Book Title: Jain Dharm Mimansa 01
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 11
________________ ( ५ ). बदलनेपर आचार - शास्त्र के नियम भी बदलना पड़ते हैं । तदनुसार, यथासाध्य जैन पारिभाषिक शब्दोंके रखते हुए आचार-शास्त्रमें परिवर्तन किया गया है । जैनधर्मकी मीमांसा करनेके बाद अब मैं निश्चित रूपमें कह सकता हूँ कि इस तरहकी मीमांसा अगर अन्य धर्मोकी की जाय तो धर्मो में नाममात्रका अन्तर रह जायगा। उनमें विरोधका पता ही न रह जायगा । अन्धश्रद्धा, अहंकार आदि भी निर्मूल हो जायगे । मैं अपने जीवन में जो साहित्यसेवा करना चाहता हूँ उसका एक बड़ा भाग इस प्रकारकी मीमांसाओंका होगा । वैदिक धर्म, बौद्ध धर्म, क्रिश्चियानिटी, इसलाम आदिकी भी जब ऐसी मीमांसा हो जायगी तब समाजको प्रत्येक धर्मके समझने में सुभीता हो जायगा । सत्यसमाज-ग्रंथमालामें इस प्रकारके साहित्यको निकालने की अधिक से अधिक कोशिश की जायगी । इन सब कार्योंके लिये सत्यसमाज-ग्रंथमालाके पास जो आर्थिक शक्ति चाहिये वह बिलकुल नहीं है । प्रथम पुष्प ( धर्ममीमांसा प्रथम भाग ) की प्रस्तावना में मैं सूचित कर चुका हूँ कि श्रीमान् सेठ सुगन्धचंद्रजी लुणावत धामनगाँवकी २५०) की और श्रीमान् सेठ राजमल्लजी ललवानी जामनेरकी २५० ) की सहायतासे इस ग्रंथमालाका प्रारम्भ हुआ है । ये रकमें तो खर्च हो चुकीं, थोड़ा बहुत बिक्रीका जो मूल्य आया वह भी खर्च हो चुका। इससे अधिक भी खर्च हुआ है जिसे संस्थाके ऊपर ऋण समझना चाहिये । इसके अतिरिक्त प्रकाशित होनेके लिये जितना साहित्य पड़ा है उसके लिये २०००) रुपयोंकी जरूरत है । ज्यों ज्यों सहायता मिलती जायगी त्यों त्यों आगेके पुष्प तैयार होते जायँगे । इस प्रकारकी जब दस बारह पुस्तकें निकल जायगीं तब, सम्भव है कि, ग्रन्थमाला अपने पैरोंपर खड़ी हो जाय । यह ग्रंथमाला किसी व्यक्तिकी सम्पत्ति नहीं है, लेखन आदिके लिये भी इसे कुछ पारिश्रमिक नहीं देना पड़ता, इसलिये सस्ते में ही इसके साहित्यका प्रचार किया जायगा । फिर भी अगर थोड़ी बहुत इसमें आमदनी हो गई तो वह इसी ग्रंथमालामें लगती जायगी । इसलिये प्रत्येक पाठकका कर्तव्य है कि वह इस ग्रंथमालाको, जिस तरह बने उस तरह, सहायता पहुँचानेका प्रयत्न करे । इस पुस्तक प्रूफ संशोधन आदि प्रकाशन - कार्य में श्रीमान् पं० नाथूरामजी प्रेमी और भाई हेमचंद्रजी मोदीसे बहुत सहायता मिली है और यह कार्य उन्होंने घरके कार्यकी तरह किया है । इसके लिये उन्हें जितना धन्यवाद दिया जय थोड़ा है । दरबारीलाल सत्यभक्त

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