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महावीर के मुखारविंद से व्यक्त हुआ है. "जिस धन तै आदमी का जी आच्छे काम करण मैं लाग्गै ओ धन पुन्न का अर जिस तै जी मैं कोए आच्छा काम करण का ख्याल ना आवै
ओ धन पाप का हो सै ।" यहां पाप और पुण्य के धन के बीच अंतर कितनी सादगी से बता दिया गया है! अनुभव से आलोकित हो उठने वाले विचार के रूप में यह पूरी कहानी उभरी है। इसी प्रकार 'करणी अर भरणी' शीर्षक कहानी में भी घटना- संकुलता के बीचों-बीच चलने वाले संवादों में से एक विचार आया है-“या राज-पाट की भूख घणी माड़ी हो सै ।" यहां 'माड़ी' शब्द की अर्थ-व्यंजकता देखते ही बनती है। हरियाणवी का ठेठ शब्द है यह, जो तृष्णा की हीनता से लेकर लोभी व्यक्ति के संताप और उसकी नीचता तक अनेक अर्थ व्यक्त कर रहा है। उपरोक्त सभी तथा ऐसे ही अन्य विचार मनुष्यता की रक्षा एवम् वृद्धि के लिए कितने मूल्यवान् हैं, यह अलग से बताने की आवश्यकता नहीं । आवश्यकता इस बात की है कि विभिन्न पात्रों के जीवन-संदर्भो से कहानी में उगते इन विचारों को आचरण से सार्थक किया जाए। आचरण भावात्मक सक्रियता के बीज से उगता है और ऐसे बीज आते हैं इन कहानियों के प्रभाव से । विचार, अनुभव और संवेदनायें इन रचनाओं में परस्पर इस सीमा तक संगुम्फित हैं कि उन्हें एक-दूसरे से अलग करना उनके साथ अन्याय करने जैसा लगता है। यह इनके कथानक का सुगठित विन्यास भी है और समर्थ मूल्यों का 'कहानी' के रूप में समर्थ संवहन भी।
इन कहानियों में कथा-रचना की एकाधिक पद्धतियों के ऊर्जस्वी प्रयोग से वैविध्य की पर्याप्त सृष्टि प्राप्त होती है। वर्णन कथा-रचना की सर्वाधिक उपयोग की गई पद्धति है । कारण यह कि वर्णन से कथा-रस की सृष्टि भी होती है और कहानी इस से आगे भी बढ़ती है।
आवश्यकतानुसार कभी तेज गति से तो कभी मंद गति से । वर्णन से एक ही बात को रोचक ढंग से विस्तार भी दिया जा सकता है और विस्तृत क्रिया-व्यापार को संक्षिप्त भी किया जा सकता है। जो बातें किसी भी अन्य पद्धति व माध्यम से व्यक्त नहीं की जा सकतीं उनके लिए वर्णन एक सक्षम पद्धति है। प्रस्तुत पुस्तक में इस पद्धति का समर्थ प्रयोग स्थान-स्थान पर किया गया है। 'द्यालु राज्जा' शीर्षक कहानी के इस उद्धरण में वर्णन की कला द्रष्टव्य है-"जिब्बै-ए राज्जा नैं सेवकां के हाथ एक तराज्जू मंगाया । उन् नैं एक पालड़े मैं कबूत्तर बिठाया अर दूसरे पालड़े मैं चक्कू ते आपणी देही का मांस काट-काट के काढण अर धरण लाग्गे । पर यो के? राज्जा नैं आपणे सरीर का आद्धा मांस काढ के पालड़े पै धर दिया । फेर बी कबूत्तर आला पालड़ा-ए भारी रया । राज्जा मेघरथ की देही जाणुं लहू मैं न्हाई होई बेट्ठी थी । ताक्कत घटती जा थी । फेर भी उन नै धीरज ना छोड्या । आक्खर में राज्जा हिम्मत करकै पालड़े कान्नीं गए अर वे आपणे-आप पालड़े मैं जा कै बैठगे । भित्तर-ए-भित्तर उन् मैं संतोस था अक् उनका सरीर एक कबूत्तर की जान बचाण में काम आण लाग रया से ।" इस वर्णन से धारा प्रवाह कथा-रस की सृष्टि हुई है। कहानी तेजी से आगे बढ़ी है । विस्तृत
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