Book Title: Jain Dharm Mimansa 01
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ प्रस्तावना चार वर्ष से ऊपरकी बात है एक श्रीमान सज्जनने जैनधर्मके विषयमें मुझसे कुछ प्रश्न पूछे ! मैंने उनका उत्तर साम्प्रदायिक दृष्टिसे न देकर एक स्वतंत्र विचारककी दृष्टिसे दिया। इससे वे बहुत प्रभावित हुए। उनको इसमें कुछ नूतनता, हृदयङ्गमता, सन्तोषप्रदताके दर्शन हुए, इसलिये उन्होंने पूछा कि आप अपने ऐसे सब विचार लिपिबद्ध क्यों नहीं करते ? मैंने कहा- मैं अपने विचारोंपर और मनन करना चाहता हूँ । पाँच वर्ष बाद प्रकाशित करनेका विचार है । 'पाँच वर्ष !' उन्होंने खेद - मिश्रित आश्चर्यके स्वरमें कहा - यह तो बहुत लम्बा समय है । इतना समय आप व्यर्थ न खोइये । अपने विचारोंको आप, निश्चित रूप देकर नही, विचार्यमाण-रूप देकर प्रकाशित कीजिये । इसपर जो विद्वानकी सलाह आवे अथवा विरोध किया जाय उसपर पीछेसे विचार करके आप फिर इसे निश्चित रूप देना । उनकी यह सलाह मुझे पसन्द आई । कुछ महीने बाद ' जैन धर्मका मर्म ' शीर्षक लेख-माला सत्य-सन्देश में - जो कि उस समय जैनजगत् के नामसे निकलता था-लिखना शुरू किया। तीसरा लेखांक निकलते ही विरोधका डिंडिम बजना शुरू हो गया । बड़े बड़े आसन प्रकम्पित हुए । पुराणपंथियोंकी तो बात ही क्या किन्तु जो लोग, सुधारक कहलाते थे, उदारताका दम भरते थे उनको भी वह लेखमाला सहन न हुई । बहिष्कारकी नीतिका विरोध करनेवाले भी बहिष्कारपर उतारू हो गये । परन्तु ऐसे विरोधोंकी मैंने कभी पर्वाह की नहीं, करता नहीं, भविष्य में करूँगा नहीं । हाँ, जिनने युक्तियोंके नामपर कुछ लिखा उनका उत्तर मैंने अवश्य दिया । इसके लिये ' विरोधी मित्रोंसे ' शीर्षक लेखमाला भी चालू की। जो अब भी लिखी जा रही है और जिसमें विरोधी आक्षेपोंका समाधान किया जाता है । I ' जैनधर्मका मर्म ' जितना मैं समझता था उससे कहीं लम्बा हुआ । वह साढ़े तीन वर्ष तक लिखा गया । उस समय भी वह पूर्ण हुआ नहीं, पूर्ण कर दिया गया । जिस समय लेखमाला लिखना शुरू किया था उस समय भी मेरा हृदय निःपक्ष था, परन्तु लेखमाला के लिये विचार - सागर में जो डुबकियाँ लगाई. उनसे रहा-सहा मैल भी धुल गया । अब नामका भी पक्ष उड़ गया । हिन्दू, मुसलमान, जैन, बौद्ध, ईसाई सभी ' अपने मालूम होने लगे । इसका फल

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 346