Book Title: Haryanvi Jain Kathayen
Author(s): Subhadramuni
Publisher: Mayaram Sambodhi Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरियाणवी जैन कथाये -स Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00.00 H.nae00000 हरियाणवी जैन कथाये -अगर मुनि 11 SEMENUEW HSSAR AMELAM SEME Sham WEmail PREM EMENT VIEl NEW शल AMAVIOL Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुत/ज्ञान-सेवा श्रीमान् ला. मनोहरलाल ईश्वर प्रकाश जैन एम. डी. - 14, पीतमपुरा दिल्ली-110034 पुस्तक : हरियाणवी जैन कथायें (हरियाणवी भाषा में प्रथम बार प्रस्तुत जैनकथायें) लेखक: जैन धर्म प्रभावक श्री सुभद्र मुनि जी महाराज सम्पादन : डा० विनय 'विश्वास' (दिल्ली) चित्रांकन : अनुज के०भटनागर अवतरण : माघ शुक्ल-6, (संयम-दिवस) 24.जनवरी 1996 प्रकाशन : मुनि मायाराम सम्बोधि प्रकाशन के.डी. ब्लाक, पीतम पुरा, दिल्ली-110034 मूल्य : चालीस रुपये मुद्रक : वर्धमान कम्प्यूटर्स एण्ड प्रिंटर्स (7415287) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D 0 D 0 151 समर्पण तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर को ! जिनके धर्म संघ का मैं एक अदना सा सेवक हूँ ! देवों और मनुष्यों द्वारा अर्चित गुरुदेव श्री मायाराम जी महाराज को ! जिन्होंने हरियाणा प्रदेश में जिन धर्म को गांव-गांव में पहुँचाया था । मेरी श्रद्धा के आधार, जिनकी अनन्त कृपा से मैंने धर्म-संयम-सन्यास - विद्या एवं जीवन-पथ को पाया, उन गुरुमह परम श्रद्धेय गुरुदेव योगिराज श्री रामजीलाल जी महाराज को ! जन-जन के आराध्य, जैन-शासन के सूर्य, धर्म संघ - शास्ता, मेरे परम आराध्य गुरुदेव मुनि श्री रामकृष्ण जी महाराज को! जिनके वरदहस्त की सुमंगल छाया में, मैं साधना-पथ पर चल रहा हूँ ! अनन्त आस्था के साथ सादर समर्पित ! - सुभद्र मुनि Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा स्वकथ्य भूमिका 1. परभू के दरसन 2. आनंद का खुज्जाना क्रम 3. दयाल्लु राज्जा 4. अनाथ कूण से 5. छिमा की मूरत 6. रोहिणिया चोर 7. सुथराई का घमण्ड 8. साधू का सतसंग अनुक्रम 9. भगवान् का ध्यान 10. एक दन मैं मुकती 11. मामन सेट के बलद 12. करणी अर भरणी 13. मेघ कुवार मुनी 14. दया के समुन्दर 15. सुभ भौना 16. जो मौत पै भी ना डिग्या 17. मन्तर का चिमत्कार 18. भगवान महावीर अर चण्डकोसिया सांप 19. साचा भगत कामदेव सरावग 20. जो करै सै ओए भरै सै 21. अक्कल आपणी आपणी 22. साच्चे गरु योगिराज सिरी रामजीलाल जी म्हाराज परिशिष्ट पृष्ठ (i) (ix) 1 7 14 19 23 29 37 43 49 53 59 64 69 76 80 85 89 93 100 105 109 113 121 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वकथ्य कथा-कहानी मानव-जीवन की प्रतिच्छवि अथवा प्रतिबिम्ब है। यह प्रतिबिम्ब यदि जीवन के प्रणेता-सूत्रधार अरिहन्त भगवन्तों द्वारा बिम्बित/चित्रित हो तो उसे देख-समझ कर मानव अपना जीवन सफल-सार्थक कर सकता है। इसमें किंचित् भी संदेह नहीं हैं। तीर्थंकरों/ महापुरुषों द्वारा कथित कथाएँ हमें न केवल जीवन रस ही देती है, अपितु जीवन में सुधारस घोल देती हैं। ये कथायें जीवन-संदेश तथा जीने की कला का महान् बोध भी देती हैं। जीवन-दर्शन को जितनी सरलता से कथा-कहानियों के माध्यम से आत्मसात् किया जा सकता है, उतनी सरलता से उपदेशों या अन्य विद्याओं के माध्यम से नहीं। यही कारण है कि भगवान महावीर ने अपनी धर्म-देशना में कथा-कहानी और दृष्टान्तों को अपने संदेश/उपदेश का सफल माध्यम या साधन बनाया। इससे यही सिद्ध होता है कि कहानी की शक्ति-क्षमता असंदिग्ध है। विषाद से भरे रीते-सूने दिनों में भी कहानी का पाथेय बड़ी राहत देता है। वनवास के सूने जीवन में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम, लक्ष्मण और सीता को कथा-कहानियां सुनाकर धर्मपथ पर दृढ़ रहने का संबल देते थे : कहहिं पुरातन कथा कहानी। सुनहिं लखन सिय अति सुखु मानी।। यह सब होने पर भी कहानी की सहज ग्राह्यता, स्व में रचा-पचा लेने की सहजता, अपनी-स्वकीय भाषा-बोली में अधिक संभव है। यह भी कह सकते हैं कि कथा यदि स्वर्ण है तो स्वभाषा या बोली उस स्वर्ण में बसी सुगन्ध है । भगवान महावीर द्वारा कथित कहानियों के प्रसार-प्रचार का मुख्य कारण यह भी था कि उनका प्रस्तुतीकरण उस युग की जन-भाषा 'प्राकृत' में हुआ था। जैन कथा-साहित्य का प्रणयन राष्ट्र-भाषा हिन्दी में प्रचुर परिमाण में हुआ तथा हो रहा हैं। इससे जैन कथा-साहित्य प्रभूत लोक प्रिय बना है, फिर भी स्व अंचल की भाषा में कथित कहानी की अपनी विशिष्टता और भीतर की पहचान होती है। इसीलिए गुजराती, कन्नड़, राजस्थानी आदि भाषाओं के जैन लेखकों/संतों ने अपनी भाषा-बोली में जैन-कथा-साहित्य का Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृजन किया। यह सब सोच कर मैंने भी अपनी मातृभाषा 'हरियाणवी' में जैन कथाओं की रचना हरियाणवी भाषा भाषी पाठकों के लिए की हैं । यह भाषा भारत के जिस क्षेत्र/प्रदेश में बोली जाती है, उस प्रदेश के गौरव और वहाँ की संस्कृति में भीगे लोगों के बारे में कुछ न कहना अनुचित होगा। अतः कुछ शब्द हरियाणा क्षेत्र उसकी गरिमा के सम्बन्ध में कहना चाहूँगा । हरियाणा एक ऐसा प्रान्त है, जहाँ हरि-श्रीकृष्ण ने पार्थ को गीता का उपदेश दिया था । वेदव्यास ने इस भूभाग को 'धर्मक्षेत्र' कहा है। इस प्रदेश की एक महती विशेषता यह है जो उल्लेखनीय है कि यहाँ वैदिक-जैन और बौद्ध भारत की तीनों संस्कृतियों का स्मरणीय संगम हुआ है । वैदिक धर्म के गीतोद्भव के साथ यहाँ बौद्धों के विहारमठ भी बनें । पुरातत्त्व विदों के अनुसार वर्तमान का अबोहर नगर पूर्व में बौद्धगृही नगरी के नाम से जाना जाता था । यहाँ के उत्खनन-खुदाई में बुद्ध और महावीर की बहुमूल्य प्रतिमाएं मिली हैं। बौद्ध धर्म के सामान्तर जैन धर्म भी हरियाणा में प्रभूत फला-फूला है। कहा जाता है कि भगवान के पावन चरण भी यहाँ की धरती पर पड़े थे। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि हरियाणा प्रदेश का प्रसिद्ध नगर हिसार ही जैन नगर इषुकार था । हरियाणा कृषि एवं ऋषि की परम्परा से धनी और संपन्न प्रदेश है। यहाँ के लोग भोले, सरल, निष्कपट, निश्छल और विशुद्ध शाकाहारी हैं। दूध-दही की यहाँ की प्रचुरता इस लोकोक्ति से स्पष्ट हो जाती है: देसां में देस हरियाणा । जहाँ दूध-दही का खाणा ।। यहाँ के लोग स्वस्थ, बलवान, हृष्ट-पुष्ट और सादा जीवन जीने वाले होते हैं । स्त्री-पुरुष की बराबरी अथवा कंधे-से-कंधा-मिलाकर चलने की गति हरियाणा में देखी जा सकती है। पुरुषों की तरह स्त्रियाँ भी परिश्रमी और पुरुषों के साथ खेती में काम करती हैं। ऐसी कृष्ण-बुद्ध और महावीरमयी पुण्य धरा पर मेरा जन्म हुआ। यद्यपि संत-श्रमण का अपना कोई प्रान्त नहीं होता। सन्त सबका होता है और सब उसके अपने होते हैं। फिर भी परिचय की प्रासंगिकता के कारण यह बताना पड़ा है कि मेरी मातृभाषा-स्वकीय-अपनी बोली हरियाणवी है। परिचय के प्रसंग में यह भी उल्लेखनीय है कि हरियाणवी हिन्दी की ही उपभाषा है । वैसे भी हरियाणा हिन्दी भाषी क्षेत्र है । भाषा-शास्त्रियों ने हिन्दी का ही एक प्रकार हरियाणवी हिन्दी को कहा है। इस भाषा में प्यार का इतना खुलापन है कि 'आप' और 'तुम' जैसे शब्द दूरी के आवरण में ढके आडम्बरी माने जाते हैं । अतः यहाँ छोटे-बड़े-पूज्य सब के साथ तू-तेरा Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही सहजता/निश्छलता के साथ बोला और सुना जाता है। कितनी सरलता है, यहाँ के जीवन मे! परम आत्मीयता, खुलेपन और सहजता की यह हरियाणवी भाषा-संस्कृति है।नगरों में यह आडम्बरी सभ्यता बन जाती है और तब भाषा आडम्बर का आवरण ओढ कर तू से 'तुम' और तुम से 'आप' आत्मीयता के सहज स्वरूप को चारों ओर से ढक लेती है। 'आप' की नकली बनावटी चमकीली चादर से ढके लोग 'तू' को असभ्यता और गँवारपन कहकर हृदय की धवलता/निर्मलता का मखौल उड़ाते हैं। मखौल उड़ाते समय ऐसे लोग यह भूल जाते हैं कि भक्त जब विह्वल होकर अपने आराध्य भगवान को 'तू' कहकर पुकारता है, तब क्या वह सचमुच गवार या असभ्य बन जाता है या भगवान के साथ सहज आत्मीयता से जुड़ा होता है ? भक्त कहता है-“भगवान तू कहाँ है? तू मेरी पुकार क्यों नहीं सुनता? मेरी बारी में तू कहा चला गया? मेरे लिए तू कहाँ सो गया है? यद्यपि प्रभु इन सब भावों से (आना-जाना) मुक्त है परन्तु भक्त की ये पुकार है। तुलसी ने तो अपने राम से स्पष्ट कहा है : तोहि मोहि नाते अनेक, मानिए जो भावै। ही प्रसिद्ध पातकी, तू पाप पुंज हारी । तू दानि हौं भिखारी।। अर्थात् भगवन् ! तेरे-मेरे अनेक सम्बन्ध हैं। उनमें तुझे जो अच्छा लगे, उसे ही मान । जैसे मैं तो प्रसिद्ध पापी हूँ ओर तू पाप पुंजों को नष्ट करने वाला (हरि) हैं। तू अगर दाता-दानी है तो मैं तेरे द्वार पर खड़ा भिक्षुक-याचक हूँ। 'आप' के इस आडम्बर की आज तो स्थिति यह हो चली है कि माता-पिता भूल से अपने बच्चे को 'तू-या तुम' का वात्सल्य भरा, अपने बड़े होने का प्यार नहीं दे पाते। बच्चा माता-पिता के लाड़-दुलार का भूखा रहता है। जो लाड़ पिता या माता के 'तू' में ही मिल सकता है, वही लाड़-दुलार 'आप' में कैसे सम्भव है? कृष्ण और यशोदा की बातचीत में 'तू तेरे' के सम्बोधन में माँ की ममता और पुत्र की आत्मीयता निम्न पंक्तियों में देखते ही बनती है। कृष्ण माता यशोदासे कहते हैं- माँ तू तो बहुत भोली है, जो इन ग्वाल-बालों के बहकायें में आकर इनका विश्वास कर लेती हैं, यथा . तू जननी मन की अति भोरी, इनके कहे पतियायो ! इसी तरह यशोदा कृष्ण से कहती हैं: सूर-स्याम मोहि गोधन की सौं हौं माता तू पूत । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात्, लाला, मैं गोधन की सौगंध खाकर कहती हूँ मैं ही तेरी माता हूँ ओर तू मेरा बेटा है। लेकिन आज की स्थिति यह है कि माता के मुँह से भूल से भी शिशु के लिए 'तू' निकल गया तो मानो बड़ा भारी अपराध हो गया। बच्चे को पालने में लिटाकर उसके हाथ में खिलौना देकर आज की माता उससे कहती है-“आप इस खिलौने से खेलिए, रोना नहीं, मैं अभी आ रही हूँ" फिर लौटकर कहती है- “अरे-अरे ! आप तो रोने लगे हो? आप जल्दी बड़े हो जाइए । तब आप बाहर जाकर खेला करेगें, रोना छोड़ देंगे।" इसी संदर्भ में एक विनोद है। जन्म लेने के बाद पिता अपने नवजात शिशु से कहता है- आपने जन्म ले लिया, आप पैदा हो गए? यहाँ लगता है जैसा शिशु नहीं 'आप' का जन्म हुआ है, कौन जानता है कि इस आडम्बर की सीमा कहाँ रुकेंगी? सम्मान सूचक 'आप' सम्बोधन का में किंचित् भी विरोधी नहीं हूँ। मेरा अभिप्राय यही है कि 'तू' और 'आप' का स्थान | मत बदलिए। जिस तरह 'आप' वालों के लिए 'तू' अनुचित है, उसी तरह से जहाँ 'तू' के प्यार दुलार, लाड़ और वात्सल्य की जरूरत है, वहाँ 'आप का सम्मान उसी तरह बेमेल लगेगा, जैसे खीर में नमक की मिलावट कर दी गई हो । मेरा अभिप्राय मात्र इतना ही है कि जो सज्जन हरियाणवी के सहज-सरल खुलेपन, आत्मीयता और प्रेम से परिपूर्ण 'तू' का मखौल उड़ाकर जन्म लेते हुए शिशु को भी आप कहकर यह संस्कार डालना चाहते हैं कि हृदय की सहजता को ढका ही रहना चाहिए। यह तो विडम्बना ही कही जाएगी। जैसा कि मैंने पूर्व में कहा, मातृभाषा हरियाणवी होने के कारण मैंने प्रस्तुत कहानियों का सृजन उस भाषा में किया है। भाषा और जाति के प्रति भगवान महावीर की उदार दृष्टि भी मेरी प्रेरणा रही है। राष्ट्रभाषा हिन्दी में विविध विषयों पर मेरी तीस पुस्तकें पाठकों के हाथों में पहुँच चुकी हैं, पर हरियाणवी भाषा में रचित और प्रकाशित यह मेरी प्रथम कृति है। इसके साथ मैंने 'उत्तराध्ययन-सूत्र' को भी हरियाणवी भाषा में प्रस्तुत किया है। अब कुछ जानकारी प्रस्तुत कृति के विषय में भी। इस पुस्तक में संकलित/संयोजित कहानियाँ जैन कथा-साहित्य के विपुल भण्डार से चुनी गई है। इनमें सहज सरलता/रोचकता के साथ-साथ जीवन-संदेश, जीवन-रस और मानव को वस्तुतः मानव बनाने की प्रेरणा छिपी है। सभी कहानियों में जीवन के विविध पहलुओं को छुआ गया है। इन कथाओं में कुछ (iv) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर की स्वमुखी कथाएं हैं, कुछ जैनाचार्यों द्वारा कथित कथायें हैं । यह विश्वास भी आपको देना चाहूँ कि इनकी उपादेयता/उपयोगिता असंदिग्ध है । कथाओं की हरियाणवी प्रस्तुति कैसी है, इसका निर्णय तो हरियाणवी भाषा के विद्वान् ही करेंगे। मेरा उद्देश्य तो इतना ही था की हरियाणवी क्षेत्र का आम आदमी भी अपनेपन की अनुभूति के साथ इसे पढ़े और लाभ उठायें। फिर भी पुस्तक की भाषा के हरियाणवी स्वरूप पर कुछ कहना प्रासंगिक होगा। हरियाणवी के भाषाविद् और रचनाकारों को भाषा सम्बन्धी सुझाव देने और भाषागत दोषों को इंगित करने में कदाचित कुछ सुविधा हो, इसी विचार से पुस्तक की भाषा के सम्बन्ध में कुछ कह रहा हूँ । ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी की ही तरह ही हरियाणवी भी बोली और भाषा ( डायलेक्ट एण्ड लैग्वेज) दोनों है । जैसा कि पूर्व में कहा है, यह हिन्दी की उपभाषा है, पूर्णतः हिन्दी से अलग भाषा नहीं है। कोई भी भाषा चार अंगों के अलगाव से अलग और भिन्न होती है । वे चार अंग हैं- सर्वनाम, अव्यय, क्रिया और विभक्तियाँ। जिस भाषा की ये चारों चीजें भिन्न नहीं होंगी, उसकी लिपि बदलने पर भी भाषा भिन्न नहीं होती। यही कारण है कि भिन्न लिपि होने पर भी विद्वान् लोग उर्दू को हिन्दी ही मानते हैं 1, क्योंकि इसके सर्वनाम, अव्यय, क्रिया और विभक्तियाँ वहीं हैं, जो हिन्दी की हैं। जैसे, मैं जाता हूँ, वाक्य का उर्दू में अनुवाद नहीं हो सकता, लेकिन अंग्रेजी और संस्कृत में इसके अनुवाद क्रमशः 'आई गो' और 'अहं गच्छामि' हो जाएंगे । अतः अंग्रेजी और संस्कृत का भाषा-अस्तित्व हिन्दी से अलग है, उर्दू का नहीं । यह बात अलग है कि जिस हिन्दी को हम उर्दू कहते हैं, उसमें कुछ भिन्नता इसलिए भासती है कि उसमें अरबी-फारसी के परकीय शब्दों की बहुलता / अधिकता है। भाषा के इसी अलगाव की दृष्टि से हरियाणवी पर भी विचार करें। हिन्दी का उत्तम पुरुष सर्वनाम 'मैं' है । ब्रजभाषा में यह सर्वनाम यद्यपि 'हू' या 'हौं' है, पर 'मैं' का भी प्रयोग होता है, जैसे- 'हूँ तोइ बताऊँ' और 'मैं तोइ बताऊँ'- दोनों प्रयोग हैं। लेकिन विभक्तियाँ बदली हैं- तुझे या तुझको की जगह तोइ का प्रयोग हुआ है। यहाँ यह भी दृष्टव्य है कि 'तोइ' बोली गत प्रयोग है, साहित्यिक लेखन रचना में भाषागत प्रयोग 'तोहि' होगा, जैसा कि विनयपत्रिका में तुलसी ने किया है- मोहि तोहि नाते अनेक मानिए जो भावै । इसी तरह सूर ने 'हौं-मैं' दोनों सर्वनामों का प्रयोग किया है, यथा प्रभु हौं सब पतितन को टीको । और पतित सब द्यौस चारि के हौं जन्मान्तर ही कौ।। (v) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोपाल, महामोह को पहरि चोलना कंठ विषय की माल । तथा- अब मैं नाच्यो बहुत -सूर तुलसी ने भी "हौं प्रसिद्ध पातकी तू पाप पुंज हारी” प्रयोग लिखा है । हिन्दी के 'जाता है' को हरियाणवी में 'जावै सै' कहेंगे । यहाँ 'है' क्रिया का परिवर्तन 'सै' में हुआ है, पर जाता का जावै में रूपान्तरण भर हुआ है। दोनों भाषाओं की क्रियाओं में अलगाव और समानता दोनों ही हैं। विभक्ति परिवर्तन पर विचार करें तो भिन्नता है । वह यह कि 'घर को हरियाणवी में 'घरां' कहा जाएगा इसी तरह अव्यय शब्दों में भी भेद है- अंग्रेजी के 'हीयर' संस्कृत के 'यत्र' और हिन्दी के 'यहाँ' अव्यय की तरह हरियाणवी का अव्यय 'आड़े' है । निष्कर्ष यह कि हिन्दी के निकट और उसकी उपभाषा होते हुए भी हरियाणवी का अपना भाषा-अस्तित्व भी है । हरियाणवी का क्षेत्र यद्यपि सीमित है, फिर भी यहाँ थोड़े-थोड़े अन्तर से उच्चारण और शब्दगत रूपों में भिन्नता है जो उच्चारण रोहतक के आस-पास है, वहीं शब्द जींद और हिसार के आस-पास नहीं बोले जाते। मेरे सामने भी समस्या थी कि किस एक रूप को अपनाने से भाषा का मानक और टकसाली स्वरूप स्थिर होगा। कहीं सेठ बोला जाता है तो कहीं 'सेट' । इसी तरह टेम, टैम, सुब, सुभ, शुभ और बी, भी के शब्द भेद तथा उच्चारण भेद ने भी मुझे दुविधा में डाल दिया। इसी संदर्भ में भाषाविज्ञान के मुख-सुख और प्रयत्न लाघव ( शोर्टकट) सिद्धान्तों ने इस समस्या का हल करने में मुझे बहुत मदद दी । भाषा-विज्ञान का प्रभाव कभी बोली पर पड़ता है तो लिखित भाषा पर नहीं पड़ता और कभी दोनों पर पड़ता है। इन दोनों का प्रभाव हिन्दी पर ही देखें। दीनदयालु को दीनदयाल ही लिखा और बोला जाता है- दीनदयाल विरद संभारी। इसी तरह चंद्रवंशीय, रघुवंशीय और यदुवंशीय को क्रमशः चन्द्रवंशी, रघुवंशी और यदुवंशी बोलने-लिखने की परिपाटी बन गई है या एक मानक स्थापित हो गया है । मुखसुख और प्रयत्नलाघव का ऐसा ही प्रभाव बोली पर तो हुआ है, पर लिखित भाषा में उसको स्थापित नहीं किया गया। कुछ उदाहरण इस संदर्भ में भी । नथ और रथ में 'थ' ही बोला और लिखा जाता है, क्योंकि स्पष्ट श्रुत है । लेकिन कहीं-कहीं देखने में आता है, हाथी का 'थ' बोलने में लुप्त हो जाता है। छोटे-बड़े चिल्लाते हैं-हाती आया, हाती आया । (vi) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर लिखने में हाथी ही स्थापित है । इसी तरह चलते-चलते और गलती को चलते-चलते और गल्ती बोलते हैं । हरियाणवी बोली अधिक जाती है, उसका गद्य साहित्य बहुत कम है । इसीलिए मैंने कुछ शब्दों के बोली गत उच्चारणों को हटा कर उनका भाषायी रूप स्थिर करने का प्रयास किया है। यही प्रक्रिया मैंने उन