भानवाली सामुदायिक वृत्ति को प्रावाहिक या औधिक वृत्ति कह सकते है । पर यही वृत्ति धर्म-बीज का आश्रय है, इस मे कोई सन्देह नही । इस धर्म-बीज का सामान्य और सक्षिप्त स्वरूप यही है कि वैयक्तिक और सामुदायिक जीवन के लिए जो अनुकूल हो उसे करना और जो प्रतिकूल हो उसे टालना या उससे बचना ।
(द० औ० चि० ख० १, पृ० ३-५)
४. धर्म का ध्येय धर्म का ध्येय क्या होना चाहिए ? किस बात को धर्म के ध्येय के तौर पर सिद्धान्त मे, विचार मे और आचरण मे स्थान देने से धर्म की सफलता
और जीवन की विशेष प्रगति साधी जा सकती है ? ___इसका जवाब यह है कि प्रत्येक व्यक्ति मे अपने वैयक्तिक और सामाजिक कर्तव्य का ठीक-ठीक भाव, कर्तव्य के प्रति उत्तरदायित्व मे रस और उस रस को मूर्त करके दिखलाने जितने पुरुषार्थ की जागति-इसी को धर्म का ध्येय मानना चाहिए। यदि उक्त तत्त्वो को धर्म के ध्येय के रूप में स्वीकार करके उन पर भार दिया जाय तो प्रजाजीवन समग्रभाव से पलट सकता है।
(द० अ० चि० भा० १, पृ० ६४) . ५. धर्म: विश्व की सम्पत्ति आध्यात्मिक धर्म किसी एक व्यक्ति के जीवन मे से छोटे-बडे स्रोत के रूप मे प्रकट होता है, और वह आसपासके मानव-समाज की भूमिका को प्लावित करता है। उस स्रोत का बल और परिमाण चाहे जितना हो, वह