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मुताबक भी काम हो ज्यागा । " न्यूं सोच के उन नैं 'सिद्धे सरणं पवज्जामि' कही अर खूब राज्जी हो कै ओ साग खा लीया । अर संतारा ( मरण बरत) ले लिया। जहर का जिब्बै-ए असर होया । उनका सरीर लीला पड़ गया। माड़ी वार पाछै मुनी जी ये जां अर वो ज्जां! वे मर कै सुरग में पैदा होए ।
सांझ हो गी । अचार्य धरमघोस नैं देख्या अक चेल्ला ना आया तै चिन्ता - सी हो गी । ओर चेल्लां तै कही अक धरमरूचि नैं टोहो अर उसका बेरा काडूढो । एक चेल्ला उन नैं टोहूण चाल पडूया ।
ओ चेल्ला जंगल मैं पहोंच्या । देख्या तै हैरान रह ग्या, “रे! यो तै तपस्सी धरमरूची अणगार का मया होया सरीर सै !”
दुखी जी तै चेल्ला गरू जी धोरै उलटा आया । उसती गरू तै बताईअक अणगार का सुरगवास हो गया। अचार्य जी जिब्बै सिमझ ग्ये । बूज्झण पै वे बोले- अक धरमरूची तै किसे नैं जहरीला साग दे दीया था । मनैं उसतै कही थी- अक इस साग नैं ईसी जंगा छोड्या जित कोए जी - जन्तू इस खा कै ना मरै । न्यूं लाग्गै सै अक सारे जी-जन्तुओं पै दया करके उसनें सारा साग आपै ए खा लीया ।
सारे साधुआं नैं या बात सुणी । सारे तपस्सी मुनी जी तै धन्न-धन्न कहण लाग्गे ।
साच्चें-ए धरमरूची अणगार दया के समुन्दर थे ।
चम्पानगरी के लोग्गां नैं जिब इस बात का बेरा लाग्या तै सब नै मन - ए | मन में धरमरूची अणगार तै बन्दना कर्थी अर उनकी जै-जैकार बोली ।
दया के समुन्दर / 79