शब्दों में भी अपनाई है, जिनके दो रूप प्रचलित हैं । ब्रज भाषा के बोलने वाले 'तोइ' बोलते हैं, पर लिखित साहित्यिक भाषा में 'तोहि' लिखा जाता है, इसी तरह बोला हात जाता है, पर लिखा हाथ जाता है । यह सब ऊपर बताया जा चुका है । इसी सिद्धान्त को दृष्टि में रखकर मैंने आंख्य को आंख, द्यन को दन, शांति, स्यांति को सांति, टेम को टैम और बी को भी, च्यार को चार, उन्नै को उसने के रूप में अपनाया है । स्यांति में मैंने सांति को ही लिया है। ब्रजी, अवधी में भी श का बहिष्कार हैं उसके स्थान पर 'स' का प्रयोग है । हरियाणवी में भी श का प्रयोग मैंने मानक न समझकर शुभ को सुभ ही लिखा है । दो रूपों में मैंने जो एक रूप अपनाया है, उसका कारण यह भी है कि एक तो दूसरे प्रदेशों के लोगों को हरियाणवी समझने में अधिक सुविधा होगी और जो लिख-पढ़कर हरियाणवी के निकट आना चाहते हैं, उनको यह एक रूपता समझने में सुगमता देगी। टेम-टैम में देखें तो शुद्धत्व की दृष्टि से भी टैम को वरीयता दी जाएगी, क्योंकि मूल शब्द टाइम से टैम बनेगा, टेम नहींः आइ =ऐ । ब्रजी में भी टैम ही बोला जाता है- का टैम है गयौ ? इसी तरह मैंने कूकूकर, क्यूकर में क्यूकर रूप को ही अपनाया है, क्योंकि यह उच्चारण और भाषा दोनों की शुद्धता का द्योतक है। इस तरह दो तरह से उच्चारित शब्दों की समस्या को हल किया गया। जैसा कि मैंने पहले भी कहा है, हरियाणवी मेरी मातृभाषा अवश्य है, पर हरियाणवी के लेखक के रूप में मेरा यह पहला प्रयास है । यह प्रयास सफलता के कितने निकट है और इसे कितनी दूरी तय करनी है, इसका निर्धारण तो भाषाविद् और भाषाशास्त्री ही करेंगे। यह स्वाभाविक है कि मुझे उनके / आपके निर्णय/ निर्धारण की प्रतीक्षा रहेगी। इसके साथ ही एक बात और कह दूँ कि मेरे दादा गुरु पूज्य श्री मुनि मायारामजी महाराज ने हरियाणवी भाषा में जैन गीत रचे थे । मेरा यह सोचना अन्यथा न होगा- श्रद्धेय गुरुवर्य ने हरियाणवी भाषा में जैन साहित्य रचने का सर्वप्रथम जो उपक्रम किया था, जिन बीजों का वपन जो उन्होंने किया था यह प्रयास उन बीजों का ही पल्लवन है । (vii) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा के प्रसंग को लेकर कुछ अधिक कह गया। पुस्तक के विषय में अब और अधिक न कहकर उनके बारे में बताना आवश्यक है, जिनकी कृपा, आशीष और सहयोग से यह पुस्तक लिखकर आप तक पहुँचा सका । अपने विषय में इतना कहना आवश्यक समझता हूँ कि मैं तो मात्र कठपुतली हूँ । इस कृति के साथ अन्य सभी कृतियों के लिखने वाले सूत्रधार मेरे पूज्य गुरुवर ही है । उनके विषय में कुछ न कहना कृतघ्नता होगी। मैं परम श्रद्धेय, चारित्र चूड़ामणि, तप त्याग-संयम की मूर्ति गुरुदेव मुनि श्री मायाराम जी महाराज का कृतज्ञ भाव से वंन्दन-स्मरण करता हूँ कि जिनका अदृश्य आशीर्वाद सदा ही मेरा सम्बल बना है । प्रातः वंदनीय परम श्रद्धेय गुरुदेव योगिराज श्री रामजीलाल जी महाराज मेरे गुरुमह थे, अर्थात् दादा गुरु । बताना चाहूँगा कि मेरे जीवन का निर्माण उनकी अहैतुकी कृपा के कारण हो सका है। जब मैं अबोध और अयाना था, तब ये कथाएँ मैंने उन्हीं के श्री मुख से सुनी थी। सच तो यह है कि यह सब उन्हीं का है, मेरा नहीं । परम आराध्य गुरुदेव, जैन संघ के शास्ता आचार्य कल्प, शासन-सूर्य गुरुदेव मुनि श्री रामकृष्ण जी महाराज जिन्होंने मुझ अबोध को बोध, मूक को वाणी और लेखनी प्रदान की है । गुरुदेव श्री के प्रति मेरा रोम-रोम कृतज्ञ है, उनकी कृपा का आभारी है और रहेगा । अन्त में अपने सहयोगी मुनियों और श्रद्धाशील श्रावकों के सहयोग का उल्लेख करना भी चाहूँगा । गुरुदेव श्री के ये सभी सन्त रत्न, श्री रमेश मुनि जी, श्री अरुण मुनि जी, श्री नरेन्द्र मुनि जी, श्री अमित मुनि जी और श्री विनीत मुनि जी श्री हरि मुनि जी मेरी सेवा सहकार का सदा ध्यान रखते है । इसके साथ ही स्नेहाधार सम्बोधि (मासिक) के यशस्वी सम्पादक प्रिय डा० विनय 'विश्वास' जिसे प्यार से मैं 'बिनू कहता आया हूँ, उनकी श्रद्धा के मोती भी इस कृति में जुड़े हैं । हरिगन्धा मासिकी (हरियाणा सरकार ) के पूर्व सम्पादक परमगुरुभक्त डा० सोमदत्त जी बंसल (चण्डीगढ़) तथा हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान श्री सत्य प्रकाश जी गोस्वामी, इन दोनों ने इस कृति के लिये अपने अमूल्य सुझाव प्रस्तुत किये हैं। ये सभी मेरे आशीर्वाद के सुयोग्य पात्र हैं ? पाठक लाभ उठाएँ, इसी आशा शुभाशंसा के साथ जैन स्थानक, पी. पी. ब्लाक, पीतमपुरा, दिल्ली- ३४ (viii) सुभद्र मुनि Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका - हरियाणवी जैन कथायें सुप्रसिद्ध एवम् स्वनामधन्य सर्जक गुरुदेव श्री सुभद्र मुनि जी महाराज द्वारा सृजित प्रस्तुत कृति का ऐतिहासिक महत्त्व है। केवल इस कारण नहीं कि यह वर्तमान समय की मांग है, अपितु इस कारण भी कि यह इतिहास के निरन्तर लिखे जा रहे ग्रंथ में मौलिकता एवम् नवीनता का ऐसा अध्याय जोड़ने वाली रचना है, जो एकाधिक दृष्टियों से अभूतपूर्व महत्त्व से सम्पन्न है। दूसरे शब्दों में, इतिहास के लिए अनिवार्य बन जाने वाली विरल रचनाओं में से एक है-'हरियाणवी जैन कथायें। आरम्भ से ही जैन साहित्य की विशेषता रही है कि वह सदैव आभिजात्य भाषा के स्थान पर जन-भाषा के ही रूप में अभिव्यक्त हुआ। भगवान् महावीर की देशना अपने समय की अभिजात अथवा कुलीन भाषा-संस्कृत में नहीं अपितु उस समय की जन-भाषा-प्राकृत में मिलती है। इसे केवल भाषा-विषयक चुनाव ही कहकर टाला नहीं जा सकता । वास्तव में यह उस दृष्टिकोण का परिणाम है, जिसे न तो कभी स्तरीय कहलाने का मोह रहा और न ही कभी पुरस्कार आदि पाकर प्रतिष्ठित होने का। उसका उद्देश्य यदि कोई रहा तो केवल अधिक से अधिक लोगों तक अपना मंगलकारी मंतव्य पहुंचा कर उन्हें अधिक से अधिक लाभान्वित करना । यह उद्देश्य जन-भाषा को माध्यम बना कर ही सिद्ध हो सकता था, जो हुआ भी । इतिहास साक्षी है कि जैन साहित्य का महत्त्वपूर्ण अधिकांश प्राकृत, शौरसेनी, राजस्थानी, गुजराती, कन्नड़ आदि जन-भाषाओं तथा बोलियों में रचा गया । हरियाणवी भाषा में जैन साहित्य का सृजन और प्रकाशन लगभग नहीं हुआ । जैन धर्म की हरियाणा में भी पर्याप्त उपस्थिति के बावजूद यदि जैन साहित्य का सृजन-प्रकाशन हरियाणवी में नहीं हुआ तो इसका एक कारण यह भी है कि यहां का शिक्षित वर्ग इस ओर से प्रायः उदासीन रहा। हरियाणवी में जैन कथाओं का यह पहला संकलन है और यह इसके ऐतिहासिक महत्त्व का एक आयाम है । इस आयाम की सहज विशेषता है- जैन सहित्य को रचनात्मक रूप प्रदान करते हुए उसके प्रचार-प्रसार में वृद्धि करना और उसे अक्षर (जिस का क्षरण न हो) बनाना । इसके ऐतिहासिक महत्त्व का दूसरा आयाम है- हरियाणवी साहित्य के लिए अभूतपूर्व योगदान करना । हरियाणवी में अब तक पद्य-गीतों (रागणियों) और स्वांगों (सांग) के रूप में ही थोड़ा बहुत साहित्य उपलब्ध रहा है। वह भी मौखिक रूप में अधिक और लिखित रूप में कम । परिणामतः हरियाणवी साहित्य की अनेक रचनायें मात्र स्मृति पर आधारित होने के कारण धुंधली पड़ते हुए लुप्त होती जा रही हैं । जो हैं वे या तो पद्य रूप में हैं और या फिर Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक नाट्य के रूप में। गद्य के रूप में हरियाणवी साहित्य लगभग नहीं है । कथाकार गुरुदेव श्री सुभद्र मुनि जी महाराज ने इस अभाव को रचनात्मक ढंग से अनुभव किया, जिसका परिणाम है यह कहानी संकलन । वास्तव में यह ऐसा प्रथम संकलन है, जिस में हरियाणवी को ही सभी कहानियों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया गया है। इस दृष्टि से इन का ऐतिहासिक महत्त्व निर्विवाद रूप से स्वतः सिद्ध है । यह रचना इस बात का जीता-जागता प्रमाण भी है कि हरियाणवी हिन्दी की एक ऐसी बोली है, जिसमें स्वतंत्र भाषा के लिए अपेक्षित क्षमताएं और सम्भावनाएं पर्याप्त मात्रा में मौजूद हैं । हरियाणवी का यह दुर्भाग्य है कि अब तक उसे विविध गद्य विधाओं की समर्थ रचनायें लिपिबद्ध रूप में प्राप्त नहीं हो सकीं। हरियाणवी के बोली मात्र रह जाने के प्रमुख कारणों में से यह भी एक है। अन्यथा समर्थ सहित्य संपदा के कारण हरियाणवी को भी उसी तरह 'भाषा' की मान्यता प्राप्त होती, जिस तरह मध्य काल में अवधी और ब्रज को प्राप्त हुई। 'हरियाणवी जैन कथायें' इस दृष्टि से भी ऐतिहासिक महत्त्व की सहज अधिकारिणी कृति है । यदि इसी प्रकार हरियाणवी की साहित्य - श्री समृद्ध होती रही तो वह दिन दूर नहीं जब हरियाणवी को भी एक समर्थ भाषा माना जाने लगेगा । यदि ऐसा हुआ तो 'हरियाणवी जैन कथायें जैसी कृतियां हरियाणवी साहित्य भवन की मजबूत और गौरवशाली नींव सिद्ध होंगी । अनेक हरियाणवी विद्धान् और साधारण पाठक आश्चर्य चकित रह जायेंगे यह देख कर कि हरियाणवी में ऐसी कहानियां भी रची और लिखी जा सकती हैं । हरियाणवी साहित्य के लिए गुरुदेव का यह मौलिक और वृद्धिकारी योगदान अविस्मरणीय रहेगा । धर्म इस पुस्तक की आत्मा है और हरियाणवी इसका शरीर । साहित्य-समीक्षा की शब्दावली का प्रयोग किया जाये तो धर्म इसकी अंतर्वस्तु है और हरियाणवी इसका रूप । यहां अभिव्यंजित धर्म की विशेषता है कि दुरूहता इसमें लेशमात्र भी नहीं । हरियाणा के लोगों की तरह सीधे-सीधे साफ साफ ढंग से अपनी बात ये कहानियां कहती हैं । यही कारण है कि इन्हें पढ़ने वालों को यह कहीं नहीं लगता कि वे जैन धर्म के उच्चतम मूल्यों को पढ़ रहे हैं जबकि वास्तविकता यही है । यह इन कहानियों की सहजता का सूचक है। महान् उद्देश्यों को इतने सहज-सरल ढंग से अभिव्यक्त करना सभी रचनाओं के लिए एक दुःसाध्य चुनौती रही है, जिसे ये कहानियां बखूबी साध लेती हैं। व्यापक पाठक वर्ग की उत्सुकता निरन्तर जगाये रखते हुए ये जैन धर्म की अनेक मान्यताओं से उसका सहज परिचय करा देने में पूर्णतः समर्थ हैं । इनकी सामर्थ्य का एक पक्ष यह है कि जीवन के जटिल से जटिल प्रसंगों को भी उस हरियाणवी में ये आसानी से पिरो देती हैं, जिसके अस्तित्व का आधार ही रहा है -सहजता । जैसे 'आत्मालोचना' जीवन का एक जटिल प्रसंग है, 'आनंद का खुज्जाना' शीर्षक कहानी में 'कप्पिल' चोरी का संदेह होने के कारण राजा के पहरेदारों द्वारा पकड़ा जाता है। न्याय के लिए राजदरबार में उसे पेश किया जाता है तो वह अपने निर्दोष होने से जुड़ी बातें बताता (x) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। राजा को न केवल उसके निर्दोष होने का विश्वास हो जाता है अपितु उस से वह इस सीमा तक प्रभावित भी हो जाता है कि उसे कुछ भी मांग लेने के लिए कहता है । तब 'कप्पिल' सोचता है कि आखिर वह क्या मांगे जो जीवन-भर उसे आनन्द देता रहे। विचार करते-करते वह इस नतीजे पर पहुंचता है कि उसे राजा का समूचा राज्य ही मांग लेना चाहिए। वह राज्य मांगने वाला ही होता है कि "उसके दमाग मैं बीजली-सी चिमकी! एक नई ए बात उसके जी मैं आई-कप्पिल! तन्नै धिक्कार सै! तू इतणा गिर ग्या, जो राज्जा तन्नें इनाम देणा चावै सै तू उस्सै नैं बरबाद करण की सोच्चण लाग रया सै! धिक्कार सै मन्नै अर धिक्कार सै मेरे जी की तिरिस्ना नैं!" यहां ध्यान देने योग्य विशेषता इस कहानी-कला की यह है कि 'कप्पिल' के मन में जो भाव आ-जा रहे हैं, उनका गतिशील चित्र उभरकर सामने आ जाता है। इस प्रकार आत्मालोचना जैसी अदृश्य प्रक्रिया को भी दृश्य रूप मिलता है। हरियाणवी भाषी लोग यह अच्छी तरह जानते हैं कि मन में घटित होने वाली प्रक्रियाओं को ठीक-ठीक शब्द देना कितना कठिन कार्य है! इन कहानियों में अनेक स्थलों पर यह कठिन कार्य आसानी से सम्पन्न होता है जो गुरुदेव-श्री की ऊर्जस्वी लेखन-क्षमता का सूचक है। इसी प्रकार 'द्यालु राज्जा' शीर्षक कहानी में राजा का अंतर्द्वद्व देखने लायक है जो बहुत कम शब्दों में साकार हो उठा है- "राज्जा नैं सोच्ची- मैं तै बड्डे धरम-संकट मैं फँस ग्या । कबूत्तर नैं ना बचाऊं तै यो बिचारा जान तै ज्यागा । कबूत्तर नैं ना छोड्डू तै बाज भूक्खा मर ज्यागा । माड़ी वार वे सोच-बिचार करदे रहे । फेर वे भित्तर-ए-भित्तर हाँस्से ।" यहाँ इतने कम शब्दों में राजा के मन में चलने वाली दुविधा को आकार दे दिया गया है कि बिहारी की काव्य-कला याद आती है । राजा जब "भित्तर-ऐ भित्तर हाँस्से" तो स्पष्ट हो गया कि दुविधा समाप्त हो चुकी है और वे एक निश्चित कर्तव्य का पालन करने के लिए कटिबद्ध हो चुके हैं। अवसर राजा के जीवन की कठिन से कठिन परीक्षा का है परन्त राजा को वह एक खेल जैसा प्रतीत हो रहा है। इसीलिए ऐसी कठिन परिस्थिति में भी वे भीतर ही भीतर हँस सकते हैं। यह हँसी धर्म के आधार पर कठिनाई का उपहास करने वाली हँसी है। परिस्थितियों को स्वयं पर हावी न होने देने की दृढ़ता से पैदा होने वाली हँसी है यह । कहानी का यह छोटा-सा वाक्य अर्थ की अनेक परतें अपने में समेटे हुए है। एक ओर यह राजा के जीवट को तो दूसरी ओर परीक्षा के बौनेपन को उभारता है। दोनों के बीच का तनाव इस अकेले वाक्य से उद्घाटित हो जाता है। उल्लेखनीय है कि ऐसे वाक्य उस हरियाणवी में लिखे गए हैं, जिसमें लिखित कहानियों व गद्य के अन्य रूपों की कोई परम्परा नहीं है। स्पष्ट है कि ऐसे व्यंजक वाक्य कहानियों के गठन तथा विन्यास में अपनी अर्थ-समृद्ध भूमिका तो निभाते ही हैं, हरियाणवी के आगामी साहित्य को अत्यंत ऊर्जस्वी परम्परा की विरासत भी सौंपते हैं । सुगठित कथा-विन्यास इस विरासत की विशेषता है। सभी कहानियां मनुष्य-मात्र के लिए (xi) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल्यवान् विचार अभिव्यक्त करती हैं। ये विचार पूरी कहानी के माध्यम से भी व्यंजित होते हैं और कहानी के बीच-बीच में भी प्रसंगानुसार उभरते हैं । कहानी के बीच में आने वाले विचार प्रायः कथा-प्रवाह में बाधा उपस्थित करते रहे हैं परन्तु प्रस्तुत कहानियां विचारों को इस कुशलता से व्यक्त करती हैं कि न कथा-प्रवाह बाधित होता है और न ही विचार मखमल में पैबंद की तरह अलग से आकर्षित करते हैं। कहीं ये विचार संवादों के रूप में व्यक्त हुए हैं तो कहीं वर्णन के रूप में। संवाद शैली जैन आगमों में ज्ञान प्राप्ति के प्रमुख साधन के रूप में प्रयुक्त होती रही है और इस सुदृढ़ परम्परा का दक्ष उपयोग इन कहानियों में किया गया है । 'परभू के दरसन' शीर्षक कहानी में भगवान् महावीर ने फरमाया है, "हे गोत्तम! न्यूं-ए होया करै । जो भुंडे करम आदमी नै पैहल्यां कर राक्खे हों, जिब ताईं उनका फल ना भोग ले, वे कटते कोन्यां अर आपणे टैम पै परगट होया करें । नंदन मनियार बेमारी तै छूट्या-ए कोन्यां ।" यहां जैन दर्शन के कर्म सिद्धान्त को बताया गया है। नंदन मनियार के विषय में बताते हुए भगवान् महावीर इस सिद्धांत को कह देते हैं । सम्पूर्ण कथा - विन्यास के बीच में आया यह सिद्धान्त और विचार कथा प्रवाह को बाधित करने के स्थान पर गति प्रदान करता हैं। 'नंदन' नामक मुख्य पात्र की कहानी इस से और अधिक उजागर होती है । यही है 'विचार' को भी कहानी कला का अंग बनाकर उपयोग करने का सामर्थ्य, जिस से ये कहानियां सम्पन्न हैं। 'सुथराई का घमण्ड' शीर्षक कहानी में सनत्कुमार के त्रिलोक-विख्यात रूप-सौंदर्य को देखने दो देवता उनके पास आते हैं। राजदरबार में वे सनत्कुमार के सौंदर्य के साथ-साथ उसके सौंदर्य-विषयक अहंकार को भी देखते हैं। तभी उसे कोढ़ हो जाता है । वह वैराग्य भाव में निमज्जित होकर मुनि दीक्षा अंगीकार कर लेता है। वहीं दोनों देव तपस्वी मुनिवर सनत्कुमार के पास वैद्य बनकर आते हैं और उनके सम्मुख उन्हें नीरोग बना देने का प्रस्ताव रखते हैं। मुनिवर अपनी उंगली पर थोड़ा सा थूक लेकर अपने रोगी शरीर पर लगाते हैं। जहां थूक लगता है, वहीं शरीर पूर्ण स्वस्थ हो जाता है। तब मुनि सनत्कुमार कहते हैं, “सरीर के रोग मेट्टण खात्तर तै मेरे धोरै घणी-ए सिद्धी सैं। पर सरीर तै मेरा कोये बी मतलब कोन्या । यो बेमार है अक ठीक है, मन्र्ने के । मैं तै आतमा पैं चड्ढ्या होया करमां का मैल धोणा चाहूं सूं । या तै मेरी कमअकली थी अक् ईब ताई में सरीर के रूप नैं-ए देखदा रहूया ।" स्पष्ट है कि यहां एक दार्शनिक विचार रूपायित किया गया है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि कहानी दार्शनिकता का संवहन करते हुए भी बोझिलता से पूर्णतः दूर व सुरक्षित बनी रही । वैचारिकता उभरी तो कथानक की घटनाओं के कुशल ताने-बाने से स्वयमेव उभरी, कहानी पर उसे आरोपित नहीं किया गया। यही कारण है कि एक दार्शनिक विचार भी पाठक के लिए हृदयग्राही बन गया । विचार यदि अनुभूति बन जाये तो वह साहित्यिक उपलब्धि का चरम शिखर होता है, जिसे उपरोक्त उद्धरण में लेखकीय क्षमता ने सहजता से स्पर्श किया है । अनुभूति बन जाने वाला एक और विचार 'मामन सेट के बलद' शीर्षक कहानी में भगवान् 1 (xii) Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर के मुखारविंद से व्यक्त हुआ है. "जिस धन तै आदमी का जी आच्छे काम करण मैं लाग्गै ओ धन पुन्न का अर जिस तै जी मैं कोए आच्छा काम करण का ख्याल ना आवै ओ धन पाप का हो सै ।" यहां पाप और पुण्य के धन के बीच अंतर कितनी सादगी से बता दिया गया है! अनुभव से आलोकित हो उठने वाले विचार के रूप में यह पूरी कहानी उभरी है। इसी प्रकार 'करणी अर भरणी' शीर्षक कहानी में भी घटना- संकुलता के बीचों-बीच चलने वाले संवादों में से एक विचार आया है-“या राज-पाट की भूख घणी माड़ी हो सै ।" यहां 'माड़ी' शब्द की अर्थ-व्यंजकता देखते ही बनती है। हरियाणवी का ठेठ शब्द है यह, जो तृष्णा की हीनता से लेकर लोभी व्यक्ति के संताप और उसकी नीचता तक अनेक अर्थ व्यक्त कर रहा है। उपरोक्त सभी तथा ऐसे ही अन्य विचार मनुष्यता की रक्षा एवम् वृद्धि के लिए कितने मूल्यवान् हैं, यह अलग से बताने की आवश्यकता नहीं । आवश्यकता इस बात की है कि विभिन्न पात्रों के जीवन-संदर्भो से कहानी में उगते इन विचारों को आचरण से सार्थक किया जाए। आचरण भावात्मक सक्रियता के बीज से उगता है और ऐसे बीज आते हैं इन कहानियों के प्रभाव से । विचार, अनुभव और संवेदनायें इन रचनाओं में परस्पर इस सीमा तक संगुम्फित हैं कि उन्हें एक-दूसरे से अलग करना उनके साथ अन्याय करने जैसा लगता है। यह इनके कथानक का सुगठित विन्यास भी है और समर्थ मूल्यों का 'कहानी' के रूप में समर्थ संवहन भी। इन कहानियों में कथा-रचना की एकाधिक पद्धतियों के ऊर्जस्वी प्रयोग से वैविध्य की पर्याप्त सृष्टि प्राप्त होती है। वर्णन कथा-रचना की सर्वाधिक उपयोग की गई पद्धति है । कारण यह कि वर्णन से कथा-रस की सृष्टि भी होती है और कहानी इस से आगे भी बढ़ती है। आवश्यकतानुसार कभी तेज गति से तो कभी मंद गति से । वर्णन से एक ही बात को रोचक ढंग से विस्तार भी दिया जा सकता है और विस्तृत क्रिया-व्यापार को संक्षिप्त भी किया जा सकता है। जो बातें किसी भी अन्य पद्धति व माध्यम से व्यक्त नहीं की जा सकतीं उनके लिए वर्णन एक सक्षम पद्धति है। प्रस्तुत पुस्तक में इस पद्धति का समर्थ प्रयोग स्थान-स्थान पर किया गया है। 