Book Title: Haryanvi Jain Kathayen
Author(s): Subhadramuni
Publisher: Mayaram Sambodhi Prakashan

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Page 98
________________ दया के समुन्दर ___ एक बर की बात सै । अचार्य धरमघोस अपणे चेल्लां के साथ घूमदेहोए चम्पानगरी पहोंचे। उनका एक तपस्सी चेल्ला था- धरमरूची अणगार । दुपहरी का टैम था। अचार्य जी ते अग्या ले के धरमरूची भिक्सा लेण खात्तर नगरी मैं गए। चम्पा नगरी में एक लुगाई रह्या करती जिसका नां था- नागसिरी । रोटियां गेल्यां उसनें घीया का साग बणा राख्या था । चाख के देख्या तै बेरा पाट्या अक घीया कडुवी सै। उसनै सोची अक यो साग तै कित्ते दूर-ए बाहर फैंकणा ठीक रहेगा। जै घर आला नै कड़वे साग का बेरा पाट्य ग्या तै ओं मन्नै फूहड़ बतावेंगे। न्यूं सोच के उसने ओ साग ल्हको के धर दिया । फेर उसने दूसरा साग बणाया। घर के लोग्गां तै रोट्टी खुआ दी। आप भी रोट्टी खा के अराम करण लाग्गी । नागसिरी लोटी- ए थी अक भिक्सा लेण खात्तर धरमरूची घर मैं आए । उसनैं उनकी पूरी इज्जत करी अर घर मैं भित्तरां नैं बला लिए। नागसिरी के घर में रोट्टी-पाणी तै सब निमट लिया था । उसनैं सोच्ची अक कडुओ घीया का साग सै। इसतै दे यूं । यो चाक्खैगा तै कडुआ लाग्गैया । फेर यो सारे साग नैं बगा देगा। मन्– साग बगाण खात्तर इंग्दै-उंग्यै कोनी जाणा पड़े। जिब्बै-ए उसनैं घीया का साग उनके पातरे (बास्सण) मैं घाल दिया। साग घणा-ए था । धरमरूची नैं सोच्ची अक यो तै भतेरा सै । किसे हरियाणवी जैन कथायें/76

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