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हुआ 'सत्य-समाज' की स्थापना जो कि सर्व-धर्म-समभाव, सर्व-जाति-समभाव, पूर्ण समाज-सुधारकता और विवेककी नींवपर प्रतिष्ठित है ।
प्रस्तुत लेखमाला भी सत्य-समाजके साहित्यका एक अंग बन रही है । यद्यपि अभी तक इसका नाम 'जैनधर्मका मर्म' था परन्तु इतनी विशालकाय और आलोचनात्मक लेखमालाके लिये 'मर्म' शब्द ठीक नहीं मालूम हुआ इसलिये इसका नाम 'जैन-धर्म-मीमांसा' रख दिया गया। इसके तीन खंड होंगे। उनमेंसे यह पहिला खंड है; ऐसे ऐसे दो खंड और हैं। इस प्रकार इसका कलेवर हजार पृष्ठोंसे अधिकका होगा। ___ इस खंडमें तीन अध्याय हैं । पहिला अध्याय तो प्रायः धर्म-मीमासाके समान ही है। तीसरा अध्याय सम्यग्दर्शनका है जिसमें सम्यग्दर्शनके सभी अगोंको लेकर उसकी सम्प्रदायातीत वास्तविक और मौलिक व्याख्या विस्तारसे की गई है। दसरा अध्याय ऐतिहासिक है। सबसे पहिले इसी अध्यायकी बातोपर जैनसमाजमें क्षोभ फैला था । अब पुस्तकाकारमें जो परिवर्तन किया गया है उससे क्षोभ बढ़नेकी ही सम्भावना है । पहिले तो मैंने म० पार्श्वनाथको जैनधर्मका संस्थापक सिद्ध किया था परन्तु अब मैंने म० महावीरको ही जैन-धर्म-संस्थापक माना है। इस विषयमें मेरी जो युक्तियाँ हैं, वे सब इस पुस्तकमें मिलेंगी। इसके अतिरिक्त विरोधियोंके जो आक्षेप थे, जिनका उत्तर में जैनजगत्में दे चुका हूँ, उनमेंसे खास खास आक्षेपोंका उत्तर मैने इस पुस्तकमें शामिल कर दिया है । साथ ही ऐतिहासिक प्रकरणसे सम्बन्ध रखनेवाले कुछ ऐसे आक्षेपोंका उत्तर भी यहाँ शामिल किया गया है जिनका उत्तर सत्य-संदेशमें अभी तक नहीं दिया गया है।
आगेके भागोंमें ज्ञान और चारित्रकी चर्चा है । इस विषयमें इतना अधिक सुधार किया गया है कि उसे क्रान्ति कह सकते हैं। सर्वज्ञताकी जिस व्याख्याने सम्प्रदायोंमें अहंकार, द्वेष, अन्धश्रद्धा और संकुचितताका राज्य जमा दिया है, विकास और उन्नतिके मार्गमें जिसने सबसे बड़ा अडंगा डाला है, उसकी निस्सारता अनेक युक्तियोंके आधारपर विस्तारसे की गई है। इसके अतिरिक्त ज्ञानके अन्य भेदोंकी भी विस्तृत और सूक्ष्म मीमांसा की गई है । चारित्र कांडमें आचार-शास्त्रके नियमोमें भी बहुत कुछ क्रान्ति की गई है। आचार-शास्त्रके जो नियम ढाई हजार वर्ष पहले म० महावीरने, उस समयकी परिस्थितिको देखते हुए, समाजके सामने रक्खे थे, वे एक तो आज विकृत हो गये हैं दूसेर अगर विकृत न हुए होते तो भी वे आजके लिये उपयोगी नहीं हो सकते थे । देश-काल