'द्यालु राज्जा' शीर्षक कहानी के इस उद्धरण में वर्णन की कला द्रष्टव्य है-"जिब्बै-ए राज्जा नैं सेवकां के हाथ एक तराज्जू मंगाया । उन् नैं एक पालड़े मैं कबूत्तर बिठाया अर दूसरे पालड़े मैं चक्कू ते आपणी देही का मांस काट-काट के काढण अर धरण लाग्गे । पर यो के? राज्जा नैं आपणे सरीर का आद्धा मांस काढ के पालड़े पै धर दिया । फेर बी कबूत्तर आला पालड़ा-ए भारी रया । राज्जा मेघरथ की देही जाणुं लहू मैं न्हाई होई बेट्ठी थी । ताक्कत घटती जा थी । फेर भी उन नै धीरज ना छोड्या । आक्खर में राज्जा हिम्मत करकै पालड़े कान्नीं गए अर वे आपणे-आप पालड़े मैं जा कै बैठगे । भित्तर-ए-भित्तर उन् मैं संतोस था अक् उनका सरीर एक कबूत्तर की जान बचाण में काम आण लाग रया से ।" इस वर्णन से धारा प्रवाह कथा-रस की सृष्टि हुई है। कहानी तेजी से आगे बढ़ी है । विस्तृत (xiii) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया- व्यापार संक्षेप में इस प्रकार व्यक्त हो गया है कि इसके एक भी अंश को काट दिया जाये तो कहानी लड़खड़ा जायेगी। एक-एक शब्द अपने होने की सार्थकता और अनिवार्यता स्वयं सिद्ध करता है । यही है वर्णन का समर्थ प्रयोग, जो लगभग सभी कहानियों की विशेषता है । इनकी एक और विशेषता है-चित्रात्मक भाषा की जीवंतता । हरियाणवी यों भी इस मामले में काफी समृद्ध है।' आनंद का खुज्जाना' में इस दृष्टि से ये वाक्य ध्यातव्य हैं- “कपिल सोच मैं डूब गया । उसके मूं पै एक रंग आंदा अर चल्या जांदा । दूसरा रंग आंदा, फेर तीसरा । चाणचक खुसी तै उसका मूं खिल गया ।" साफ-साफ घटित होती दिखाई देती है कहानी । कप्पिल की खुशी दिखाई देती है- उसका मुँह खिलने के रूप में । इसी प्रकार 'भगवान महावीर अर चण्डकोसिया सांप' की ये पंक्तियां भी उल्लेखनीय हैं- “गुस्से में भरे फफकारते होए सांप मैं ध्यान में खड़े महाबीर के पायां मैं डंक मार्या । ईब के उसके जैहूरीले दांद महाबीर के पां के गूंठे मैं गडगे । उनके गूंठे तै खून की जंगा दूध बैहूण लाग्या ।” भाषा का यह प्रयोग उस कौशल का पुष्ट प्रमाण है, जो अनेक कहानियों में स्थान-स्थान पर शब्द-रेखाओं से निर्मित होते चित्रों में मुखर होता है। ये चित्र कहानियों को जीवन्त रूप देने के साथ-साथ पाठक की कल्पना - शक्ति को जाग्रत भी करते हैं। यह कार्य अनेक उपमाओं ने भी बाखूबी सम्पन्न किया है । जैसे 'छिमा की मूरत' कहानी का यह अंश- “फेर सुदरसन जमीन पै पलोथी ला कै बैठ ग्या । उसनें ओड़े तै-ए भगवान् महावीर की बंदना करी अर भित्तर-ए-भित्तर नमोक्कार मंतर पड्ढण लाग्या । उसके भित्तर पहाड़ बरगी सान्ती थी ।" यदि मन की शान्ति को यहां पहाड़ जैसी न कहा गया होता तो पाठक उसे देख नहीं सकता था । इस उपमा ने शान्ति की विराटता और अडिगता को एक साथ व्यंजित कर दिया । इन कहानियों के माध्यम से व्यंजित होने वाले कथा - कौशल की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है- ठेठ हरियाणवी का ठाठ । हरियाणवी लोक-जीवन की समृद्धि कहीं मुहावरों के रूप में आई है तो कहीं कहावतों के रूप में । ' आनन्द का खुज्जाना' में कप्पिल जब राजा के सामने अपराधी बन कर पेश हुआ तो “उसकी आंख धरती मैं गड्डन नैं हो रही थी ।" साथ ही 'दयालु राज्जा' में राजा अपने उत्तराधिकारी के विषय में जानने पर कहता है, “थम सोला आन्ने ठीक राय दी सै ।" इसी प्रकार 'अनाथ कुण सै' में साधु ने जैसे ही राजा श्रेणिक को अनाथ कहा तो, “या बात सुण के राज्जा के पतंगे लड़गे ।” इसके अतिरिक्त 'साद्धू के सत्संग' में धर्म से दूर रहने वाले राजा को आचार्य केस्सी स्वामी जब धर्म के विषय में ज्ञान देकर आश्वस्त कर देते हैं तो कहानी कहती है, “घणी बात के राज्जा का पेट्टा भर गया ।" ससुर ने बहुओं की समझदारी परखने के लिए जब धान के पांच-पांच दाने सभी को संभालने के लिए दिए तो बड़ी बहू ने 'अक्कल आपणी आपणी' शीर्षक कहानी में सोचा- “मेरा सुसरा तै बुड्ढाप्पे मैं अक्कल के पाच्छै लठ लिए हांडै सै ।" इन सभी उद्धरणों में ठेठ हरियाणवी मुहावरों ने भाषा (xiv) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को जो व्यंजक क्षमता प्रदान की है, वह निःसन्देह इन कहानियों को हरियाणवी की पूरी तरह अपनी कहानियां प्रमाणित करती है । भाषा के साथ-साथ यह अनुभव की प्रामाणिकता एवम् परिपक्वता का सूचक भी है । पूर्णतः उचित बात के लिए 'सोला आन्ने ठीक' तिलमिला उठने के लिए 'पतंगे लड़ना', अच्छी तरह सन्तुष्ट होने के लिए 'पेट्टा भरना' और निरंतर मूर्खता के लिए 'अक्कल के पाच्छै लठ लिये हांडणा' जैसे मुहावरों के प्रयोग ने इन कहानियों की भाषा को लोक-जीवन का जो रंग दिया है, वह इस कारण से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि हरियाणवी के पहले कहानी-संग्रह से इस सीमा तक परिपक्व भाषा की अपेक्षा सहजता से नहीं होती । इसीलिए भाषा का यह परिपक्व रूप पहली ही पुस्तक में पा कर पाठकों को सुखद आश्चर्य होगा । 'रोहिणिया चोर' में नगर के व्यापारी जब बढ़ती चोरियों की शिकायत राजा से करते हैं तो राजा के सामने अपने दरबारियों की झूठी राज्य प्रशंसा बेनकाब हो उठती है। तब राजा सोचता है- “कोए तै ईसा होंदा जो साच्ची बतांदा । आड़े ते सारे कुएं मैं-ए भांग पड़ रही सै ।" चोर की अत्यंत चतुराई को इसी कहानी में यह कह कर व्यक्त किया गया है कि वह “गाड्डी की गाड्डी अकल ले रूहूया था ।” भगवान् महावीर की देशना के विषय में लिखा गया है, “सूक्खे धान्नां पै धरम का पाणी एक सांस बरसै था ।” हरियाणा की इन कहावतों ने इन कहानियों की भाषा को और अधिक गरिमा प्रदान की है। भरपूर दुःख में जब भरपूर सुख मिल जाये तो कहा जाता है कि “सूक्खे धान्नां मैं पाणी आ ग्या ।” दूसरी ओर धाराप्रवाह बारिश के लिए यह मुहावरा प्रचलित है कि “राम एक सांस बरसे से ।” कहावत के साथ मुहावरे का भी एक छोटे-से वाक्य में प्रयोग (सूक्खे धान्नां पै धरम का पाणी एक सांस बरसै था । ) यह बताने के लिए पर्याप्त है कि लेखक को एक ओर हरियाणवी पर पूरा अधिकार प्राप्त है तथा दूसरी ओर लेखक की साहित्यिक क्षमतायें भी असंदिग्ध हैं। इन दोनों के मणि- कंचन संयोग के बिना इतना समर्थ वाक्य नहीं गढ़ा जा सकता था। इन कहानियों में ऐसे वाक्य अनेक हैं । हरियाणवी के अनेक ऐसे ठेठ प्रयोगों से ये रचनायें सुसज्जित हैं, जिनका किसी अन्य भाषा में पूर्णतः ठीक-ठीक अनुवाद होना लगभग असंभव है। ऐसे प्रयोग प्रत्येक भाषा के पूरी तरह अपने और अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने वाले प्रयोग होते हैं । 'साच्चा भगत कामदेव सरावग' में कामदेव नामक श्रावक की साधना की परीक्षा लेने आने वाला देव हाथी बनकर कामदेव को पांवों तले रौंदते हुए कहता है- “तेरे हाड-हाड दरड़ दूंगा ।" इस प्रयोग की व्याख्या तो की जा सकती है परन्तु ठीक-ठीक यही अभिव्यक्ति इतने ही शब्दों में संभवतः विश्व की किसी भाषा में नहीं हो सकती । हरियाणवी के उक्त वाक्य में ही संपूर्ण ऊर्जस्विता के साथ इस स्थिति का समस्त तीखापन व अर्थ- गौरव व्यक्त हो सकता है। 'रोहिणिया चोर' में चोरियों की शिकायत राजा से व्यापारी इन शब्दों में करते हैं-"म्हाराज! हम तै चोरियां नैं खा लिए ।" (xv) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशय यह कि चोरियों से हमें इतनी पीड़ा हो रही हैं जितनी किसी जानवर द्वारा खा लेने पर होती है । घनीभूत पीड़ा की यह अभिव्यक्ति हरियाणवी की अपनी विशेषता (जो शेष में नहीं ) है । 'छिमा की मूरत' का अर्जुन माली जब प्रतिदिन न्यूनतम छह पुरुषों और एक स्त्री को मारने लगा तो " सारी नगरी मैं रोहा-राट माच ग्या ।” तुलना करके देखा जा सकता है कि हिन्दी के 'हाहाकार' से हरियाणवी का 'रोहा राट' शब्द कितना अधिक कारुणिक व मार्मिक है! 'अनाथ कुण सै' में राजा की गर्वोक्ति है- “मैं ते आपणी परजा का नाथ सूं अर कती लोह-लाठ ।” यहां 'लोह - लाठ' भी हरियाणवी का पूरी तरह अपना प्रयोग है । इतना सशक्त और प्रभावशाली प्रयोग है यह कि “कत्ती लोह-लाठ!" इन सभी प्रयोगों के विषय में यह कहना कदाचित् आवश्यक है कि इनमें से एक भी 'प्रयोग के लिए प्रयोग नहीं किया गया है और न ही अपना हरियाणवी पांडित्य पदर्शित करने के लिए कहानियों में इन्हे बलात् दूँसा गया है। कथा-प्रवाह में ये सभी प्रयोग इस प्रकार आये हैं कि इनके आने का अलग से आभास तक नहीं होता। कहानियों के रूप-विधान हेतु ये प्रयोग उनके लिए इतने अनिवार्य बन पड़े हैं कि कहानियों के साथ अन्याय किए बिना इन्हें उन से अलग नहीं किया जा सकता। यही है टेट हरियाणवी का ठाठ । शब्द चयन से लेकर वाक्य गठन तक, स्थिति वर्णन से लेकर संवाद-योजना तक, कथानक से लेकर चरित्र-निर्माण तक और वातावरण-चित्रण से लेकर व्यंजक भाषा तककथा-रचना का एक भी पक्ष ऐसा नहीं, जिसकी दृष्टि से इन कहानियों को कमजोर कहा जा सके । ऐसा बहुत कम होता है कि किसी भाषा में पहले-पहल (गद्य-रूप) कहानियों की रचना हो और वह भी अत्यधिक सजग निपुणता के साथ! यह दुर्लभ उपलब्धि इस पुस्तक की भी है और हरियाणवी गद्य साहित्य की भी। जैन धर्म प्रभावक वत्सल-निधि गुरुदेव श्री सुभद्र मुनि जी महाराज का इन कहानियों के माध्यम से रूपायित होने वाला कथाकार रूप श्रेयस्कर भी है और प्रेरक भी। इस उत्कृष्ट, अद्वितीय एवम् ऐतिहासिक महत्त्व की कृति प्रस्तुत करने के लिए उनकी सृजन क्षमता को बारम्बार वंदन । - विनया विश्वास (xut) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरियाणवी जैन-कथायें Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परभू के दरसन एक बर राजगीर के गुणशील बाग मैं भगवान महावीर के दरसन करण राज्जा सरेणिक ठाठ-बाट गेल्यां आया । दरसन करकै ओ आपणे महलां मैं चाल्या गया । उसके जाएं पाछै, माड़ी ए वार होई थी, अक एक ओर अजनबी-सा राज्जा उनके दरसन करण आया। ओ सरेणिक तै घणा-ए सुथरा था। उसकी गेल्यां सरेणिक तै सो गुणे सेवक अर लोग-लुगाई थे। उसके अरथ, हात्थी, घोड़े अर दास-दास्सी भी घणे-ए सुथरे अर सब तै न्यारे चिमकण आले थे। इन्दरभूती गोत्तम (जो महावीर के चेल्ले थे) के देखते-ए-देख्त्यां वे सारे न्यूं गैब हो गे जाणुं असमान में बिजली चिमकी हो, अर जिब्बै-ए गैब हो गी हो । यो देख कै गोत्तम स्वामी नैं घणा ताज्जब होया। उन नैं भगवान महावीर स्वामी की बंदना करी अर सुआल बूज्झ्या “हे परभू! मन्– आपणी आंख्यां तै ईसा कोए दरसन करण आला नहीं दीख्या जो आंधी-बिजली की तरियां आया हो अर चाणचक हवा की तरियां गैब हो गया हो । हे भगवान! यो कुण से मुलक का राज्जा था, मेरे तै बताण की किरपा करो ।" भगवान बोल्ले, “हे गोत्तम! यो किसे मुलक का राज्जा ना था। यो तै दर्दुर नां का देव था । तम नैं ठीक बूझी, अक यो बिजली की तरियां आया अर आंधी की तरियां चाल्या क्यूं गया?" "हां भगवान! मैं यो हे जाणना चाहूं सूं ।" Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - "तै सुणो गोत्तम! यो दुर्दुर देव इस्से सहर मैं रया करता । इसके तीसरे पूरब जनम का नां था- सेट नंदन मनियार । एक बर यो मेरे समोसरण मैं आया था । मेरी बाणी सुण के इसनै सरावग के बरत ले लिए थे। इस के जी मैं पूरी सरधा होगी थी। नेम-बरत पालती हाणां इसनैं दुनिया के भले के घणे-ए काम करे थे । उस टैम इसनैं नंदा नां की एक बौड़ी भी बणवाई थी। राज्जा सरेणिक तै इसने इस काम की इजाजत मांगी थी। सरेणिक नै बौड़ी बणान का काम आच्छा सिमझ के इजाजत दे दी थी। बौड़ी बण के त्यार हो गी ते राजगीर की जन्ता नैं फैदा होया । बौड़ी| का पाणी खसबू आला था। उसमें लोग न्हाते । आण-जाण आले मुसाफर अराम करते । दुनिया नंदन मनियार की बड़ाई करदी, अर उस ते धन्न-धन्न कहती। नंदन नै आपणी बड़ाई आच्छी लागती । बौड़ी बणवाएं पाछे इसनैं लोग्गां की भलाई खात्तर बाग, धरमसाला, होसधालय, दानसाला, अलंकार साला, अर चित्तरसाला बणवाईं। सारे लोग उनका फैदा ठाण लाग्गै । मनियार की घणी-ए बडाई होण लाग गी । ____ जिब तै नंदन नैं बरत लिये थे, उसनै साधुआं की बाणी सुणन का मोक्का नहीं मिल्या था । जाएं तै ओ आपणे बरतां नैं भूल ग्या अर दुनिया | की बडाई मैं-ए बिचल गया । समै कदे एक जीसा कोन्यां रहंदा । समै खराब आया। उसके सरीर मैं कई बेमारी लाग गी। उसनै घणे-ए इलाज कराए पर कोए फैदा ना होया। इलाज करण खात्तर दूर-दूर तै बैद भाज्जे आए। सब नैं आपणा-आपणा ग्यान अर तजरबा अजमाया, पर कोए-सा भी कामयाब कोन्यां होया ।" हरियाणवी जैन कथायें/2 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "हे परभू! ईसे आच्छे-आच्छे काम करण आला का भी बेमारी तै पांडा ना छूटता?" गोत्तम नैं बीच मैं-ए हाथ जोड़ के बूज्झ्या । “हां गोत्तम! न्यू ए होया करै । जो मूंडे करम आदमी नैं पहल्यां कर राक्खे हों, जिब ताईं उनका फल ना भोग ले, वे कटते कोन्यां। ओं आपणे टैम पै परगट होया करें । उदै मैं आया करें । करमां की दुआई बैद धोरै ना होती। हे गोत्तम! नंदन मनियार बेमारी ते छूट्या कोन्यां । आग्गै सुणो- नंदन मनियार घणा-ए नाउमेद हो गया । आक्खर मैं उसने एक बेमारी खतम करण खात्तर भारी इनाम अर पीशे देण की डूंडी पिटवाई, पर वा भी बेकार गई। उसका किस्से भी तरियां इलाज ना होया । उसकी उमेद टूट गी। मरण का टैम नजदीक आता रहूया । उसका जी उसकी बणवाई होई बौड़ी मैं लाग्या रइया । धरम-ध्यान उसका छूट गया । टैम आया, अर ओ मर गया। ... ओ नंदन मनियार सेट मरें पाछै आपणी बौड़ी मैं मींडक के रूप मैं पैदा हो या । बौड़ी पै आन्दे-जान्दे, नहान्दे, अराम करण आले, बेमारियां तै छूट्टण आले, सारे लोग दान लेत्ते, अलंकार लेत्ते अर सदाबरत की रोटी खान्दे होए लोग नंदन मनियार की दिन-रात बडाई कर-कर के छिक्या ना करते । मींडक बौड़ी मैं रह्दै था। ओ बार-बार नंदन मनियार का नां सुणदा रया, सुणदा रह्या । ओ भित्तर-ए भित्तर सोच्चण लाग्या, 'यो नंदन मनियार कुण था? यो नाम तै ईसा लाग्गै सै जाणुं सुण राख्या हो!' दन-रात उसके कान्नां मैं पड़ती होई बात एक दन उसके दमाग मैं आ गी। उस के आपणा पाछला जनम याद आ ग्या। ओ समझ ग्या, अक परभू के दरसन/3 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरियाणवी जैन कथायें / 4 чиная STREWARK IC Welc Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में-ए सेट नंदन मणिहार था । या बौड़ी मन्नें बणवाई थी। मन्नं आपणे लिए होए बरत तोड़ दिए थे। बौड़ी मैं मेरा मोह मरण ताईं भी कम नहीं - होया था । उस मोह का फल मन्नै मिल्या । मरें पाच्छै मन्नें आडै बौड़ी में मींडक बण के पैदा होणा पड्या । _मींडक के रूप में पैदा होण आले नंदन मनियार नै आपणा पाछला जनम आपणी आंख्यां के सामी हाथ की लकीरां की तरियां कत्ती साफ दीक्खण लाग्या ।” "मींडक बणे नंदन मनियार का फेर के होया भंते (भगवान)! मैं न्यूं ओर जाणना चाहूं सूं ।” भगवान नै आग्गै बताई “मींडक बौड़ी मैं-ए रहता रया । एक बर कई साल पाछै ,राजगीर मैं दुबारै मेरा आणा होया । समोसरण रच्या गया। सरेणिक फेर दरसन करण आवै था। ओ बौड़ी पै ठहर्या । दुनिया बार-बार मेरी भगती तै बडाई करण लाग रही थी। मींडक नैं सुणी तै उसके जी मैं मेरे समोसरण मैं आ कै, दरसन करण की भावना बण गी। ओ मेरे दरसन करण नै चाल पड्या । पर करमां के लेख तै कुछ ओर-ए थे । आपणे छोटे से सरीर तै, फुदक-फुदक के चालती हाणां ओ एक घोड़े के पां तलै आ ग्या । ओ रगड्या गया । सरीर से खून चाल पड्या । ओ आपणे घायल सरीर नै ले के, राह मैं तै एक कान्नी हट लिया । सरीर मैं बेदना लाग रही थी। उस टैम उसके मन मैं तीर्थंकर के दरसन करण के भाव थे । जाएं तै उसका मन पाछले जनम मैं लिए होए परभू के दरसन/5 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरतां में जम ग्या । उसनैं आपणा सरीर छोडती हाणां मेरी बंदना करी। नमोक्कार मंतर पढ्या, अर सरीर छोड दिया ।” "भंते! फेर के होया? यो बताण की भी किरपा करो ।” "हे गोत्तम! मींडक देवलोक मैं देव बण ग्या। देव बण के भी मींडक | के जनम मैं करे होए पुन्न तै उसका ध्यान धरम मैं लाग्या रह्या । जाएं तै यो तीर्थंकर की बंदना करण खात्तर वैक्रीय सरीर (एक सरीर तै कई रुप बणान की बिद्या) धारण