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मूं तै जो भी बाणी लिकड़ ज्यादी, वा न्यूं-ए पूरी बणै थी अर पूरी हो थी । उनकी दया-दिरस्टी कदे खाली ना जा थी। जिसपै उनकी निंग्हा पड़ ज्यांदी हो-ए न्हाल हो जांदा। चारू कान्नीं उनके नां का रूक्का था । हरयाण की परजा उनती भगवान मानै थी। उनकी दया-दिरस्टी अर वचन सिद्धी की एक-दो बात आड़े बताई जा रही सें
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एक बर योगिराज जी का चमास्सा हरियाणा के पुरखास गाम मैं था । या सम्मत् १६७४ की बात सै। उन दिनां सारे कै कात्तक की बेमारी फैल रही थी । दुनिया उस बेमारी मैं गलग होण लाग रही थी। रोहा-राट्र माच रूहूया था चोगरदे कै । डागदरां धोरै कोए इलाज ना था । पुरखास के लोग भी उस बेमारी के कब्जे में थे। योगिराज जी जात-पांत का भेद-भाव करे बिना गाम के सारे घरां मैं होज नेम तै मंगली सुणान जाया करते । भगतां नैं खूब सिमझाए अक या छूत की बेमारी सै । आप न्यूं मंगली सुणाते मत न्यां हांडूया करो पर योगिराज जी कोन्यां मान्ने । वे तै एक-ए बात मान्नैं थे अक साधू तै ओरां खात्तर जीया करै । वे मंगली सुणाते पूरे गाम मैं हांडते रहे। एक दन तड़कैं-ए तड़क जंगल हो कै थानक ताईं आंदे आंदे वे भी बेमार हो गे । सिरी अमीलाल जी म्हाराज उन खातर दूध लेण लिकड़े । करम कर के दूध तै कोन्यां मिल्या पर ल्हासी मिलगी । थानक मैं वा ल्हासी धर के फेर गए । योगिराज जी नैं तिस लाग्गी ते जी भर के छाछ पी ली। सिरी अमीलाल जी म्हाराज गरम दूध ले कै आए तै देख्या अक योगिराज जी कत्ती ठीक हो लिए सैं। दूध की बूज्झी तै वे बोल्ले - मन्नै तै छाछ पी ली अर मैं ठीक हो गया। दूध किसे ओर साधू तै दे दूयो ।
साच्चे गरू योगिराज सिरी रामजीलाल जी म्हाराज /117