कर के आड़े आया था । वैक्रीय सरीर जिब गैब होवै सै तै उसका कोए कानुन कोन्यां होंदा । ओ असमान में चिमकी होई बिजली की तरियां गैब हो ज्या सै ।” ____ “भगवान! या साच्ची कहाणी सुण कै आज मैं हैरान सूं । इस कथा तै मन्नैं बेरा पाट्या अक किस्से भी आदमी मैं या चीज मैं मोह का के नतीज्जा हो सै!" “गोत्तम! लिए होए बरत तोड़ण तै सरधा भी झूट्ठी हो ज्या सै ।” | “भगवान! आप नै जो बात बताई, उस पै मेरी पूरी सरधा सै ।” न्यू | कह कै गोत्तम भगवान के चरणां मैं झुक गे । हरियाणवी जैन कथायें/6 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ য়ার অফা সন্তু "मां .... तू क्यूं रोवै सै?" छोट्टे-से बालक कपिल नैं आपणी मां की आंक्खां मैं आंस्सू देखे तै बूज्झ्या । “हां बेट्टा .... के करूं ? बात ईसी-ए सै । ओ देख, नए पुरोहूत का जलूस लिकड़न लाग रया सै। कोए टैम था जिब म्हाराज जितसतरू म्हारा घणा-ए ख्याल राख्या करते, पर जिब तै तेरे बाब्बू गए, म्हारे कान्नी लखाणा भी भूल गे ।” मां नै कही। “ईब मेरे बाब्बू कित गए ?" बालक नैं फिर बूज्झ्या । मां नैं धोत्ती ते आपणी आंख पूंझी । बोल्ली, “बेट्टा ..... के बताऊं तन्नै? तेरे बाब्बू राज्जा के पुरोह्त थे । राज्जा कोए काम उन तै बूज्झे बिना कऱ्या-ए ना करै था । परजा मैं उनका पूरा-ए मान था । उनके मरें पाछै तै म्हारा सब किमै खू ग्या। जै आज तेरे बाब्बू होंदे तै यो जलूस उनका होंदा | उनके बिना हम कितणे गरीब हो गे... " बालक पै मां का दुख बरदास कोन्यां होया । बोल्या, “मां ! के मैं भी पढ़-लिख के आपणे बाब्बू की पदवी हास्सल कर सकू सूं?" “कर क्यूं ना सकदा, जै तू मैहनत तै पड्ढेगा तै राजपुरोहत बण सकै सै ।” मां नैं कही। “मां! ईब तू रोणा छोड दे । मैं पढ-लिख कै राजपुरोहत बणूंगा ।" बेटे नैं मां की आंख पूंझते होए कही। आनंद का खुज्जाना/7 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 कुछ दन बीत गे । बालक कपिल पडूढण की जिद करण लाग्या । मां ने सोच्ची, 'इस नगरी मैं मेरे बेटे तै जलण आले घणे-ए सैं। लोग्गां नै मेरे बेट्टे के जी की बात सिमझ ली तै वे उसने पडूढण-ए ना दें । उलटा-सीधा भका देंगे। उसके पडूढण- लिक्खण का एंतजाम तै सरावस्ती मैं कर देणा चहिए। ओड़े के अचार्य इन्दर दत्त इसके बाब्बू के आच्छे ढब्बी सैं । उनकी देख-रेख मैं छोरा आच्छी तरियां पढ़-लिख सकै सै।' न्यूं सोच कै एक दन मां नै कपिल सरावस्ती भेज दिया । ओड़ै छोरा अचार्य जी तै मिला । अचार्य जी नैं बालक की पढाई की जुम्मेदारी आपणे सिर ले ली । उसके रैहूण का एंतजाम औड़े के नगर सेट नैं कर दिया । धीरे-धीरे कपिल बड्डा हो गया । होणी नैं तै कुछ और-ए मंजूर था । नगर सेट कै रैहण आली एक दास्सी तै कपिल की मोहबत हो गी । आपणा - आप्पा कपिल पै सिंभला कोन्यां । परेम की आंधी मैं बैहूकै उसनैं पढणा-लिखना छोड़ दिया। अचार्य इन्दर दत्त नैं ओ घणा-ए सिमझाया । धमकाया- धमकूया भी पर कपिल कै ना लाग्गी एक भी। ओ तै परेम मैं बौला हो रूहूया था । एक बर नगरी मैं बनड्यां का बड्डा ए त्युहार मन्नै था । जुआन छोरी-छोरे सज-धज के ओड़े जाण लाग रे थे। दास्सी नैं भी कपिल तै बढ़िया कपड़े-लत्ते अर गहणे मांगे। मिट्ठा-सा उलाहना देंदी होई बोल्ली, “ईब तन्नै मेरा पल्ला पकडूया सै तै मेरे जी की बात भी तै तूहे पूरी करैगा । ईब तन्नै छोड कै मैं किसके घरां जां । ओर किस तै कहूं आपणे जी की बात?" कपिल सोच में पड़ गया। ओ ईब कित जावै, के करै, किसते कहूवै हरियाणवी जैन कथायें /8 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर के कदै? ओ आप्पै-ए ओरां के रह्दै था। उसकी सोच देख के दास्सी नै सलाह दी अक “तू बाह्मण का सै । आड़े का राज्जा रोज तड़कै-तड़क दो मास्से सोन्ना दान कऱ्या करै । जो बाह्मण सब तै पहलां जा के असीरवाद दे उस्सै तै ओ सोन्ना दिया करै सै । तू तौला-सा राज्जा तै असीरवाद देण पहौंच जइए, सोन्ना तेरे हाथ लाग ज्यागा। ईब हाल तै मैं उस्सै तै गुजारा कर ल्यूंगी ।” या राय कपिल के कत्ती अँच गी । सारी रात ओ याहे सोचदा रया । रात के तीसरे पैहर ऊठ्या अर सोन्ना लेण खात्तर चाल पड्या । अंधेरे मैं एक आदमी नैं जांदा देख के पहरेदार चिल्लाए, “रै कुण सै ....... कुण सै! जो इतणी रात नै भी हांडै सै । लाग्गै है- कोए चोर सै। पकड़ो . .... पकड़ ल्यो ....." कपिल चाणचक होए सोर तै डर ग्या । बोल्या, “मैं चोर कोन्यां । मैं | तो बाह्मण का छोरा सूं । भिक्सा लेण खात्तर राज्जा कै जां था ।" पहरेदारां नैं सोच्ची-अक, पकड्या गया तै भान्ने मिलावै सै। उननैं ओ पाकड़ के कैद मैं ढूंस दिया । आपणे आप नैं चोरां, डाकुआं अर बदमास्सां के बीच मैं देख के कपिल नैं आपणे ऊपर घणी-ए सरम आई। उसनें हट-हट के मां याद आण लाग्गी । सोच्चण लाग्या,-जिब लोग्गां तै उसनै बेरा पाटैगा, अक उसका छोरा कैदखान्ने मैं सै तै उसपै के बित्तैगी? भित्तर ऐ भित्तर उसने आपणे आप तै नफरत-सी होण लाग्गी । तड़का होया। राज्जा परसेनजित सिंघासन पै बैठे थे। मुजिरम पेस होण लाग्गे । कपिल का भी नंबर आया । सरम के मारे उसकी आंख आनंद का खुजाना/9 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धरती मैं गड्डन नैं हो रही थी। राज्जा नैं ओ देख्या तै सोच्ची, यो तै ऊंच्चे घर का छोरा लाग्गै सै । पर, बेरा न क्यूं यो पकड्या गया। न्यूं लाग्गै सै जाणुं गलती तै यो पाकड़ लिया हो । उसनें बूज्झ्या , “रै कुण सै तू? रात नैं के करै था?" ___“म्हाराज! मैं बाह्मण का सूं । मन्नै सुणी थी, आप सोन्ना दान कऱ्या करो। उस्सै खात्तर मैं रात नै लिकड्या था। आपके पहरेदारां नै मैं चोर सिमझ के पाकड़ लिया ।” कपिल नैं नरमाई तै जुआब दिया। राज्जा नैं फेर बूज्झी, “साच्ची बता, तू कुण सै? साच्ची बोल्लैगा तै छूट भी सकै सै। झूठ बोल्लैगा तै करड़ी सजा मिल्लैगी।" कपिल बोल्या,"म्हाराज । ऊ तै मैं चोर कोन्यां पर चोर सूं भी।” “के मतलब? न्यूं कूक्कर?” राजा नै फेर बूज्झी । "म्हाराज! मैं सुरगीय राजपुरोहूत कस्सप का छोरा सूं । आडै पडूढण आया था। पर ईब मन्नै पढणा छोड दिया । मन्नै आपणी मां अर नगर सेट तै अग्या लीए बिना उसकी दास्सी तै ब्याह कर लिया। या चोरी सै। इस नात्ते मैं चोर होया । अर मन्नें किस्से की कोए चीज नहीं ठाई, इस नात्ते मैं चोर कोन्यां होया । मैं जो कुछ कहूं तूं ओ राई-रत्ती साच सै ।” राज्जा के कपिल की बात्तां का यकीन आ ग्या। ओ बोल्या, “कपिल! मांग ले जो कुछ मांगणा हो। जो तू मांगेगा, मैं तन्नै ओ हे यूंगा । यो मेरा बचन सै ।" बाह्मण का सोच्चण लाग्या- राज्जा तै के मांगूं? जो मांगूंगा ओ हे राज्जा जरूर देगा । यो बचन से राज्जा का । कपिल नैं हिसाब लाणा सरू कऱ्या हरियाणवी जैन कथायें/10 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PO BATT OOON 111 AXO UNICEULUU Mig gut/11 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो मास्से सोन्ना तै थोड़ा रहेगा। दो तोले मांगूं । यो भी थोड़ा पड़ेगा, जिब्बै-ए उसके दमाग में आई। फेर ते दो सेर सोन्ना मांगणा चहिए,जुकर घणे दन ताई ठाट तै गुजारा चाल्लें जा । एक दन तै यो भी खतम हो ज्यागा, जाएं तै दो मण सोन्ना मांगणा ठीक रहेगा। ____ कपिल न्यू ए सोच्चें गया । आक्खर मैं ओ इस नतीज्जे पै पहोंच्या , मन्नै राज्जा तै पूरा-ए राज मांग लेणा चहिए । राज्जा आग्गै ओ आपणी बात कह्ण आला-ए था, अक उसके दमाग में बीजली-सी चिमकी! एक नई बात उसके जी मैं आई-कपिल तन्नै धिक्कार सै! तू इतणा गिर ग्या, जो राज्जा तन्नैं इनाम देणा चाहूवै सै, तू उस्सै नैं बरबाद करण की सोच्चण लाग या सै। धिक्कार सै मन्नै, अर धिक्कार से मेरे जी की तिरिस्ना फेर मैं के मांगू? कपिल सोच में डूब ग्या । उसके मूं पै एक रंग आंदा | अर चल्या जांदा। दूसरा रंग आंदा फेर तीसरा । चाणचक खुसी तै उसका मूं खिल ग्या । उन्नै सोच्ची-उमेद अर तिरिस्ना तै अकास की तरियां अनंत सैं । इनका कित्तै भी अंत कोन्यां । मांगण तै कदे झोली कोन्यां भरती। आदमी की तै आतमा मैं ए सब किमे सै। कपिल चुप रहया । राजा ने टोक्या, “जो चहिए ओ मांग ले । बोलबाला क्यूं खड्या सै?” फेर कपिल कण लाग्या- “म्हाराज ! जो मन्ने चहिए था, आज ओ मिल ग्या । मन्नैं आपणा आप्पा आड़े आ कै पिछाण लिया । मन्नें कदे भी जो ना सपड़े, आनंद का ईसा खुज्जाना मिल गया । ओ खुज्जाना सै हरियाणवी जैन कथायें/12 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आतम-ग्यान का । संसारिक धन ले कै ईब मैं के करूंगा?” न्यूं कह के कपिल नैं उस्सै टैम आपणे हात्थां ते आपणे बाला का लोच कर लिया । सब किमे छोड दिया । मुनी-धरम की दिक्सा ले ली। कई बरसां तांईं, करड़ा तप कऱ्या । आपणी आतमा सुद्ध बणा ली अर हमेस्सा खात्तर, तिरिस्ना अर मोह के कैदखान्ने तै छूट गया। उसनै केवल ग्यान हो ग्या, अर आक्खर मैं मुकती मैं गया। आनंद का खुज्जाना/13 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह्याल्लु राज्जा भोत पराणी बात सै | पुण्डरीकणी नां की एक नगरी थी । ओड़े के राज्जा थे- धरमरथ । वे न्यां करण आले, दया करण आले अर बहादर राज्जा थे । राज्जा के दो छोरे थे। एक का नां था- मेघरथ, दूसरे का थादृढ़रथ । दोन्नू छोरां मैं बाप के गुण थे। एक दन राज्जा नैं भरे दरबार में घोसणा करी- ईब मैं बूड्ढा हो लिया । राज-काज तै ईब मैं छूटणा चाहूं सूं । न्यूं सोचूं सूं अक, बचे होए टैम में धरम-करम करण की कोसिस करूं । संजम (सिन्न्यास) की राही चाल्लूं । दोन्नूं राजकमार लायक सैं । थम जिसनै कहो, उस्से नै राज्जा बणा दें।" राज्जा की बात सुण के दरबारी राज्जी हो गे। सारे कट्टे बोल्ले, "म्हाराज ! धन्न सै आपनैं । आच्छे राज्जा की या हे पिछाण होया करै । आपणे बालकां नैं काब्बल बणा दे अर बची होई जिन्दगी धरम-करम मैं बितावै । दोन्नूं-ए राजकुंवार तारीफ के लायक सैं । गद्दी देण की बात आई ते गद्दी का पहला हक तै बड्डे राजकुंवार का ए होया करै सै । या हे रीत सै । आग्गै जीसी थारी मरजी ।" "थमनैं सोला आन्ने ठीक राय दी सै | ईब गद्दी पै मेरी जंगा मेघरथ मैं ए बैठणा चहिए।" राज्जा नैं मेघरथ ताही राज्जा बणा दिया । परजा मेघरथ बरगे लायक न्यां करण आले अर मन के मुताबक राज्जा नैं पा कै निहाल हो गी । हरियाणवी जैन कथायें/14 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघरथ दन-रात परजा की भलाई सोच्चण मैं लाग्या रहंदा । उसका जी घणा नरम था। राजकाज मैं ओ लाग्या रैह्ता पर फेर भी बरत-बुरत, पोसा अर नित्त / नेम पालण में पाछै कोन्यां रह्या करता। परजा उसकी तारीफ मैं कह्या करती- “यो कीसा राज्जा सै ! सारे ठाठ-बाट सैं फेर भी साधुआं बरगा साद्दा अर सरल जीवन बितावै सै ।” एक बर की बात सै। राज्जा मेघरथ दरबार में बैठे किसे बात पै सोच-बिचार करें थे। चाणचक उनकी गोदी मैं एक कबूत्तर आ पड्या । कबूत्तर नैं बेबसी तै राज्जा कान्नी देख्या । राज्जा नैं सोच्ची अक कबूत्तर में आपणी जान का डर सै । बचता होया मेरे धोरै आया सै । मन्नै चहिए में इसनैं बचाऊं, अभैदान यूं । राज्जा नैं उसतै प्यार का । __कबूत्तर नैं जिब देख लिया अक आडै कोए खतरा नां सै तै ओ माणसां की ढाल बोल्या, "मेरे पाच्छै एक खतरनाक बाज लाग रया सै । ओ मन्नै मार के खाणा चावै सै । मेरे बरगे कमजोर पराणी में बचाओ । मेरी रिक्शा करो।" राज्जा बोल्या- मैं तन्नै सरण यूं सूं । तौं बेखटकै हो कै हो । जिब्बै-ए राज्जा नैं देख्या- एक बाज उड़दा होया आया अर स्याम्मी भींत पै बैठ ग्या । बाज नैं कही, "मेरा सिकार छोड़ द्यो । मैं कई दिनां ते भूक्खा सूं । मैं इन्नँ खाणा चाहूं सूं ।” राज्जा नैं स्यांती तै जुआब दिया, “आपणा पेट भरण खात्तर किस्से कमजोर पराणी की जान लेणा तै पाप सै। तमनैं हमेस्सां पाप ते दूर रैणा चहिए। ऊं भी यो कबूत्तर मेरी सरण मैं आया सै । मैं तै इस सरण मैं आए होए नैं बचाऊंगा। यो मेरा धरम सै।" यास्लु राज्जा/15 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाज नैं जुआब दिया, "राज्जा ! मन्नै थारी बड्डी - २ बात्तां तै के लेणा सै ? मन्नैं तै भूख लाग रही सै। आप मेरा खाणा मेरे तै सोंप यो । जै मैं भूख तै मर गया तै इस हत्या का पाप भी आप के ए लाग्गैगा । "थम इब्बै मेरी रसोई मैं चाल्लो। ओड़ै तरां तरां के पकवान बण रहे सैं, वे खा कै आपणी भूख मिटा लियो । ” बाज नैं कही, "मैं ते मांस खाण आला जीव सूं। थारी गेल्लां ओड़े जा कै के करूंगा ? मन्नैं ते कबूत्तर उलटा दे यो। इसनें खा कै ए मैं आपणी भूख मिटाऊंगा । " राज्जा नैं सोच्ची- मैं तै बड़े धरम संकट मैं फँस गया। कबूत्तर नैं ना बचाऊं तै यो बिचारा जान तै ज्यागा। कबूत्तर नैं ना छोड्डूं तै बाज भूक्खा मर ज्यागा ।" माड़ी वार वे सोच बिचार करदे रहे । फेर वे भित्तर-ए-भित्तर हांसे । उन नैं बाज तै कहीं, "थम कबूत्तर की जंगा मेरा मांस ले ल्यो ।” जिब्बै ए राज्जा नैं सेवकां के हाथ एक तराज्जू मंगाई । उन नैं एक पलड़े मैं कबूत्तर बिठाया अर दूसरे पलड़े मैं चक्कू ते आपणी देही का मांस काट-काट कै धरण लाग्गे । पर यो के ? राज्जा नैं आपणे सरीर का आधा मांस काढ़ के पालड़े पै धर दिया। फेर भी कबूत्तर आला पलड़ा ए भारी रहूया । राज्जा मेघरथ की देही जाणुं लहू मैं न्हाई होई बैट्ठी थी। ताक्कत घटती जा थी। फेर भी उन नैं धीरज ना छोड्या | आक्खर मैं राज्जा हिम्मत करकै पलड़े कान्नीं गए। अर वे आपणे आप पालड़े मैं जा के बैठ गे । भित्तर-ए-भित्तर उननैं संतोस था अक उनका सरीर एक कबूत्तर की जान बचाण मैं काम आण लाग रहूया सै । हरियाणवी जैन कथायें / 16 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NOSIN NURONOUN 110 DOW Leses കം മാംഗല enerererer 22LELO S ordeoner Trelles mood 390000 be NEX 54168 Tott/17 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दरबार के लोग यो सीन देख के हाहाकार करण लाग्गे । सब मैं मिल के राज्जा आग्गै हाथ जोड़े अक यो काम मतन्या करो । सबने कही"म्हाराज! यो बाज दुष्ट सै । हम इसनैं इब्बै ए मार के भजा देंगे ...... पर आप आपणे आप नैं कुरबान मत न्या करो। राज्जा आपणी बात तै कत्ती ए ना डिग्गे । उन नैं आपणे मरण का डर ना था। वे तै भित्तर -ए-भित्तर राज्जी थे, अक आपणी कुरबानी कर के वे एक पराणी की जान बचावै सैं। चाणचक ओडै एक देवता परगट होया। ओ राज्जा तै माफी मांगण लाग्या । पलक झपकतें ए सारा सीन बदल गया । राज्जा नैं अर सारे दरबारियां नैं देख्या, ओडै ना तै कबूत्तर से अर ना बाज । फेर राज्जा नैं आपणा सरीर देख्या तै बेरा ना क्यूकर उनका सरीर भी पहलां बरगा हो गया था । देवता नैं झुकते होए कही- 'म्हाराज ! मैं देवां की सभा में बैठ्या था । म्हारे राज्जा इंदर नैं आपके दया-भाव की घणी ए तारीफ करी थी। न्यूं कही अक सारी धरती पै मेघरथ बरगा दया करण आला ओर कोए राज्जा कोन्यां । मन्नैं यकीन-ए ना आया। मैं थारा हिंतान लेण खातर चाल पड्या । बाज का रूप धर कै, मैं आड़े आया था। ओ कबूत्तर भी मेरी माया थी। मन्– थारा हिंतान लिया। हिंतान मैं आप कत्ती खरे लिकड़े । साचें-ए आप जीस्सा दया करण आला इस दुनिया में दूसरा कोन्यां । न्यूं कहू कै ओ भी गैब हो गया। इस बात से राज्जा की बड़ाई चारूं कान्नी दूर-दूर ताईं होण लाग्गी । ___बाद मैं राज्जा मेघरथ जैन धरम के सोलहमें तीरथंकर भगवान् शांतिनाथ बणे। 00 हरियाणवी जैन कथायें/18 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाथ कूण सै पराणे जमान्ने की बात सै। मगध देस का राज्जा था-सरेणिक । दूर-दूर ताईं ओ घणा मस्हूर था। चारूं कान्नी उसकी जै-जैकार होया करती। उसकै घमण्ड हो गया था। उन्नै बाण पड़ गी, अक आपणे आग्गै किस्से की बात कोन्यां सुणनी । उस राज्जा नै हांडण मैं सुआद आया करता। एक बर सरेणिक हांडता-हांडता एक बाग मैं पहौंच गया । बाग घणा सुथरा अर हऱ्या-भऱ्या था। राज्जा ओडै माड़ी वार ठैर कै, अराम करणा चाहवै था। चाणचक बाग के एक कूणे तै महक आई, अर राज्जा नैं खींच के लेगी। ओ महक कान्हीं चाल्लण लाग्या । माड़ी दूर जा कै नैं उत्ती दीख्या-अक एक साधू आंख मीच कै ध्यान करण लाग रया सै । उसकी उमर पूरी ठेठ जुआनी की थी। उसकै मूं तें धरम का तेज चिमकै था। ईसे भोले, नीडर अर चिमकते होए मूं आले साधू नैं देख के, राज्जा पै घणा-ए असर होया । ओ उसके धोरै डिगर ग्या, अर ओडै-ए बैठ गया। _माड़ा-हा टैम बीत्या । जुवान साधू नै आपणी मीट्ठी हांसी तै राज्जा का दिल जीत लिया । राज्जा नैं बूज्झी, “मुनी जी..... थारी उमर तै साधुआं बरगी करड़ी ज्यंदगी बिताण के लायक कोन्यां । फेर थम नैं इस भरी जुवानी मैं साधू बणन की क्यां खातर सोच्ची?” साधू बोल्या, "राज्जा.... मैं के करता । मैं अनाथ था अर मेरा इस दुनिया मैं कोए भी कोन्यां था । साधू बणन के अलावा ओर मैं कर भी के सकू था?" अनाथ कूण सै/19 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरेणिक नैं साधू का जुआब जंच्या कोन्यां । भित्तर-ए-भित्तर दरद भी होया। सोच्चण लाग्या-मैं ते आपणे आप नैं घणा हे बड्डा राज्जा जाणूं था। मेरे राज में ईसे-ईसे माणस लाचार हो के, साधू बणे सैं । धिक्कार सै मन्नै अर मेरे राज-पाट नैं । सरेणिक नै कही-“मुनी जी! मैं थारा नाथ बणूं सूं । मैं थमनें लाचार कोन्यां रैहण यूं । थम यो साधू का बाणा छोड द्यो, अर मेरी गेल्लां महलां मैं चाल्लो । मैं थम नैं माल्ला-माल कर यूंगा ।” साधू नैं जुआब दिया, “जो आप्पै अनाथ होवै, ओ दूसरां का नाथ क्यूकर हो सकै सै?" या बात सुण कै राज्जा कै पतंगे लड़गे । बोल्या, “ईब ताईं तन्नै मैं| पिछाणा कोन्यां । मैं सारी दुनिया मैं मस्हूर राज्जा सरेणिक सूं ।" ___“मैं थम नैं आच्छी तरियां जाणूं सूं । ईसी बात कोन्यां अक मैं थम नै गौलता कोन्यां ।” साधू नैं कही। राज्जा नैं बूज्झ्या , अक “जाणै सै तै फेर में अनाथ क्यूकर ला लिया? मैं ते आपणी परजा का नाथ सूं अर कती लोह-लाट | कोए हला नहीं सकदा मेरी गद्दी नैं ।” | रै राज्जा! जिस गद्दी के घमण्ड में तू चौड़ा हो रह्या सै वा मरण के दुख नैं दूर कर सकै सै? तेरी धन-दोलत तन्नै बुढापे तै बचा सकै सै? तेरा कुणबा अर तेरी परजा तन्नें बेमार होण तै बचा सकै सै?" साधू नै बूज्झ्या ।' राज्जा धोरै इस बात का कोए जुआब ना था। ओ बोल-बाल्ला बैठ्या रया । हरियाणवी जैन कथायें /20 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ کا بنا [URL 1 AM ملايه رها (ما - م سخ Realno و یا از مهم Vestardian 3ata Fe 8/21 AWN Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "कोए टैम था, जिब मैं भी संसार की चिमक मैं बौला हो रहूया था। मेरै भी धन दोलत थी, नोकर-चाक्कर थे, किसे भी चीज की कमी ना थी पर एक दन.... साधू नै बात आद्धम छोड दी । ” "“ पूरी बात बताओ जी।” राज्जा नै बेनती करी । “एक दन मेरी आंख्यां मैं तकलीफ हो गी । दूर-दूर तै बैद बलाए । रपिया - पीसा घणा-ए लाया। मेरे मां-बाप, भाई- बाहूण, रिस्ते-नात्ते मेरी तकलीफ तै दुखी थे पर कोए मन्नैं ठीक नहीं कर सके । मन्नै मैसूस करूया, अक मैं अनाथ सूं मेरी तकलीफ तो किस्से के भी बस की कोन्यां थी । मन्नै न्यू लाग्या, अक इस दरद नैं कोए ओर ठीक कोन्यां कर सकदा । ऊसी हालत मैं, मैं कती अनाथ बरगा था। मेरे घर के भी अनाथ थे। मेरे जी मैं आई- एक यो सरीर तै खतम होणा सै। सब कुछ सै तै बस आतमा-ए सै । मन्नै सरीर का ध्यान छोड कै नै, आतमा का ध्यान करणा चहिए । न्यूं- ए सोच्चण लाग रहूया था अक मन्नैं नींद आ गी। मैं तड़कें उट्या । मेरी आंख्यां की बेमारी ठीक हो गी थी। फेर मैं आतमा की सच्चाई टोहूण खातर घर तै लिकड़ आया । अर साधू बण ग्या । ईब मन्नैं सच्चाई का बेरा काढ़ लिया सै । आतमा-ए नाथ सै। ओए साच्चा साथी सै। धन-दौलत अर मस्हूरी कदे किस्से के भी साच्चे हमदरद कोन्यां होए। जै मेरी बातां तै थम नैं तकलीफ होई हो तै मन्नै छिमा करियो ।” न्यूं कह के साधू चुप्प हो गे । राज्जा सरेणिक का सारा नसा झड़ लिया था। ओ हाथ जोड़ कै बोल्या, “आज तै मैं आपणे-आप नैं घणी किसमत आला जाणूं सूं । थम नैं मेरी आंख खोल दी ?" न्यू कह के राज्जा साधू के पायां मैं पड़ गया । साधू तै ग्यान ले के सरेणिक उलटा आया। उस दन तै ओ धरम नैं मान्नण आला अर दया करण आला बण ग्या । ग्यान देण आले उस साधू का नां अनाथी मुनि था । हरियाणवी जैन कथायें / 22 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छिमा की मूरत राजगीर मैं एक माली रह्या करदा । उसका नां अरजन था। नगरी तै बाहर उसका एक सुथरा-सा बाग था । उसमें भांत-भांत के घणे-ए फूल खिल्या करदे | माली उन फूलां नै बजार मैं बेच के आपणा गुजारा कर्या करता। बाग मैं एक देवतै का मंदर भी था । माली नित्त नेम उसकी पूज्जा कऱ्या करता । देवतै का नां था- मुद्गरपाणी । उसके हाथ में हर टैम मोदगर रड्या करता। जाएं तै उसका नां मुद्गरपाणी पाक ग्या था । सरू तै ए माली उस नै आपणा दाद्दालाही देव मान्या करदा, अर पूज्या करता । एक बर की बात सै । छै दुसट आदमी उसके बाग मैं बड़गे। माली आपणी घरआली गेल्लां फूल कट्टे करै था। माली की घरआली का रूप देख कै दुष्टां के जी मैं पाप आ गया। उनका जी कऱ्या, अक इसकी घर आली नैं कितै ले चाल्लैं । ___माड़ी वार पाछै माली देवतै की पूज्जा करण खात्तर मंदर मैं गया । दुष्टां नै ओ ओडै-ए पाकड़ लिया, अर जेवड़ी गेल्यां जूड़ दिया। फेर उसकी घर आली ते मूंडा ब्योहार करण लाग गे । न्यूं देखकै माली का खून उबाला खा ग्या । उसनैं जेवड़ी तै छूट्टण की घणी-ए कोसिस करी पर ओ छूट ना सक्या । जिब माली की कोए पार ना बसाई तो उसनै देवता याद कऱ्या । भित्तर-ए-भित्तर कही, अक, “तेरी आंक्खां आग्गै मेरी घर आली गेला दुसट छिमा की मूरत/23 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यो मूंडा ब्यौहार करण लाग रहे सैं, अर तू बोलबाला लखावै सै? कै साल तै मैं तन्नें पूज्जण लाग या सूं । फेर भी तू मेरी घर आली का पांडा इन दुसटां तै नहीं छुटवा सकदा । तेरे देवता होण का, अर कई बरस तै तन्नै पूज्जण का, मन्नें के फैदा होया? जै तेरे भित्तर सक्ती सै तै तू मन्. सकती दे जिस” मैं आपणी घर आली नैं बच्या सकूँ, अर इन दुष्टां नै इनकी करणी का सुआद चखा यूं ।” न्यू कहते-ए ओ देवता माली के सरीर मैं बड़ गया। बड़तें-ए उसके सरीर मैं बेतदाद ताकत आ गी । अंगड़ाई लेंदे-ए जेवड़ी टूट गी। माली छूट गया । गुस्से मैं भर के उसनैं ,दे मोद्गर अर दे मोद्गर, वे छैऊं दुसट अर आपणी घर आली मार गरे । गुस्सा इतणा ठाड्डा था अक माली हमेस्सां खात्तर बैहक ग्या । उसके सामी जो कोए आत्ता उस्सै नैं ओ मार देंदा । ईब यो उसका रोज का-ए काम होग्या । उसनैं कसम खा ली-आए दन मैं छह मरदां नैं अर एक लुगाई नैं जरूर मारूंगा। सारी नगर मैं रोहा-राट माच ग्या । राज्जा नैं चिन्ता होई । राज्जा सरेणिक नैं आपणे करमचारियां ते या सिमस्या हल करण की कही,पर कोए भी कामयाब कोन्यां होया । फेर यो फैसला होया-नगर के कुआड़ दन-रात बंद राक्खो, जिस” अरजन माली नैं नगरी मैं बड़ण का ए मोक्का ना मिल्लै । राज्जा के हुकम तें नगर के कुआड़ मार दिए । अर न्यू करदे- करदे छह महीने बीत गे । करम कर के, एक दन भगवान महावीर ओडै पधार गे। नगर के बाहर वे बाग मैं ठैर गे। ओ बाग राज्जा का था । नगरी के लोग्गां नैं बेरा पाट्या तो सबनें बंदना करण की सोच्ची पर अरजन माली के भै तै किस्से की भी नगरी के बाहर जाण की हिम्मत कोन्यां पड़ी। सबनें घरां हरियाणवी जैन कथायें/24 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CARATUI Vicet 50 o 말말 f/25 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैट्ठे-बैठे, भित्तर-ए-भित्तर भगवान महावीर आग्गै हाथ जोड़ लिए। उस नगरी मैं भगवान का एक भगत रहूया करदा । उसका नां थासुदरसन । उसने मां-बाप तै कही, “मैं भगवान महावीर के दरसन करण जाऊं सूं । मन्नैं आग्या दूयो ।” न्यूं सुण कै मां-बाप नैं उसतै अरजन माली के खतरनाक कारनाम्मे बताए, अर उस ते घरां-ए बैटै रैहूण की रै दी । सुदरसन नैं कही, “भगवान महावीर पधारें अर मैं उनके दरसन ना कर कैं, घरां-ए पड्या रहूं, या मेरे बस की बात कोन्यां । चाहे मन्नैं मरणा पड़ै पर मैं भगवान के दरसन करण जरूर जांगा ।" न्यूं कहू कै ओ बाग कान्नीं चाल पड्या । अरजन माली नैं सुदरसन आता दीख्या । उसनै मोद्गरा तणा लिया । सोच्चा- घणे दन पाछे यो सिकार हाथ आया सै । ओ आग्गै चाल्या । सुदरसन नैं अरजन आंदा दीख्या । ओ सिमझ ग्या, ईब मुसीबत आण आली सै। इस टैम भगवान का सुमरण करणा चहिए । फेर सुदरसन जमीन पै पलोथी ला कै बैठ गया । उसनें ओड़े तै- ए भगवान महावीर की बंदना करी/अर भित्तर-ए-भित्तर नमोक्कार मंतर पडूढण लाग्या । उसके भित्तर पहाड़ बरगी शान्ती थी । गुस्से मैं भर के हाथ मैं मोद्गर तणाएं अरजन तौला - सा ओड़े-ए पहोंच लिया । उसने सुदरसन पै मोद्गर खैच के मारण की कोसिस करी, पर देक्खो ताज्जब की बात.... अरजन का हाथ हवा मैं-ए थम गया। पहल्यां तैं न्यूं कदे ना होई थी । उसनें आपणी पूरी ताक्कत अजमा ली पर सुदरसन कै मोद्गर लाग्या कोन्यां । आक्खर मैं अरजन माली के सरीर मैं जो देवता बड़ रहूया था, उसकी ताक्कत धरम की मूरत बणे होए सुदरसन के आग्गै हीणी हरियाणवी जैन कथायें / 26 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पड़गी । देवता अरजन माली नैं छोड के चाल्या गया । माली बेहोस हो के ढे पड्या । सुदरसन नै ध्यान खोल्या।जमीन पै पड्या होया अरजन ठाया । अरजन नैं जिब होंस आई ते आपणी आंक्खां आग्गै सुदरसन के रूप में धरम-ए खड्या दीख्या । उसनें सुदरसन तै बूझी, “थम कुण सो? कित रहो सो?" सुदरसन नैं जुआब दीया, “मैं एक जैन सरावक सूं । राजगीर मैं रया करूं सूं । ईब भगवान महावीर के दरसन करण जां सूं ।” अरजन के मन मैं ख्याल आया- जिन का भगत इतणा पहोंच्या होया सै, अर उस तै देवता की ताक्कत भी हार गी, तै उसके गरू कितणे पहोंच्चे होए होंगे। हुमाये मैं भर के उसनैं बूज्झ्या -“मैं भी भगवान महावीर के दरसन कर सकू तूं के ?" “हां....हां! कर क्यूं ना सकै! चाल मेरी गेल्लां ।” सुदरसन बोल्या, "भगवान महावीर सब नैं सरण दिया करें सैं । वे तेरा भी किल्लाण करेंगे ।” फेर अरजन नैं ले कै सुदरसन भगवान महावीर के चरणां मैं गया। दूर-दूर के लोग्गां नैं यो चिमत्कार देख्या। सुदरसन के ब्योहार तै अरजन क्यूकर बदल ग्या, सारे या बात जाणना चाह्वै थे। वे भी सारे-के-सारे भगवान महावीर के चरणां मैं पहौंच गे। भगवान नैं अरजन माली तें अर ओडै कट्ठे होए सारे लोग्गां तें धरम की बाणी सुणाई । भीड़-ए-भीड़ “भगवान महावीर की.........जै' के नारे लाण लाग्गी अर जै-जैकार तै चारूं दिसा गुंजा दी । आए होए लोग आप-आपणे घरां नैं चाले गए । अरजन नैं भगवान तै बुज्झ्या , “भंते! मेरे छिमा की मूरत/27 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरगे पाप्पी अर हत्यारे का भी कदे किल्लाण हो सकै से? मन्नै तै छह म्हीनां मैं हजारां माणस अर लुगाई मारे सैं । " "हां! हो क्यूं ना सकदा ।” परभू नैं समझाया, “देख अरजन, जो बीत ग्या उसका पच्छाताप कर्या अर आगे तू आपणी अगत नैं सिम्भाल ले । आपणे मन मैं रैहूण आले किरोध राक्सस नैं हटा कै, उसकी जंगा धरम नैं भित्तर बसा ले । तेरा किल्लाण जरूर हो ज्यागा । " अरजन नैं भगवान के चरणां मैं मुनी - दीक्सा ले ली। ईब ओ नरमाई, दया अर अहिंसा की खान बण ग्या । छह महीने ताईं अरजन मुनी नैं करड़ी तिपस्या करी । तिपस्या के टैम घणे-ए माणसां नैं उस तै भांत भांत के दुख दीये पर अरजन मुनी आपणी राही ते हटे कोन्यां । वे धरम अर छिमा की मूरत बण ग्ये । एक दन उन नैं केवल ग्यान भी हास्सल हो गया । उनकी आतमा संसार के जनम-मरण तै गी। छूट हरियाणवी जैन कथायें / 28 fret Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोहिणिया चोर मगध देस की राजधान्नी राजगीर मैं रोज-रोज चोरी होया करती । कद्दे किसे कै, कद्दे किसे कै । ओड़े के लोग घणे दुखी हो रे थे। सब तै घणे दुखी थे-ब्योपारी । ब्योपारी जिब छिक कै दुखी हो लिए तो उन नैं एक दन राज्जा सरेणिक आग्गै पुकार करी-“म्हाराज! हम तै चोरियां नै खा लिए। पहलां तै ईसी चोरी ना होया करती। चोर सारा माल ठा कै ईसे भाज्जै सैं, अक टोहे कोन्यां पाते । इतणे ऊत सैं, अक आपणा एक भी निसान कोन्यां छोडदे, कदे कोए माड़ा-मोट्टा बेरा-ए काढ़ ले । जै ये चोरी न्यूं-ए होती रही, तो एक दन हम सारे के सारे मंगतां की तरियां, गाल्लां मैं भीख मांगदे हांडेंगे।" या बात सुणकै राज्जा नै ताज्जब होया। भितर-ए-भित्तर ओ सोचण लाग्या- मेरे दरबारी ते गाते-गाते कोन्यां छिकते, अक परजा मोज ले रही सै। किस्सै नैं सूई जोड दुख भी कोन्यां । कोए तै ईसा होंदा जो साच्ची बतांदा । आडै तै सारे कुएं में ऐ भांग पड़ ही सै। राज्जा नैं ब्योपारी समझाए । उन तै चोरां नैं पकड़ण की तसल्ली दी | ब्योपारी चले गए। ब्योपारियां के जाते हैं राज्जा नैं सहर का कोतवाल बलाण खातर, आपणे एक नोकर हाथ हुकम भेज्या । हालों-हाल दरबार में हाज्जर होण का हुकम सुण कै कोतवाल की फूंक सरक गी । लत्ते-कपड़े पहर कै नैं ओ जिब्बै ऐ भाज्या । राज्जा धोरै पहोंच्या । राज्जा नैं उस तै ब्योपारियां की चोरी बाबत सुआल बूझे । रोहिणिया चोर/29 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोतवाल बोल्या, "म्हाराज! चोरी रोकण खातर मन्नैं तो आपणी ओड़ तै पूरा-ए हांगा ला लिया। ओ चोर इतणा ऊत अर चात्तर सै अक थ्यांदा - ए कोन्यां । ईब मेरे मैं इतणी ल्याकत कोन्यां रही मैं उस नैं पाकड़ ल्यूं । मेरी ते या रै सै अक किसे ओर जणे तै मेरा काम सोंप यो । आग्गै थारी राज्जी सै । " न्यू सुण कै राज्जा सोच्चण लाग्या । कोतवाल ते उसने ओर बात भी बूज्झी। उन्नै बताया अक "लौहखुर का पोता रोहिणिया (रोहिणेय) ए सै जो यो करम करै सै। घणी कोसस कर ली म्हाराज पर किस्से तरियां भी ओ थ्याता कोन्यां । ” राज्जा आपणे दरबार कान्नीं देखण लाग्या । जाणुं बूझता हो- सै कोए जो उस नैं पाकड़ ले । सब की सिकल देखते-देखते राज्जा की नजर आपणे मंतरी अभै कुवार पैटिक गी । ओ बोल्या, “रे अभैकुवांर! मन्नै उम्मेद सै, तू उस नैं पकड़ण मैं कामयाब हो सकै सै। तू-ए आपणी अकल अर हुस्यारी दिखा। ईब या तेरी जुम्मेवारी सै अक तू रोहिणिय नैं पकड़े। ” अभैकुवांर राज्जा के हुकम तै चोर नै पकड़ण की नई-नई तरकीब सोच्चण लाग्या । कोसस करण ल्याग्या । रोहिणिया भी उस तै घाट्य कोन्या था । गाड्डी की गाड्डी अकल ले रहूया था। ओ मंतरी नैं भी कोन्यां ध्याया । करण खातर लिकड्या । ओड़ै राक्खे थे । वे रोहिणिये कै पाछै सार्यां तै आंख-मिचाई देता होया एक बर रोहिणिया राजगीर में चोरी अभैकुवांर नैं पहल्यां तैं पहरेदार बिठ्या कै लाग लिए, पर ओ तै उनका भी गरू था। हरियाणवी जैन कथायें / 30 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ww الله Ved Arrow रोहिणिया चोर/31 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओ भाज लिया। राजगीर की गाल्लां मैं कै लिकड़ता होया ओ जंगल कान्नी भाज्या जाण लाग रया था। राह में भगवान महावीर की वाणी दुनिया बैट्ठी सुणै थी। सूक्खे धान्नां पै धरम का पाणी एक सांस बरसै था । - रोहिणिये नै दूर तै-ए भगवान देक्खे । चाणचक उस के एक बीत्ती होई पराणी बात याद आ गी। उसके दादा लौहखुर नैं मरती हाणां कही थी अक “दखे तू कद्दे भी साधू-महात्मां धोरै सत्संग में मत न्या जाइये । अर उनकी बात कद्दे सुपने में भी मत न्या सुण लिए । म्हारा दादा-लाही काम चोरी सै अर यें चोरी करण तै हटावें सैं ।" उसकै ओर भी याद आई- उसने दाा आग्गै कद्दे भी सत्संग ना सुणन का बचन भर लिया था। ये सारी बात याद करकै रोहिणिये नैं आपणे कान्नां मैं आंगली ट्रंस ली अर आपणा मूं उंघे ते फेर लिया जित भगवान की बाणी होण लाग री थी। पहरेदार पाछै लाग रहे थे जाएं तै ईब भी ओ भाज्या जा था । चाणचक उसके पां मैं एक कांडा चाल ग्या । कांडा ईसा चाल्या , उस तै आग्गै ना भाज्या गया । कांडा काढण खात्तर उसनै कान्नां मैं तै आंगली काड्ढ़ी। जिब्बै-ए उसके कान्नां मैं भगवान महावीर की बाणी पड़गी। उसनै सुणी- “देवां की छांह कोन्यां पड़ती। उनकी आंख कोन्यां झिपकती। उनके गले में पड़ी माला कद्दे ना मुरझांदी अर उनके पां भी धरती पै कोन्यां पड़ते ।” रोहिणिये नैं कांडा काढ्या अर भाजण मैं कामयाब हो ग्या । सहर मैं चोरी कोन्यां थम्मी । होंदी-ए रही। रोहिणिये नैं पकड़ण खात्तर मंतरी अभैकुवांर नै एक नई सकीम बणाई । उन्नैं बेरा पाट्या अक रोहिणिया राजगीर की सब तै सुथरी पेस्सा करण आली, रण्डी धोरै जाया हरियाणवी जैन कथायें/32 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IN AMAVAN KWANIOVIEAM AMMADIRALA रोहिणिया चोर/33 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करै सै । ओडै अभैकुवांर नैं आपणा जाल बिछ्या दिया। उस लुगाई ते सारी बात समझा कै चोर पकड़ावण की कही । आधी रात नैं रोहिणिया रण्डी के घरां पहोंच्या । ओड़े उसकी घणी• ए खातर होई। उस तै घणी ए सराब प्या दी। करड़ा नसा हो गया उसके । अभै कुवांर की सकीम के मुताबक रण्डी अर उसके नोकर-चाकरां नैं देवां बरगा भेस बणा के,रोहिणिया घेर लिया। उसनै जिब माड़ा-सा होस आया तो सारे उसकी जै-जै कार करण लाग गे । उनमें से एक नौकर जो देव बण या था, उस तै बोल्या "हे देवता ! थम नैं आड़े देवलोक मैं देख के हम घणे-ए राज्जी होए। थम नै घणे-ए पुन्न कर राक्खे थे जो मरें पाछै देवता बण गे। आड़े का रिवाज सै अक जो कोए देवता बणै सै, ओ आपणे पाछले जनम का किस्सा सुणाया करै सै । थम भी तावले से सुणा द्यो । इंदर म्हाराज भी आड़े आण आले सैं । रोहिणिये की आंख खुल्ली। ओ हैरान रह गया। बड़बड़ाण लाग्या, "मैं सुरग मैं कित तै आ गया ? कदे यो सुपना दीखता हो !" न्यूं सुण कै देवी-देवता बणे होए नौकर-चाकर बोल्ले, “हे देव ! थारा जनम इस सुरग मैं होया सै। थम म्हारे मालक बणे सो। हम सारे थारा पाछला जनम सुणना चाहूवें सैं ।” न्यू सुण के रोहिणिया चारूं कान्नी लखाया । जिब्बै-ए उसकै वा बात याद आ गी जो उस नैं भगवान महावीर तै न्यूं-ए सुण ली थीं। ओ याद करण लाग्या, अक भगवान महावीर बता थे- देवी अर देवां की माला कद्दे भी मुरझाती कोन्या । उनकी आंख भी कोन्यां झपकती। उनके हरियाणवी जैन कथायें/34 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीर की परछाईं भी कोन्यां होती । उनके पां भी धरती पै कोन्यां टिकते । आड़े ते सारे ए काम होण लाग रहे सैं। न्यूं लागे से ये सारे मन्नै फंसाणा चाहूवै सैं। न्यूं सोच कै ओ खड़ा हो लिया, तलवार सिंभाल ली । कड़क कै बोल्या, “मैं थारी सकीम आच्छी तरियां जाण ग्या । थम के मेरा कुछ बिगाड़ सको सो ।" न्यूं कहते-एं रोहिणिया ओड़े तै लिक्कड़ लिया । मंतरी बेचारा लखांदा रै ग्या। उन्हें सोच राक्खी थी - पाछले जनम का किस्सा कैती हाणा ओ जिब कैगा अक मैं चोर था तै हम उसने पाकड़ लेंगे। उसकी सकीम पै पाणी फिर ग्या । थोड़े दन पाछै एक दन एक जुआन राज्जा सरेणिक के दरबार मैं आया । राज्जा तै जैराम जी की करी । बोल्या, “म्हाराज ! मैं ओ चोर सूं जिस तै दुनिया डरै सै अर आज ताईं जिसनें कोए पाकड़ ऐ ना सक्या । मन्नै चोरी कर-कर कै घणा-ए धन कट्ठा कर राख्या सै। ओ मैं आपणे धोरै कोन्यां राखणा चाहूता । वैभार नां के पहाड़ की गुफा मैं तै थम उसनै मंगा ल्यो । राज्जा सुण कै अचम्भे मैं पड़ ग्या बोल्या - रै जुआन न्यूं कूक्कर ? के नां सै तेरा ? जुआन बोल्या- मेरा नां रोहिणिया सै । मरती हाणां मेरे दादा नैं मेरे तै कही थी अक साधुआं तै दूर रहिये पर एक दन मैं चोरी करके भाज्या जाण लाग रहूया था। चाणचक मेरे पां मैं कांडा चाल ग्या । मैं उसने काढण लाग्या । जिब्बै ए मेरे कान्नां मैं भगवान महावीर की बाणी पड़गी अक देवां की माला मुरझाती कोन्यां ना उनकी आंख झिपकती, ना परछाईं पड़ती। उनकै पसीना भी नहीं आता । धरती तै वे ऊपर रहूया रोहिणिया चोर / 35 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करें । मन्नै इन बात्तां पै किम्मे ना ध्यान दिया । आग्गै चाल पड्या । उस दन थारे मंतरी अभैकुवांर नै आपणी सकीम बणा कै मेरे तै फंसाण की कोसिस करी पर भगवान महावीर की उस बात नै मैं बचा लिया । जिब उनकी एक बात मेरे बरगे पुआड़े करण आले नैं बचा सकै सै, तै उनकी बाणी ते आदमी की सारी-ए जिंदगी का बेड़ा पार ला सकै सै । मैं आपणे पुआड़ां की सजा लेण खात्तर थारे दरबार मैं आपै-ए-आप आ गया। ईब थम नैं इख्त्यार से । मन्नै मेरे करमां की पूरी-ए सजा द्यो ।” रोहिणिये की इन बात्तां पै सहज्जै-सी किसे नै यकीन कोन्यां आया । पर, ओ आप्पै- ए सारी बताण लाग रहा था । जाएं तै या झूठी भी ना हो सकै थी। सारे उस चोर की तारीफ करण लाग गे। राज्जा बोल्या, “तू चोर कोन्यां । पहल्यां कदे चोर रह्या होगा। ईब तै तन्नैं आपणी गल्ती मान कै नैं आपणे सारे पाप धो दिए। यो तन्नैं तारीफ जोगा काम कर्या । जा ......... मैं तन्नें अजाद करूं सूं ।” उस दिन तें रोहिणिया कती बदल ग्या । फेर ओ भगवान महावीर के चरणां मैं पहोंच्या अर साधू बण 'ग्या । हरियाणवी जैन कथायें/36 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुथराई का घमण्ड एक बर इंदर म्हाराज नैं देवत्यां की पंच्यात मैं एक बात कही-“इस टैम धरती पै सनत्कुमार चक्करवरती बरगा राज्जा कोए दूसरा कोन्यां । उसकी हिम्मत का, धन-दौलत का, धीरज का अर अकलमंदी का मुकाबला कोए कर नहीं सकता। सब तैं बड्डी बात या सै अक ओ जितणा सुथरा जुआन सै, उतणा तै देवत्यां मैं भी कोए सुथरा कोन्यां ।” न्यूं सुण के सारे देवता सनत्कुमार की घणी-ए बड़ाई करण लाग गे। ओडै दो देवता इसे थे, जिन पै सनत्कुमार की इतणी बडाई बरदास कोन्यां होई। उनके नां थे विजय अर वैजयन्त । दोनूं ऊठ के खड़े हो गे । बोल्ले,"म्हाराज ! थारी बात पै हाम नै सक सै। धरती तै घणी-ए लाम्बी-चौड़ी सै। फेर थामनै एकले सनत्कुमार की तारीफ मैं ओड बड्डी-बड्डी बात क्यूकर कह दी ? अर ओ देवत्यां तै भी घणा सुथरा सै या बात म्हारी सिमझ मैं कोन्यां आई। जो थारी इजाजत हो तो हम सनत्कुमार का हिंतान ले के देखें?" इन्दर नै होट्ठां भित्तर हांसते होए उन दोनुआं तै सनत्कुमार का हिंतान लेण की छूट दे दी। दोन्नूं देवां नै बुड्ढे बाह्मणां का भेस भऱ्या अर चक्करवरती सनत्कुमार की राजधानी हथनापुर मैं पहोंच गे। महल में बड़न लाग्गे तै पहरेदार नैं टोक्के, “महल मैं थम क्यूं बड़ो सो? किस तै के काम सै?" बाह्मण बोल्ये – “हम चक्करवरती सनत्कुमार के दरसन करणा चाहवें सें ।” “थम नैं माड़ी वार आड़े-ए डटणा पड़ेगा। म्हाराज तो इब्बै न्हाण सुथराई का घमण्ड/37 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाग रे सैं।” पहरेदारां नै जुआब दिया । "रे भाई! दखे हम तै बूढे बाह्रमण सैं । म्हारा टैम भी लवै-ए आ रहूया सै। के बेरा कद गिरड़ ज्यां! मरण तै पहल्यां राज्जा नै देख लैण दे । तेरा के बिगड़े से ?" पहरेदार नैं वे ओड़े-ए थाम दिए अर आप राज्जा धोरै गया । बूड्ढे बाहूमणां की बात बताई । राज्जा मटणा ला कै न्हाण आला था । बोल्या, “दोनूं बाहूमणां नै इज्जत ते आड़े ए लीआ । " पहरेदार नैं दोन्नूं महल मैं भेज दिए। राज्जा नै बूझी अक क्यां खात्तर आए? बाहूमण बोल्ले, "म्हाराज! जिस रूप की बड़ाई हाम नैं सुणी थी, दुनिया के लोग लुगाई जिस की बड़ाई करदे होए कोन्यां छिकदे, आज ओ रूप देख के हम धन्न हो गे । " न्यू सुण कै सन्त्कुमार मैं घमण्ड आ ग्या । ओ घमण्ड मैं भर कै बोल्या - "ईब्बै थम नैं के देख्या सै, जिब मैं गहणे-कपड़े पहर कै.. दाऊं जंच कै दरबार मैं जाऊंगा, जिब मेरी सुथराई देखियो । देखते-ए रै ज्याओगे । ” बाहूमण उलटे चले गए। दोन्नुआं नैं फैसला कर्या अक राज्जा नैं दरबार मैं देखेंगे । माड़ी वार पाछै बाहूमण दरबार मैं पहोंच गे । राज्जा सनत्कुमार गहणां-कपड़ां तै सज्या-धज्या इतना सुथरा लाग्गै था जाणुं कामदेव की मूरती धरी हो । ओ रूप देख कै आंख सहजै -सी छिक्कैं-ए ना थीं । बाहूमणां तै राज्जा नै कही अक “क्यूं पंडज्जी! जीसा मन्नैं बताया था, ऊसा-ए सै ना मेरा रूप ?" हरियाणवी जैन कथायें / 38 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (cere छा सुथराई का घमण्ड / 39 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यू सुण कै बाहूमण राज्जी कोन्यां होए । बोल्ले, "म्हाराज! पहल्यां जो रूप देख्या था उसमें नरोगता थी अर बनावट भी ना थी। पर ईब तै यो रूप बनावट नै घेर राख्या सै । ईब ओ रूप कोन्यां जो पहल्यां था । " राज्जा इस जुआब नैं सुण कै हैरान होया । बोल्या, “पर मेरा सरीर तै ओ-ए सै । फेर थम ईसी बात क्यूकर कहो सो ?” “ईब थारा सरीर बेमारियां का घर हो लिया सै। जै अकीन ना आता हो तै थम माड़ी वार पाछै आप-ए देख लियो । सच्चाई का बेरा पाट ज्यागा । " राज्जा नैं बाहूमणां की बात्तां पै कती इतबार कोन्यां आया । फेर भी भित्तर-ए-भित्तर सोच्ची-माड़ी वार देख ल्यूं । इसमें मेरा के जा सै ? राज्जा बोल-बाला बैठ गया । माड़ी वार पाछै राजा नैं आपने हाथ पां देखे तै सरम की मारी उसका सिर तले नैं हो गया। सारा सरीर काला पड़ लिया था । सुथराई बेरा ना कित चाल्ली गई थी। राज्जा के कोढ़ फूटूयाया था। किस्से नैं भी राज्जा के सरीर की इस हालत पै यकीन कोन्यां होवै था पर सच्चाई तै सच्चाई -ए थी । राज्जा नै आपणा सरीर आच्छी तरियां देख्या । यो ओ हे सरीर था जिसकी बड़ाई करते-करते दुनिया बौली हो लिया करै थी। आज उस्से सरीर मैं कै बांस आण लाग री थी । कोए बड़ाई करण तै दूर, उसके कान्नी लखावै भी ना था । बाहूमण चले गये । सनत्कुमार नै जिब्बै- ए ग्यान होया अक, जिस सुथराई पै मन्नै घमण्ड था, आज वा हे बदलगी। जुकर यो सरीर भी मेरा कोन्यां होया न्यूं-ए या दुनिया भी कदे किस्से की ना होती । उसका भित्तरला उसनें बार-बार बिरागी बणन नै कैहू था । हरियाणवी जैन कथायें / 40 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज्जा नैं हाल्लो-हाल फैसला कर्या- “ईब मन्नैं राज-पाट छोड़ कै साधू बणना सै”। उस नैं जिब्बै-ए राज छोड्या अर जंगल की राही पकड़ ली । ईब ओ साद्दू बण ग्या । उसके शरीर मैं रोग फैलता - ए चल्या गया । कष्ट भी बढ़ता - ए चल्या गया पर तिपस्या की राही तै ओ माड़ा सा भी कोन्यां डिग्या । आपणे धरम-ध्यान मैं लाग्या रहूया । उस नैं घणी - ए सिद्धी मिल गी । घमण्ड उस तै घणा दूर था । ना कद्दे उसनै बेमारियां की चिन्ता करी अर ना कद्दे आपणी सिद्धियां पै घमण्ड कर्या । उसकै तो बस एक -ए धुन थी - केवल ग्यान हासिल करणा सै । देवां के राज्जा इन्दर नैं देख्या - सनत्कुमार मुनि करड़ी तिपस्या करण मैं लाग रे सैं । इन्दर नै फेर आपणी सभा मैं सनत्कुमार की तिपस्या की घणी-ए बड़ाई करी । विजय अर वैजयन्त नाम के देवां नैं फेर सक कर्या अर फेर सनत्कुमार का हिंतान लेण लिकड़ लिए। दोन्नूं देवां नैं ईब कै बैद का भेस बणाया। सनत्कुमार मुनी धोरै पहोंचे । उन तै रोग का इलाज करण की कहण लाग्गे । मुनी सनत्कुमार तो समता धारे बैट्ठे थे । सरीर की उन नैं माड़ी सी भी परवा ना थी । बैद बार-बार कहण लाग्गे तै वे बोल्ले, “सरीर के रोग दुआइयां तै ठीक हो सकैं सैं पर करमां के रोगां नैं दुआई के ठीक कर सकै सै ?" बैद चुप हो गे । उनके धोरै करमां के रोग्गा की दुआई थोड़े ए धरी थी जो मुनी जी तै दे देंदे ? बैदां की सिमझ मैं कुछ भी ना आया । मुनी जी ने आपणे मूं मैं आंगली दी । आंगली पै लाग्या थूक सनत्कुमार मुनी नैं आपणे सरीर पै लाया तै जादू सा हो गया। ईब सरीर सोन्ने बरगा हो लिया था । बैद हैरान रहूगे। उनके मन के सुआलां का जुआब देंदे होए, मुनी जी कहण सुथराई का घमण्ड / 41 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाग्गे, “सरीर के रोग मेट्टण खात्तर तै मेरे धोरै घणी-ए सिद्धी सैं । पर सरीर तै मेरा कोए भी मतबल कोन्यां । यो बेमार है अक ठीक है, मन्नैं के! मैं आत्मा पै चड्ढा होया करमां का मैल धोणा चाहूं सूं । या तो मेरी कमअकली थी अक ईब ताईं मैं सरीर के रूप नैं -ए देखदा रहूया । " मुनी जी की या बात सुण कै बैद सिमझ गे-यो मुनी आपणे बरतां तै डिग्गै कोन्यां । वे देवलोक में पहोंचे। इन्दर तै माफी मांगते होए बोल्ले, "म्हाराज ! थमनैं सनत्कुमार मुनी की बाबत जो कहूया था, ओ हम आपणी आंख्यां तै देख आए । साच्चें -ए उनकी जिनगी धन्न सै। ईब है उनमें सरीर के रूप की इच्छा भी कोन्यां । वे तै आतमा की सुथराई हासल करणा चाहूवैं जै ईसी-ए तिपस्या वे करते रहे तै जरूर कामयाब होवेंगे । " ओड़ै जो ओर देव बैठे थे, उन नैं भी भित्तर-ए-भित्तर मुनी सनत्कुमार के साच्चे अर मजबूत बरतां की बडाई करी अर ओड़े तै- ए उनकी बंदना करी । सैं । हरियाणवी जैन कथायें / 42 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साद्धू का सतसंग राज्जा था केकय देस का राज्जा था- परदेसी । उसके पड़ोसी देस कुणाल का जितसतरू | दोनूं राज्जा आपस में ग्रे अर करड़े ढब्बी थे। दोन्नुआं की सोच - सिमझ मैं अर उनके बिचारां मैं घणा-ए फरक था । राज्जा परदेसी जिद्दी अर घमण्डी था । धरम-करम नैं जाण्या ना करदा अक यो भी किम्मै चीज हो सै । जितसतरू सरल सुभा का अर सूधा माणस था । धरम के काम्मां मैं उसकी पूरी दिलचस्पी थी । - जो कोए इन दोनुआं के मित्तर- परेम की बात सुणता उस्सै नैं अचम्भा होंदा । एक बर राज्जा परदेसी आपणे मंतरी चित्त तै बोल्या, “मैं न्यूं चाहूं सूं अक तू म्हारी ओड़ तै म्हाराज जितसतरू तै कोए चीज भेंट कर्या । उसके राज मैं एक तै एक ग्यानी ध्यानी रहैं सैं। उनके धोरे थोड़े दन टैर कै राजनीती पढ़ ले ।” राज्जा का हुकम सुण के मंतरी कुणाल देस कान्नी चाल पडूया । ओड़े पहौंच के ओ राज्जा तै मिल्या । उस तै राज्जा परदेसी का संदेश सुनाया। कीमती चीज भेंट करी । राज्जा नैं मंतरी के ठहरण का इंतजाम करा दिया । एक दन चित्त नैं बेरा पाट्या, भगवान पारस नाथ की परम्परा के ज्ञानी अचार्य सरमण केस्सी ओड़े आण आले सैं। उनके आण का टैम भी आ गया। जिसनें भी खबर सुणी, ओ-ए अचार्य केस्सी के दरसनां साधू का सतसंग / 43 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खात्तर बेचैन हो गया। चित्त भी उनके दरसन करण चाल पड्या । उनकै धोरै पहोंच्या । हज्जारां की तदाद में लोग कट्टे हो रहे थे। उनकी मीट्ठी बाणी सुण के मंतरी चित्त पै घणा-ए असर होया । बस! उस्सै टैम चित्त नै अचार्य केस्सी तै घरेसत (सरावग) धरम के बारां बरत ले लिए | ओ नित्त-नेम उनकी बाणी सुणता । ग्यान की बात बूझता । अचार्य जी की बाणी तै उसके जीण का तरीका बदल गया । एक दन चित्त नैं अचार्य केस्सी तै कही - कदे म्हारे केकय देस की राजधानी स्वेताम्बका नगरी में भी पधारण की किरपा करो। अचार्य जी चुप रहे । चित्त नैं कई बर बिनती करी। अचार्य जी फेर भी बोल-बाले उसके कान्नी देखदे रहे । चित्त समझ ग्या, अचार्य केस्सी राज्जा परदेसी के बुरे बरताव नै जाणे सैं । वे कोन्यां चाह्ते अक घमण्ड में चूर परदेसी धरम की अर संघ की बेसती करै । चित्त स्वेताम्बिका नगरी मैं उलटा आग्या । ओ चाहदै था -- राज्जा परदेसी एक बर........बस एक बर अचार्य केस्सी के दरसन कर ले । के बेरा उसकी ज्यंदगी बदल ज्या । संजोग इसा होया, एक बर घूमते-टहलते अचार्य केस्सी स्वेताम्बका नगरी मैं आ गे। मंतरी नैं बेरा पाट्या, ओ जिब्बै उनकी सेवा मैं हाज्जर हो गया । उस नैं मुनियां के ठैरण का आच्छा एंतजाम करा दिया । आप भी उनकी सेवा मैं लाग्या रहंदा। उनके दरसनां खात्तर लोग्गां की भीड़ नाग्गी रहंदी। मंतरी चित्त नैं सोच्ची, किस्से तरियां राज्जा परदेसी नै भी अचार्य जी पोरै ले चालणा चहिए। फेर उसनैं एक तरकीब सोच्ची । याणवी जैन कथायें/44 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ایاں ہے تو ں کے Cartea Makan VI Ea M RTIST E Hin/45 م بهت active u ساده رہ کرے حسنا ہے لله cafu نماشا سه مهسا 200 sawsan W Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RA AWA N 1UJY BUSICAN MPARAN yari VIARPAN Mond TORI MOUN MARRISMmmashma मच्छणन हरियाणवी जैन कथायें/46 UPARIVARTA Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक दन चित्त नैं राज्जा तै कही, “म्हाराज! थोड़े दन पहल्यां घणे-ए बढिया घोड़े मोल लिए थे । थम उन नैं देख ल्यो तै बढिया रहै । " राज्जा घोड़े देखण मैं राज्जी हो गया । जिब्बै- ए मंतरी गेल्यां चाल पड्या । मंतरी उस नै मिरग बन कान्नीं ले गया । ओड़े अचार्य केस्सी का धरम-बखाण होण लाग रूहूया था । यो देख के राज्जा चौंक्या । बोल्या, “आड़े कित ली आया मन्नैं ? तावला चाल आड़े तै । ” चाल.. राज्जा अर मंतरी चाल पड़े। माड़ी-सी दूर जा कै राज्जा नैं घोड़ा रोक दिया । कहण लाग्या, “मेरा आग्गे जाण नैं जी-ए कोन्यां करदा । मन्नै ते इसके मिट्ठे बोल याद आवैं सैं। बेरा ना इस साधू नैं मेरे पै के जादू कर दिया ! इस तै मिल्लण का जी करण लाग्या । मन्नै तै यो पहोंच्या होया साधू लाग्गै सै। ” मंतरी न्यू सुण कै राज्जी हो गया । सोच्ची, राज्जा के बिचार ईब बदलण आले सें । ओ आपणी सकीम की कामयाबी पै भित्तर-ए-भित्तर राज्जी होण लाग रहूया था । दोन्नूं अचार्य केस्सी की सभा मैं गए। राज्जा की निग्हा अचार्य केस्सी कान्नीं चुम्बक की तरियां खिंच गी । राज्जा नैं सुणी- 'यो संसार तै झूट्ठा दिखावा सै। असली तै आतमा सै जिसका ग्यान लेणा जरूरी सै ।' बखाण पूरा होया । राज्जा परदेसी नास्तक था। उसके जी मैं आतमा-परमातमा, लोक-परलोक, पुनर जनम, पाप-पुन्न, धरम के बारे मैं घणे-ए सुआल थे । उसने अचार्य केस्सी तै उनका जुआब बूज्झ्या । अचार्य केस्सी सामी ने राज्जा तैं सारी बात खोल-खोल कै सिमझाई। साधू का सतसंग / 47 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घणी बात के, राज्जा का पेट्टा भर गया । फेर भावना मैं भर कै राज्जा बोल्या, "भंते! मन्नैं आपणी सरण मैं ले ल्यो । " अचार्य केस्सी तै राज्जा नैं बारा बरत लिए । ओ महलां मैं उलटा आ ग्या । राणी नैं देख्या तो हैरान रह गी। उसनैं यो सब किमै आच्छा कोन्नीं लाग्या । परदेसी नैं चाही अक उसकी राणी भी अचार्य जी धोरै चाल्लै अर धरम की दिक्सा ले पर वा ना मान्नी । सराब पीणा अर मांस खाणा उन्हें घणा भावै था। वा चाहूवै थी, राज्जा भी न्यूं- ए करै। परदेसी के धरमातमा बणन तै वा भित्तर-ए-भित्तर घणी जलै थी । एक दन उसनें राज्जा तै मारण की सोच्ची । धोके तै उसने राज्जा तै जहर दे दिया । राज्जा नै राणी पै छोह कोन्यां करूया । इस बात है उसका बिराग और भी घणा हो गया । ओ पौसधसाला मैं चल्या गया। राग-द्वेस तै छूट कै ओड़े-ए धरम- ध्यान मैं लाग ग्या । मरें पाछै ओ देव बण्या । भूंडे अर करड़े बिचारां आला राज्जा भी साद्ध के सतसंग तै कितणी सहन करण आला अर कितनी दया करण आला बण ग्या था! हरियाणवी जैन कथायें / 48 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान का ध्यान चम्पा नगरी मैं एक सेट रहूया करता । उसका नां था- अरहन्तक । अरहन्नक आपणा पीसा समाज की भलाई मैं खरच करूया करै था । ओ जैन धरम मैं सरधा राक्खै था । नित-नेम करूया करै था । नगरी का धन्ना सेट हो कै भी, उसमैं रत्ती भर भी घमण्ड ना था । एक बर अरहन्नक सेट ब्योपार करण खात्तर चाल पड्या । उसकी गेल्यां घणे-ए मित्तर-प्यारे अर ढब्बी भी चाल पड़े। दूर का जाणा था अर समंदर का सफर था। कई दिन सफर मैं लागणे थे। सफर सरू हो गया । दो-चार दन तै सुथरी ढाल बीत गे। कोए बिघन कोन्या पडूया । फेर एक दन तुफान आ गया । नाव ऊंची-ऊंची खतरनाक लहरां पै ऊपर-तलै होण लाग गी । चारू कान्नीं गाड्ढा अंधेरा हो गया । सब नै लाग्या अक ईब तै मरण-घाट पहोंच लिए। सारे आपणेआपणे देवां नैं याद करण लाग गे । नाव मैं एक आदमी ईसा था जिनैं मरण का माड़ा-मोटा भी डर भै ना था। ओ सान्ती तै बैठ्या था । इंग्घै-उंग्घै ना लखावै था । ओ थासेट अरहन्नक! उस नैं मन मैं यो संकलप कर लिया अक या मुसीबत टलैगी तै मैं रोट्टी पाणी ल्यूंगा अर नहीं तै चारूं अहारां का त्याग सै । न्यू सोच कै ओ भगवान का ध्यान करण लाग ग्या । माड़ी वार पाछे उसने एक अवाज सुणाई पड़ी- 'तू इस धरम नैं छोड दे। नहीं तै तेरी नाव इब्बै- ए समंदर मैं डूब ज्यागी । तू अर तेरे सारे भगवान का ध्यान /49 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मित्तर-प्यारे डूब के मर ज्यांगे ।' अरहन्नक बोल-बाला धरम-ध्यान मैं लाग्या रह्या । फेर अवाज आई- ' मैं तन्नै घणा-ए धन यूंगा | बस, एक बर तू धरम नैं झूट्ठा कह दे । माल्ला-माल हो ज्यागा ।' माल्ला-माल होण की खबर सुण के भी अरहन्नक आपणे धरम तै माड़ा-सा भी कोन्यां डिग्या। धरम-ध्यान में लाग्या रया । नाव में बैठे होए ओर लोग जो डर की मारी थर-थर कांपें थे, बोल्ले, "रै सेट्ठां के सेट अरहन्नक! तू हात्थां तै यो मोक्का मत न्या लिकड़ण दे | दखे जान भी बच्चैगी अर धन भी मिल्लैगा। इस धरम नैं छोड दे।" अरहन्नक ईब भी चुप था। ना उसनै डर लाग्गै था अर ना-ए धन के लोभ मैं ओ मऱ्या जा था। ओ तै बस, ध्यान-ए करता रह्या । घणी बार ताईं न्यूं-ए होंदी रही। नाव मैं सुआर डरे होए लोग्गां की सिमझ मैं या बात आई-ए कोन्यां अक अरहन्नक म्हारी चिन्ता क्यूं ना करदा । माड़ी वार ओर बीत गी। सबनै देख्या अक एक देव अरहन्नक के सामी हाथ जोड़े खड्या सै | अरहन्नक नैं आंख खोल्ली । होट्ठां भित्तर हांस्या। बूज्झी, “हे देव! थम कुण सो? आड़े आण का कसट क्यूंकर कऱ्या?” देव कही अक “इन्दर म्हाराज नै देवां की सभा मैं थारी घणी बडाई करी थी। पर, मेरा जी कोन्यां ठुक्या। थारा हिंतान लेण मैं आड़े आया था। समंदरी तूफान कुछ ना था, वा तै मेरी-ए माया थी। इंदर हरियाणवी जैन कथायें/50 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Keypada Oppre भगवान का ध्यान /51 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्हाराज तै थारे बारे मैं जो सुण्या था, मन्नैं ओ न्यूं का न्यूं पाया । " “बड़ी किरपा करी थमनै अक मैं इस के काब्बल समझया । " अरहन्नक नै कही । देव ने एक सुथरी अर घणी कीमती कुंडलां की जोड़ी काडूढी । वा अरहन्नक तै दे दी। बोल्या, “या मेरी ओड़ तै एक छोटी-सी भेंट सै । इस नै कबूल कर ल्यो ।” देव नै कई बर कही ते अरहन्नक नै वा भेंट ले ली । देव गैब हो गया । इस बात तै सारे सात्थी घणे हैरान रह गे । आपणी आंख्यां पै उन नै अकीन ना आवै था । साऱ्यां नैं सोच्ची- जै इस झाज मैं अरहन्नक सेट ना होंदा तै म्हारा बचणा तै मुस्किल - ए था । साच्ची बात सै अक धरम के सामीं तै देवता भी सर झुकाया करें सैं । हरियाणवी जैन कथायें /52 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक दन मैं मुकती द्वारका नगरी में सिरी किरसन जी राज कऱ्या करते । उनके छोटे भाई का नां था-गजसुकुमाल । सिरी किरसन आपणे भाई का घणा-ए लाड कऱ्या करते । बालक गजसुकुमाल के बिना मां देवकी अर बाब्बू वसुदेव पै माड़ी वार भी ना रया जा था । मां-बाब्बू अर भाई किरसन उसनें पूरे ध्यान तै पालण लाग रहे थे। गजसुकुमाल जुआन होए। पढ़-लिख के वे काब्बल बण गे । द्वारका मैं उन का ना हो गया। चारूं कान्नी वे मसहूर हो गे। बात-ए ईसी थी। गजसुकुमाल घणे सुथरे थे अर अकलमंद भी थे। वे सरीर तै नाजुक भी थे। जाएं तै उनका नां गजसुकुमाल धऱ्या था । उन जीसा सुथरा जुआन उस टैम मैं कोए दूसरा ना था। सिरी किरसन कै गजसुकुमाल नै देखदे-ए एक बात याद आ जांदी । जिब गजसुकुमाल पैदा भी ना होए थे, जिब एक देवता नैं आ कै उन तै कही थी- “थारे घरां एक छोटा भाई पैदा होवैगा पर ओ जुआनी की उमर मैं मुनी (साधू) बण ज्यागा ।" सिरी किरसन इस बात का करड़ा यान राख्या करते, अक ईसी कोए बात ना होवै, जिस तै गजसुकुमाल के बिराग हो ज्या। एक बर भगवान् नेमीनाथ द्वारका नगरी के बाहर सहसर-आमर नां के बण मैं बिराज्जे । लोग्गां नैं बेरा पाट्या | उनके दरसनां खात्तर सबकै हुमाया चढ़ ग्या । भीड़ की भीड़ ओडै जाण लाग्गी । देवकी अर वासुदेव एक दन मैं मुकती/53 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी सिरी किरसन गेल्लां दरसन करण जाण की चुपचाप त्यारी करण लाग्गे । फेर भी गजसुकुमाल नै वे जान्दे देख लिए। उन तै आप भी गेल्लां जाण की बात कही। वे उसके जाण के बारे मैं टालमटोल करदे रहे पर उसकी जिद के आग्गै उन नैं झुकणा पड्या । वे सारे के सारे कट्टे हो के चाल पड़े। राह मैं किरसन जी नैं पांच-सात छोरी आपस में खेलती देक्खी । उनकी निगाह में एक सुथरी छोरी आई। उन नैं गजसुकुमाल का ब्याह उस छोरी तै करण की सोच्ची । बूज्झ्या तै बेरा लाग्या अक उस छोरी का नां सोमा सै । वा सोमिल बाह्मण की छोरी सै । किरसन जी नै सोमिल धोरै गजसुकुमाल के ब्याह की बात भिजवा दी। उस बात नैं सुण के सोमिल के सूखे धान्नां मैं पाणी आ गया। ____ सारे भगवान् नेमीनाथ के समोसरण मैं पहोंचे । सबनें भगवान तै धरम की बाणी सुणी अर घरां आ गे । भगवान् नेमीनाथ की देसणा सुण कै गजसुकुमाल के बिचार बदल गे। उन नैं दीक्सा लेण का पक्का फैसला कर लिया। मां-बाब्बू नैं बेरा पाट्या । उन नैं भोत दुःख होया। वे गजसुकुमाल नैं सिमझाण लाग्गे। पर गजसुकुमाल कोन्यां मान्ने । जिब्बै-ए ओडै सिरी किरसन आ गे। उन नैं भी आपणा छोट्टा भाई तरां-तरां की बात्तां तै सिमझाया। ढाल-ढाल के लालच दिए। गजसुकुमाल कोन्यां मान्ने । आक्खर मैं सिरी किरसन नैं कही, "रै भाई! तू राज-घराणे मैं पैदा होया सै | जाएं तै तू एक बर हमनैं राज करके दिखा दे ।" इस बात पै गजसुकुमाल चुप हो गे । दूसरे-ए दिन सिरी किरसन जी नैं ओ द्वारका के राज्जा बणा दिए। हरियाणवी जैन कथायें/54 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सब नै उम्मेद हो गी अक ईब गजसुकुमाल कित्तै ना जावै । पर, राज्जा बणते-एं उन नैं हुकम दे दिया- मैं दीक्सा ल्यूंगा अर साधू बणूंगा। मेरी दीक्सा की त्यारी आज-ए अर इब्बै-ए करो । यो हुकम सुण के सारे चुप हो गे। राज्जा के स्यांमी कोए के बोलदा। राज्जा बणे होए गजसुकुमाल नैं उस्सै दन भगवान् नेमीनाथ के चरणां मैं साधू बणन की दीक्सा ले ली। साधू बणे पाच्छै गजसुकुमाल नैं भगवान तै बज्झ्या- "मुक्ती क्यूकर मिल्या करै?" परभू नैं बताया अक सूं-सां जंगा मैं, कै च्याणियां मैं रैह् कै ध्यान करो। न्यूं सुण कै गजसुकुमाल में समसाण में जा कै ध्यान करण की सोच्ची । सांझ का टैम था। भगवान की अग्या ले कै वे समसाण मैं ध्यान: करण चाल्ले गए । समसाण मैं मुनी गजसुकुमाल ध्यान की साधना मैं डूब गे। संसार की सोद्धी भी कोन्यां रही। चाणचक ओड़े तै सोमिल लिकडै था। उसनैं आपणा होण आला ! जमाई साढू बण्या देख्या तै उसनैं इतणा छोह आया अक ओ बौला हो ग्या । छोह मैं भर के उसनैं धोरे के जोहड़ मैं तै माट्टी काड्ढी अर ध्यान में खड़े होए गजसुकुमाल के सिर पै चारूं कान्नी पाल बांध दी । फेर उसमें लाल सुरख अंगारे धर दिए। फेर ओ घरां आ गया । गजसुकुमाल आपणी साधना तै कोन्यां डिग्गे । उनका सिर जलै था। मांस-मज्जा भी जलण लाग्गी पर गजसुकुमाल मुनी सान्ती ते ध्यान मैं खड़े रहे । उन नैं सोच्ची- “इसके खात्तर किस्से तै दोस देणा ठीक नहीं । यो तै आपणे-आपणे करमां का फल सै | आच्छा होया! ईब ये करम भी आज्जै हमेसां के लिए भसम हो ज्यांगे ।” एक दन मैं मुकती/551 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mma * ki * * हरियाणवी जैन कथायें/56 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गजसुकुमाल नैं माड़ा-सा भी छोहू ना आया । वे आपणे ध्यान मैं कत्ती अटल खड़े रहे । फेर उन नैं केवल ग्यान हो गया। यो ग्यान होतेएं आदमी परमातमा बण ज्या सै । सरीर छोड कै गजसुकुमाल मुनी मोक्स मैं चले गए। वे भगवान् बण गे । दूसरे दन सिरी किरसन जी भगवान् नेमिनाथ धोरै पहोंचे। उन्नैं गजसुकुमाल मुनी के बारे मैं बूज्झया । भगवान् नेमिनाथ नैं बता दी अक वे समसाण मैं जा कै ध्यान करण लाग्गे । गेल्लां- ए ओड़ै जो कुछ होया, ओ भी सब किमे बता दिया । सिरी किरसन नैं ये सारी बात सुण के अचंभा होया । उन नैं बूज्झ्या"एक्कै दन मैं गजसुकुमाल नैं इतना बड्डा ग्यान क्यूकर हो गया?” भगवान् नेमीनाथ नैं उनके सिर पै धरे होए सुरख अंगारां की बात बता कै कही- जो किस्से पै छोहू ना करै, दुस्मन अर दोसत का फरक मिटूया दे, ओ भगवान् बणज्या सै । सिरी किरसन नै जिब्बै-ए छोहू आ गया। उन नैं बूज्झ्या, “ईसा भूंडा ब्योहार किस कर्या? मैं उसने जिन्दा ना छोड्डूं । ” भगवान् नेमीनाथ नैं कही, “नगरी मैं बड़तें-एं तमनैं बेरा पाट ज्यागा । एक आदमी थारे स्यांमीं आवैगा । तम नैं देखते - ए ओ डर कै जमीन पै है पड़ेगा अर मर ज्यागा । तम समझ लियो अक यो हे ओ आदमी सै। " सिरी किरसन जी द्वारका कान्नीं उलटे आए । न्युन्नै सोमिल नैं किरसन के छोहू का बेरा लाग्या । पराण बचाण खात्तर ओ भाज्या | भाजदा होया किरसन जी के स्यांनीं आ ग्या । किरसन नैं देख कै डर ग्या अर भाजदा होया ओड़े-ए जमीन पै है पड्या । पड़ते-एं उसके पराण लिकड़ एक दन में मुकती / 57 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गे। सिरी किरसन जी सिमझ गे - यो हे ओ आदमी सै । जीसा इसनैं कऱ्या, ऊसा-ए फल भी इस मिल गया। गजसुकुमाल मुनी के तप की बात दूर-दूर ताईं मसहूर हो गी । आज हज्जारां साल बीत गे पर आज भी गजसुकुमाल मुनी अर उनकी तिपस्या नैं सरधा ते लोग याद करें सैं । आए साल पज्जुसण के त्योहार पै उनकी कहाणी हर भगत सरधा भरे मन तै जरूर पढ्या/सुण्या करै सै । हरियाणवी जैन कथायें/58 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मामन सेट के बलद बरसात के दन थे। रात के ग्यारा-बारा बाज रहे थे। चारू कान्नी घुप्प अंधेरा हो या था। घणे जोर की बारिस होण लाग हीं थी। जोर की बिजली चिमकी । महल्लां मैं सूती होई महाराणी चेलना की नींद टूट गी। बाहर के होण लाग या सै, यो देक्षण खात्तर वा राज मैहल की झांकी धोरै आई। चाणचक फेर जोर की बिजली चिमकी। बिजली के चांदणे मैं उन्नैं दीख्या अक एक आदमी नद्दी मैं खड्या सै । आई बर बिजली चिमकती रही अर राणी देखदी रही । राणी नैं देख्या- ओ आदमी माड़ी-माड़ी वार मैं कनारे पै आवै सै, किमै धरै सै अर फेर नद्दी मै उतर ज्या सै । राणी नैं सोच्ची कोए गरीब आदमी सै। नदी मैं बैहत्ती होई लाकड़ी कट्ठी करै सै । ओ हो! म्हारे राज मै भी कितणे गरीब लोग हैं सैं ? कितणी करड़ी मेहनत कर कै टैम काड्. सैं! न्यूं-ए सोचदी-सोचदी राणी आपणे पिलंग पै उलटी आ गी।। राणी नैं सोण की कोसिस करी पर आंख ना लागी । वा राज्जा धोरै पहोंची। राज्जा आगै सारी बात बताई। राज्जा नैं सोच्ची- मैं तै इस धोखे मैं था अक मेरे राज मैं सारे मोज करें सैं । किस्से नै भी कोए दुख कोन्यां, फेर यो गरीब इतणी रात नैं ईसी करड़ी मेहनत क्यूं करण लाग या सै ? राज्जा नैं नौकरां तै कही अक जाओ! नद्दी पै कोए आदमी लाकड़ी कट्ठी करै सै । उसके घर का बेरा काड्ढो । तड़के-ए उसनैं मेरे स्यांमी मामन सेट के बलद/58 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलाणा। आगले दन जिब दरबार लाग्या तै नोक्कर उस आदमी नैं पाकड़ कै ल्याए। राज्जा नैं बूझी- तू कुण सै ? ओ बोल्या- हे म्हाराज! मेरा नां मामन सै। मैं-ए लाकड़ी कट्ठी करूं था। राज्जा नैं फेर बूझी- जाड्डे की आद्धी रात मैं तू क्या खात्तर दुखी हो या था? मामन बोल्या- मेरे धोरै एक्कै बलद सै। मैं ऊसा-ए दूसरा बलद भी खरीदणा चाहूं सूं । जाएं तै इतणी मैहनत करूं राज्जा नैं सोच्ची- यो तै घणा-ए गरीब सै | राज-खुज्जान्ने तै इसकी इमदाद करणी चहिए । खुज्जान्ने का धन इन्है लोग्गां का सै । राज्जा नैं गऊसाला का परधान बलाया अर उस तै हुकम दिया"इसनै आपणी गेल्ला गऊसाला मैं लै ज्या । इसकै जो बलद पसंद आवै, ओ-ए इसफोरन दे दे।" मम्मन गऊसाला मैं गया पर उसकै एक भी बलद पसंद कोन्यां आया । ओ उलटा-ए राज्जा धोरै आ ग्या, “म्हाराज ! मन्नै ते आपणे बलद बरगा-ए बलद चहिए। ऊसा बलद थारे धोरै कोन्यां ।” "आच्छा! किसा बलद से तेरा ? हम भी तै देक्खें ।" राज्जा नैं कही। “मै उस नै आडै कोन्या ला सकदा म्हाराज ! जै थम उसने देखणा चाहो सो तै मेरे घरां चाल्लो।" राज्जा मामन के घरां बल द देक्खण पहोंच्या । मामन का घर तै पूरा मैहूल था । ओ राज्जा नै आपणे तहखान्ने मैं ले गया। ओडै अंधेरा था । राज्जा नैं कुछ ना दिक्खै था। जिब्बै-ए मामन नै किसे चीज पै ढंक्या होया हरियाणवी जैन कथायें/60 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | || | || | | வை Deex hro मामन सेट के बलद / 61 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपड़ा ताय । तहखान्ने मैं रोसनी-ए-रोसनी हो गी । यो हे मामन का बलद था, जिस पै ते उसनें कपड़ा तार्या था । बलद के था, पूरा - ए सोन्ने का बण रूहूया था। ऊप्पर तै तले ताईं हीरे-जुहारात जड़ रहे थे । राज्जा नैं सोच्ची- ईसा बलद मेरे धोरै था-ए कित जो यो ले आत्ता । मामन बोल्या- म्हाराज ! मेरे धोरै यो एक्कै बलद सैं। इसकी जोट का मैं दूसरा भी बणवान लाग रूहूया सूं । ओ भी देक्खो ।” राज्जा नैं देख्या- दूसरा बलद भी पैहले बरगा-ए था। बस उसके सर पै सींग ना थे । आग्गै मामन नैं बताई अक ईब मेरा धन सपड़ गया। जाएं तै मैं दन मैं भी काम करूं सूं अर रात मैं भी लाकड़ी चुग्गूं सूं । दन-रात मैहूनत करके मैं धन कट्ठा करण लाग रूहूया सूं जुकर इस दूसरे बलद के सींग भी पूरे हो ज्यां । " राज्जा नैं यो देख कै घणा अचम्भा होया । एक सुआल उस नै ओर बूज्झ्या- " बलद बण जांगे तै के करैगा ?" "फेर मैं हीरे जड्या होया एक सोन्ने का रथ ओर बणवाऊंगा । उस रथ मैं ये बलद जोत के मैं राजगीर के बजार मैं हांड्या करूंगा । म्हाराज ! ईसा रथ अर ईसे बलद ओर किस्से धोरै कोन्यां पावैं, बस ! या हे मेरी तिमन्ना सैं" मामन की बात सुण कै राज्जा बोल-बाला आपणे मैहूल मैं उलटा आ गया । उस नैं राणी तै बताया अक मैं आपने राज का जै सारा खुज्जान्ना भी उसने दे यूं तै फेर भी उस की तिरसना कोन्यां मिटै । एक बर राज्जा सरेणिक भगवान महावीर के दरसन करण गए। उन नैं भगवान तै बूज्झ्या, “भगवान ! मामन धोरै घणा-ए धन से । फेर भी उसके मूं पै उदास्सी रहै सै। इसका के कारण सै?" हरियाणवी जैन कथायें / 62 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान बोल्ले- "राज्जा ! मामन धोरै पाप का धन सै। जाएं तै ओ दुखी सै । जिस धन तै आदमी का जी आच्छे काम करण मैं लाग्गै, ओ धन पुन्न का अर जिस तै जी मैं कोए आच्छा काम करण का ख्याल ना आवै ओ धन पाप का हो सै ।" राज्जा के सारी बात सिमझ में आ गी। भगवान धोरे तै उलटा आ के राज्जा नैं सारी बात राणी आग्गै बताई। राणी नैं सच्चाई का बेरा पाट्या तैं वा बोल्ली, "धन तै गिरस्ती की खात्तर साद्धन सै । लोग्गां नैं ओ हे मकसद बणा लीया, जाएं तै दुखी हैं सैं । मैं तै न्यूं सोचूं थी अक म्हारे राज मैं कितणे गरीब अर दुखी लोग सैं पर ईब सिमझ में आई अक मामन बरगे लोग तै तिरिसना अर लोभ की मारी मरे जां सैं ।" 00 मामन सेट के बलद/63 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करणी अर भरणी जितसतरू सरावस्ती नगरी का राज्जा था। ओ भगवान् महावीर का करड़ा भगत था । उसका एक छोरा था, सकंदक अर छोरी थी, पुरंदरयसा । जितसतरू नैं आपणी छोरी का ब्याह दंडक तै कर दिया। ओ कुम्भकारकटक का राज्जा था। धरम उसनैं भावै ए ना था । पुरंदरयसा धरमकरम मैं लाग्गी रैहूंदी। दंडक उसका मखौल उड़ाएं जांदा । जितसतरु की उमर हो ली थी। उसनैं सकंदक आपणा बारस बणा दिया था । सकंदक के बिचार धारमिक थे । ओ दरबार मैं धरम की चरचा भी करवाया करता । एक बर की बात सै। राज्जा दंडक का पिरोहूत था, पाल्लक । ओ सरावस्ती नगरी देक्खण आया। ओ दरबार देखणा चाहूवै था । आगले दन ओ दरबार मैं पहोंच्या । उसने ओड़ै देख्या- सकंदक धरम-चरचा करण लाग रहूया था। ओ तै धरम नैं चाहूवै - ए ना था । उसनै सकंदक तै सासतरारथ करण की कही । सकंदक नैं नरमाई तै मना कर दिया पर ओ घणा जिद्दी था । कोन्यां मान्ना । आक्खर मैं सकंदक नै सासतरारथ की हां भर दी । सासतरारथ सरू हो गया। माड़ी बार ताईं तै दंडक का पिरोहूत पाल्लक सकंदक के सुआलां का जुआब देंदा रहूया पर सकंदक के ग्यान आग्गे उसकी पार कोन्या बसाई । उसनें नीचा देखणा पडूया । ओ सासतरारथ मैं हार हरियाणवी जैन कथायें / 64 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्या । बेसती करा के पाल्लक आपणे राज मैं उलटा चाल्या गया । आपणे ऊपर उसनैं सरम आण लाग रही थी । भित्तर - ए - भित्तर उसनैं सकंदक तै इस बेसती का बदला लेण की पक्की सोच ली। टैम लिकड़ता रहूया । एक दन सकंदक आपणे पांच सै ढब्बियां गेल्लां बीसमें तीरथंकर मुनी सुव्रत स्वामी के चरणां मैं पहोंच्या । उसनैं तीरथंकर की बाणी सुणी । भगवान की देसना सुण के उसका जी बिरागी हो ग्या । बोल्या, “भगवान! मन्नै भी मुनी- धरम की दीक्सा दे यो। मेरे ढब्बी भी आपके उपदेस सुण कै दीक्सा लेणा चाहूवैं सैं।" ײן भगवान नैं उन तै मुनी- दीक्सा दे दी। थोड़े दन ओड़े रहें पाच्छै एक दन सकंदक नैं कही, “भगवान ! मैं आपणी बाहूण अर भिणोइये नैं धरम का उपदेस देणा चाहूं सूं ।” मुनी सुव्रत स्वामी बोल्ले, “बात तै या भोत बढ़िया सै पर ओड़े थमनैं कष्ट होवैगा । थारे सारे सात्थी मार दिए जांगे । " "प्रभो ! हमनें मरण का डर कोन्या । हम तै आपके विचार चारूं कान्नीं फलाणा चाहूवैं सैं" सारे कट्ठे हो कै बोल्ले । भगवान नैं आग्या दे दी। सकंदक आपणे सात्थियां गेल्लां राज्जा दंडक के राज कान्नीं चाल पडूया । पाल्लक नैं इसका बेरा पाट्या । ओ राज्जी हो गया । सोच्ची अक यो मोक्का - सैं। ईब मैं आपणी बेसती का बदला ल्यूंगा । घणी वार ताई ओ सोचदा रहूया । सकंदक मुनी अर उस के सात्थी साधू नगरी के धोरै एक बाग मैं ठहूर गे । रात नैं पाल्लक ओड़े पहोंच्या । उसनें खड्ढे खोद कै उनमें करणी अर भरणी/ 65 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हथियार ल्हको दिए । फेर ओ राज्जा दंडक तै मिल्लण गया। रात नैं पाल्लक दीख्या तै दंडक चौंक्या । पाल्लक बोल्या, "म्हाराज । भूंडी खबर सैं। सकंदक थारा रस्तेदार सै अर ओ मुनी बण रहूया सै। लेक्यन ओ मुनी का भेस भर के आपणे पाँच से मुनी के भेस आले फौजियां गल्लां बाग मैं ठैहर इहूया सै। मन्नैं बेरा लाग्या सै अक ओ इस राज नैं हड़पणा चाहूवै सै। राज्जा बोल्या अक, न्यूं क्यूकर ? - पाल्लक नैं कहूया - म्हाराज न्यूं- ए सै। या राज-पाट की भूख घणी माड़ी हो सै । इस भूख तैं माणस रस्तेदारी ने भी गोल्या ना करदा । थाम मेरी गेल्लां चाल्लो। सांच-झूठ का बेरा इब्बे लाग ज्यागा ।" न्यूं सुण कै राज्जा पाल्लक गेल्लां बाग मैं पहोंच्या । पाल्लक नैं खड्ढे खोदे । हथियार राज्जा तै दिखाए अर बोल्या, “देख लिया म्हाराज! आपणी आक्खां तैं देख ल्यो । इस मुनी का भेस भरे होए सकंदक अर इसके सात्थियां तै वा सजा मिलणी चहिए अक ओर दुस्मन भी याद राक्ख !” राज्जा नैं पाल्लक तै कही, रे ! तन्नैं तै म्हारा राज बचा दिया। ना तैं ये दुसट तै हमनें खतम कर देंदे। ईब जीसी तेरे जी मैं आवै, ऊसी-ए सजा इन तै दे दे । " दंडक नैं न्यूं कही तै पाल्लक राज्जी हो कै नाच्चण लाग्या । तड़का होया । पाल्लक नैं थोड़े-से फोजी गेल्लां लिए अर बाग चारूं कान्नीं तै घेर लिया। जल्लादां तै हुकम दे दिया, "देक्खो के सो ? इन पखंडियां नैं कोल्हू मैं गेर के पीस द्यो ।” न्यूं देख कै सारे साधू हैरान रैहूगे। पर किस्से नैं कुछ ना कही । हरियाणवी जैन कथायें / 66 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाल्लक सकंदक मुनी तै बोल्या, “ईब याद कर ले आपणे धरम नैं । याद सै- तन्नें मेरी बेसती करी थी। ईब भोग्गो आपणी करणी का फल ।" सकंदक मुनी होट्ठां भित्तर हांसे । उनकै याद आई अक भगवान नैं ठीक-ए कही थी- ओडै तम सारे के सारे मारे जा सको सो। वे बोल्ले“पाल्लक ! तू घमण्ड मैं पड्या सै। याद राखिए अक मूंडे करमां का नतीजा भोत मुंडा लिकड्या करै सै ।" पाल्लक पै उनकी बात्तां का कोए असर ना होया । साधुआं नैं देख लिया- ईब टैम आग्या सै । उनत्ती भगवान् याद करे अर आपणे नेमां बरतां में होई भूल-चूक की माफ्फी मांगी । फेर, गरु तै आग्या ले कै संतारा (सारी-ए उमर का खाणा-पीणा छोड्य) कै, भगवान् के ध्यान मैं बेठ गये। जल्लादां नैं मुनी कोल्हू मैं पेरने सरू कर दिए। खून्नां की धार चाल पड़ी। धरती लाल होण लाग्गी । दरदनाक महौल बण ग्या। एक-एक करदे-करदे चार सौ न्यनाणुवै साधू कोल्हू मैं पीड़ दिये । आख्यर में सकंदक मुनी का एक चेल्ला बच गया था। ओ बालक मुनी था। उसकी उमर देख कै सकंदक मुनी बोल्ले, “पाल्लक! इतणे बेकसूर साधू मार कै तन्नै ठीक नहीं कऱ्या । मैं कहूं सूं अक तू इसनैं छोड़ के पैल्हां मनै पीड़ दे। पाल्लक नैं सोच्ची- इस चेल्ले तै सकंदक नैं घणा प्यार सै। ओ बोल्या, “बोल-बाला खड्या रैह् । तेरी आंख्या के स्यांमी-ए यो मरैगा । तेरी बारी भी आण आली सै ।” करणी अर भरणी/67 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिब्बै-ए जल्लादां नैं ओ बालक मुनी भी कोल्हू मैं फेंक दिया । सकंदक मुनी ते ना रह्या गया। वे बोल्ले- "रै पापी! तेरा नास होण आला सै । मैं सारे सैहर नै जला के राख कर यूंगा।" पाल्लक नै सकंदक की बात कोन्यां सुणी । अर, हुकम दे दिया अक - इसनैं भी कोल्हू मैं फैंक द्यो । सकंदक मुनी भी कोल्हू में पीड़ दिये गये। हर्या-भऱ्या बाग खून मैं सन ग्या । चील अर गीध मंडराण लाग्गे । एक गीध नैं सकंदक मुनी का खून मैं भऱ्या रजोहरण (ओग्या) मांस का टुकड़ा सिमझ के ठाया अर आपणी चोंच में दाब लिया। ओ उड़ के राजमैल पै जा बेठ्या । ओ ओघा मैल के चोंक मैं लै पड्या । यो देख कै पुरंदरयसा के खटक लाग गी। बूज्झ्या ते सारी बात का बेरा लाग्या । - या दरदनाक बात सुण कै वा चिल्ली मार कै लै पड़ी। उसका जी संसार 1 के रिस्ते-नात्तां तै ऊब ग्या । उसनैं साध्वी दीक्सा ले ली। थोड़ा टैम बीत्या । संकलप के मुताबक सकंदक मुनी अग्नीकुवार देवता बणे । आपणे सात्थियां गेल्लां भयानक रूप बणा के बाग के ऊपर मंडराण लाग्गे । अकासबाणी करी, “पाल्लक ! हुस्यार हो ले । ईब टैम आ ग्या सै । आपणे पाप का फल भोग्गण नैं त्यार हो ज्या ।" न्यूं सुणतें-ए अकास ते आग बरसण लाग्गी | माड़ी वार मैं-ए सारा सैहर भसम हो गया । राज्जा, उसका घर-कुणबा, पाल्लक अर उसके सारे सात्थी जल के मर गे। न्यूं सुणी सै अक कई साल ताईं ओडै आग बलती रही। उस जमीन मैं ईब “दंडकारण्य" कह्या करें सैं । 00 हरियाणवी जैन कथायें/68 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघ कुवार मुनी मगध देस मैं राजगीर नाम का एक सहर था। ओडै राज्जा सरेणिक राज का करदा । उसकी एक राणी का नां था धारणी अर दूसरी का था नंदा। नंदा के एक छोरा होया । उसका नां था- अभै कुवार | धारणी के कोए बालक ना था। उसनै इसकी करड़ी फिकर रह्या करती । राज्जा नै वा घणी-ए समझाई पर उसकी सोच कोन्यां मिट्टी। एक बर रात नैं धारणी नैं सुपने मैं एक धौला हाथी दीख्या । उसनैं यो सुपना राज्जा तै बताया । राज्जा नैं पंडतां तै सुपने का मतलब बूझ्या । पंडत बोल्ले, “म्हाराज! राणी नै भोत सुथरा सुपना देख्या सै । उसकै एक ईसा छोरा होवैगा जो घणा-ए नाम कमावैगा ।” पंडतां की या बात सारे सहर में हवा की तरियां फैलगी। जन्ता सुण-सुण कै घणी-ए राज्जी होई। तीन म्हीने बीत ग्ये । एक बै राणी का ईसा जी का अक वा अकास मैं काले-काले बादल देक्खै । हाथी पै चढ के वैभार गरी नाम के पहाड़ पै हांडै । पर राणी के जी की कूक्कर पूरी हो सके थी। बारिस का टैम तै लिकड़ लिया था । फेर काले बाद्दल अकास मैं कित ते आंदे? राणी फेर दुखी-दुखी-सी रहण लाग्गी। राज्जा नैं बूज्झी तै राणी नैं आपणे जी की बताई । राज्जा भी इसमें के कर सकै था! या सिमस्या तै उसके बस की थी नहीं। ओ भी बोल-बाला रहण लाग्या। राज्जा के छोरे अर राजगीर के मंतरी अभै कुवार नै राज्जा तै बूज्झी अक बात के सै? राज्जा नै राणी के जी की बात मेघ कुवार मुनी/69 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बता दी। अभै कुवार बोल्या अक “पिताजी... कती फिकर ना करो | वा मेरी मां सै । मैं राणी के जी की बात साच्ची कर के दिखाऊंगा ।" न्यूं कह कै ओ पोसा करण की जंगा मैं चाल्या गया। खाणा-पीणा छोड के तीन दन की तिपस्या करण लाग्या । दो दन बीत गे। तीसरे दन देवलोक मैं एक देव बैठ्या था। उसका नां था- रिद्धी कुमार । उसनै अभैकुवार की तिपस्या का बेरा पाट्या । ओ उसके धोरै आया। उस तै बर मांगण की कही। अभैकुवार नै आपणी राणी मां के जी की बात साच्ची करण खातर बिनती करी। देव 'तथास्तु' कह कै चाल्या गया। बारिस होण का ढंग दीखण लाग्या । अकास मैं काले-काले बाद्दल आ गये । बाद्दलां नै देख कै राणी घणी-ए राज्जी होई। हाथी पै बैठ कै वा वैभार गरी के पहाड़ पै हांडण गई। उस के जी की बात साच्ची होई। आच्छे म्हूरत मैं राणी कै छोरा होया। उसका नां धर दिया- मेघ कुवार । जुकर एक-एक दिन चंदरमा की कला बढ्या करै सै, न्यूं-ए ओ भी बढण लाग्या । राज्जा नैं ओ पड्ढण खातर अचार्य जी धोरै घाल दिया । थोड़े-ए दिनां मैं उस नैं घणी-ए बिद्या सीख ली। ओ ओड़े तै बिदवान बण कै घरां उलटा आ लिया । राज्जा नै सुथरी अर काबल छोरी गेलां मेघकुवार का ब्याह कर दिया । ____एक बै बिहार करदे-करदे म्हावीर भगवान उसे सहर के बाहर आ ग्ये । लोग उनकी बाणी सुणन खातर तरसैं थे। दुनिया उनकी बाणी सुणन आण लाग गी। लोग उनके बखाण की तारीफ सारे सहर मैं करण लाग गे। चुगरदे के या-ए बात चाल पड़ी। चालते-चालते या बात राज्जा हरियाणवी जैन कथायें/70 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के कान्नां मैं भी पड़ी। ओ भी आपणे घर-कुणबे गेला बाणी-सुणन पहौंच ग्या । सबनै जिसी बात सुणी थी, उस तै भी बत्ती बात पाई । सारे के सारे म्हावीर भगवान नै मान्नण लाग गे । सब तै घणा असर पड्या राज्जा के छोरे मेघ कुवार पै। बखाण जिब पूरा हो लिया तै ओ भगवान के चरणां मैं जा पहौंच्या अर दीक्सा दे कै साधू बणान खातर बिनती करण लाग्या । भगवान बोल्ले- पहलां अपणे मां-बाप तै बूझ, दीक्सा की अज्ञा ले ले, जिब्बै दीक्सा ले सकै सै । मेघ कुवार महलां मैं उलटा आया । राज्जा-राणी आगै आपणे मन की बात कही । राज्जा नैं ओ घणा-ए समझाया। उसकी मां तै रोण लाग गी । आपणे भीतर की सारी मामता उसनै छोरे पै बरसा दी । फेर भी मेघकुवार आपणे फैसले तै जौ भर भी कोन्यां डिग्या। मां-बाप नैं जिब देख लिया अक छोरे पै तै उनकी बातां का कोए असर ना पड़े तै वे कहण लाग्गे, "बेट्टा! हमनैं जो कुछ समझाणा-समझूणा था ओ तै हमनें सारा कर लिया । तू चाहे मान चाहे मतन्या मान । म्हारा ईब एक अरमान सै। हम न्यूं चाहवै सैं अक दीक्सा लेण तै पहलां तु एक बर राज-सिंघासन पै बैठ ज्या । म्हारा यो आखरी अरमान सै । बस! तू इस नैं पूरा कर दे । फेर जुकर तेरा जी करै न्यूं-ए कर लिए।” _मेघ कुवार नैं उनकी या बात मान ली । उसका राज तिलक हो गया । एक दिन खातर ओ गद्दी पै बैठ्या । आगले दिन ओ राज-पाट छोड के जाण लाग्या । चालते-चालते उसकी मां बोल्ली अक, “दखे! तू साधू बणन खातर ते जा सै पर पूरे संजम तै जिनगी बिताइये । खूब ऊंचा साधू बणिये। किस्से भी तरियां की कोए कमजोरी आपणे भीतर मतन्या आण मेघ कुवार मुनी/71 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिए ।” राज्जा नैं भी उस तै न्यूं हे कही । मेघकुवार महावीर भगवान के चरणां मैं पहौंच गया। भगवान नैं उस तै दीक्सा देण की किरपा कर दी। इब ओ मुनी मेघ कुवार बण गे । मेघ मुनी सारे मुनियां मैं सब तै छोट्टे थे। रात होई तै सोण खातर उन नै सब तै पाछै देहलियां धोरै जंगा मिल्ली। रात नै जिब भी कोए मुनी ओड़े तै आता-जाता तै मेघ मुनी नै आपणे पां सकोड़ने पड़ते । एकाधी बर दूसरां के पां उनकै लाग भी जाते। इस बात तै वे दुखी हो लिए । सारी रात नींद कोन्यां आई साद्धू बणन के अपने तावलेपण पै सारी रात झीखते से रहे । माड़ी-माड़ी वार मैं मां-बाप के लाड्डां की याद आण लाग गी। न्यूं सोचते रहे अक मन्नैं घणी-ए मूंडी करी । जै मां-बाप की बात मान लेंदा तै यो दुक्ख थोड़ा-ए देखणा पड़ता। मैं राज्जा का छोरा अर ये साहू मन्नैं आते-जाते ठोकर मारैं । या भी कोए जिनगी सै ? इस तै तै आच्छा मैं पहल्यां-ए ना था ! आपणे घमण्ड मैं उसनैं फैसला कर लिया अक मुनी का बाणा छोड कै मां-बाप के धोरै जाऊंगा। वे मन्नैं घर मैं उल्टा आया देख के घणे-ए राज्जी होवेंगे। न्यूं- ए सोचते-सोचते तड़का हो गया। उसनैं सोची अक भगवान आगे कह के अर फेर जाणा चहिए। वे भगवान के चरणां मैं पहौंच गे । सारी बता दी। भगवान समझाण लाग्गे, “इसमें दुखी होण की कुण-सी बात से? तम आपणे आप नैं भूल गे। यो तै कुछ भी दुक्ख कोन्या । पाछले जनमां मैं तै तमने घणा कसट ठाया था । " या बात सुण कै मेघ मुनी नै भगवान ते आपणे पाछले जनमां की बात सुणान की बेनती करी । हरियाणवी जैन कथायें / 72 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Drn NASANA मेघ कुवार मुनी/7397 MATALAM Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर भगवान बोल्ले- “थारे तीसरे जनम का जिकर सै। तम हाथियां के परधान थे । एक बर गरमियां के दिन थे । जंगल के जीव-जन्तु गरमी के मारे घणे-ए दुखी हो रे थे । पाणी टोहूण खातर और जानवरां गेल्लां तम भी भाजे फिरो थे । फेर तम एक जोहड़ नै देख के उस मैं पाणी पीण नै बड़गे । ओड़ै घणी-ए दलदल थी। तम उस जोहड़ की दलदल में फंस गे । चाणचक एक हाथी ओर ओड़ें पहौंच गया । उसकी अर थारी दुसमनाई थी। उसनें आपणे पैन्ने दांतां तै थारा सारा सरीर ओड़ै बींध दिया । तम नै बोल-बाले रह कै सारा कष्ट ओट लिया । आखिर मैं थारे पराण लिकड़ गे । ” " दूसरे जनम की कथा भी सुणाओ भगवान! ” मेघ मुनी नै बेनती करी । भगवान सुणान लाग्गे, “दूसरे जनम मैं भी तम हाथी बणे । थारे यारे-प्यारां नै फेर तम आपणे परधान बना लिए। एक बर जंगल मैं आग लाग गी । सारे जीव-जंतुओं मैं भगदड़ माच गी। जान बचाण खातर कोए किंघे नैं भाजता, कोए किंघे नैं । वा आग घणी ना थी । तौली-ए बुझ गी । पर या देख कै तमनैं घणा डर लाग्या । तमनें आपणी अर आपणी गेल रैहण आलां की जान बचाण खातर एक गोल मदान बणाया, जिस मैं घास-फूस का एक तुणका भी ना था । पेड़-पाड़ ओड़े तैं सारे पाड़ के हटा दिए थे । मदान कती साफ लिकड़ आया था । गरमी फेर घणी हो गी । ईब के जंगल मैं धणी खतरनाक आग लाग्गी । तम आपणे साथियां नैं ले के उस मदान में आ गे । थारी जान बचती देख के आपणी जान बचाण खातर जंगल के छोटे-बड्डे सारे-ए जीव-जंतु उस मदान में कट्ठे होण लाग गे । तमनैं सब तैं जंगा दे दी । हरियाणवी जैन कथायें /74 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदान ठाड्डा भर गया। जिब्बै-ए एक खरगोस ओड़े आया। उसनै कितै भी जंगा कोन्यां पाई । ओ जंगा टोहूता फिरै था । उसे टैम तमनैं खाज करण खातर आपणा पां ठाया। खरगोस नैं जंगा दीखी। ओ ओड़े-ए बैठ गया । तमनै पां धरणा चाहूया पर खरगोस की जान पै तरस खा के जमीन पै पां धर्या कोन्या । तम नैं कितणा कसट ठाया था उस टैम ? तीन दिन ताईं आग बलती रही। फेर बुझी । सारे जीव-जंतु ओड़े तै जाण लाग्गे । ओ खरगोस भी चाल्या गया । फेर जब तम नैं धरती पे पां टेकणा चाहूया तै टिक्या-ए कोन्या ऊंचे पै धरे-धरे पां कती सुन्न हो लिया था । तम नैं चालण की कोसिस करी पर पां तै कती सुन्न था । तम धरती पै धड़ाम दणे- सी ढै पड़े अर मर गे । तम नैं खरगोस पै दया करी थी इसका फल तमनैं मिल्या अर राज्जा सरेणिक के घर मैं जनम लिया। हाथी की जून मैं दूसरे खातर इतणा दुक्ख ठा कै तै तम आदमी बणे । ईब तम माड़े हे कसट तै-ए दुखी हो लिए?” भगवान की बाणी सुण कै मेघ मुनी नैं पाछले जनमां का ग्यान हो ग्या । सारी बात उसकी सिमझ मैं आ गी। भगवान तै वे माफी मांगण लाग्गे अर कसम खा ली अक ईब मैं सारी ज्यंदगी दूसरां के भले मैं अर दूसरां की सेवा मैं- ए ला यूंगा । कई साल मेघ मुनी नैं करड़ी तिपस्या करी । आपणा भी भला कर्या अर औरां का भी भला कर्या । घणे-ए लोग्गां तै सचाई की राही दिखाई । 'आखिर मैं तिपस्या करते होए सरीर छोड्या अर देवलोक मैं जा कै जनम लिया । मेष कुवार मुनी / 75 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दया के समुन्दर ___ एक बर की बात सै । अचार्य धरमघोस अपणे चेल्लां के साथ घूमदेहोए चम्पानगरी पहोंचे। उनका एक तपस्सी चेल्ला था- धरमरूची अणगार । दुपहरी का टैम था। अचार्य जी ते अग्या ले के धरमरूची भिक्सा लेण खात्तर नगरी मैं गए। चम्पा नगरी में एक लुगाई रह्या करती जिसका नां था- नागसिरी । रोटियां गेल्यां उसनें घीया का साग बणा राख्या था । चाख के देख्या तै बेरा पाट्या अक घीया कडुवी सै। उसनै सोची अक यो साग तै कित्ते दूर-ए बाहर फैंकणा ठीक रहेगा। जै घर आला नै कड़वे साग का बेरा पाट्य ग्या तै ओं मन्नै फूहड़ बतावेंगे। न्यूं सोच के उसने ओ साग ल्हको के धर दिया । फेर उसने दूसरा साग बणाया। घर के लोग्गां तै रोट्टी खुआ दी। आप भी रोट्टी खा के अराम करण लाग्गी । नागसिरी लोटी- ए थी अक भिक्सा लेण खात्तर धरमरूची घर मैं आए । उसनैं उनकी पूरी इज्जत करी अर घर मैं भित्तरां नैं बला लिए। नागसिरी के घर में रोट्टी-पाणी तै सब निमट लिया था । उसनैं सोच्ची अक कडुओ घीया का साग सै। इसतै दे यूं । यो चाक्खैगा तै कडुआ लाग्गैया । फेर यो सारे साग नैं बगा देगा। मन्– साग बगाण खात्तर इंग्दै-उंग्यै कोनी जाणा पड़े। जिब्बै-ए उसनैं घीया का साग उनके पातरे (बास्सण) मैं घाल दिया। साग घणा-ए था । धरमरूची नैं सोच्ची अक यो तै भतेरा सै । किसे हरियाणवी जैन कथायें/76 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दया के समुन्दर एक बर की बात सै। अचार्य धरमघोस अपणे चेल्लां के साथ घूमदेहोए चम्पानगरी पहोंचे। उनका एक तपस्सी चेल्ला था- धरमरूची अणगार । दुपहरी का टैम था। अचार्य जी तै अग्या ले के धरमरूची भिक्सा लेण खात्तर नगरी मैं गए । चम्पा नगरी मैं एक लुगाई रहूया करती जिसका नां था- नागसिरी । रोटियां गेल्यां उसनैं घीया का साग बणा राख्या था । चाख कै देख्या तै बेरा पाट्या अक घीया कडुवी से । उसनै सोची अक यो साग तै कित्ते दूर-ए बाहूर फैंकणा ठीक रहेगा । जै घर आलां नै कड़वे साग का बेरा पाट्य ग्या तै ओं मन्नै फूहड़ बतावेंगे। न्यूं सोच के उसने ओ साग लूहको कै धर दिया। फेर उसने दूसरा साग बणाया। घर के लोग्गां तै रोट्टी खुआ दी । आप भी रोटी खा कै अराम करण लाग्गी । नागसिरी लोटी- ए थी अक भिक्सा लेण खात्तर धरमरूची घर मैं आए। उसनें उनकी पूरी इज्जत करी अर घर मैं भित्तरां नैं बला लिए । नागसिरी के घर मैं रोट्टी-पाणी तै सब निमट लिया था। उसनैं सोच्ची अक कडुओ घीया का साग सै। इसतै दे यूं । यो चाक्खैगा तै कडुआ लाग्गैगा । फेर यो सारे साग नैं बगा देगा । मन्नैं साग बगाण खात्तर इंग्धै- उंग्धै कोनी जाणा पड़े। जिब्बे-ए उसनें घीया का साग उनके पातरे (बास्सण) मैं घाल दिया । साग घणा-ए था । धरमरूची नैं सोच्ची अक यो तै भतेरा सै । किसे हरियाणवी जैन कथायें /76 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओर घर तै और भिक्सा मांगण की के जरूरत से | उन नैं पातरे ठाये अर सीधे अचार्य जी के चरणां मैं उलटे आ लीए । पातरे अचार्य धरमघोस के स्यांमी धर दिए । अचार्य जी नैं साग देख्या । कुछ सोच के ओ चाख्या । बोल्ले, “यो साग तै जहरीला सै । किसे नै धोके तै दिया सै। ईब इसनैं ईसी जंगा गेर जित कोए जी-जन्तू इस साग नैं ना खा सके।” धरमरूची ईसी जंगा टोहण खात्तर चाल पड़े। उधर नागसिरी अराम करै थी। आपणी चतराई तै भरे काम पै वा घणी-ए राज्जी होण लाग रही थी। सोच्चै थी अक आच्छा होया मन्– कित्तै ना जाणा पड्या । कूड़ाघर मेरे घरां आपै-ए आ गया । इन मुंडे बिचारां तै उसनै म्हापाप के करम बांध लीए। धरमरूची बण मैं खाली-सी जंगा पहोंचे । उननै माड़ा-सा साग धरती पै धऱ्या तै माड़ी वार मैं-ए साग की खसबू ते ओडै घणी सारी कीड़ी आ गी। साग चाखतें एं कीड़ी मरणी सरू हो गी। ___धरमरूची नैं देख्या अक कीड़ी ते तड़प-तड़प के मरण लाग ही सैं । उनके मन मैं घणी-ए दया आई। उन नैं सोच्ची अक ईसी जंगा तै इस दुनिया में टोही भी ना पावै जित कोए जी-जन्तू ना रहैन्दा हो । चाणचक मुनी जी के ख्याल मैं एक बात आयी। वे भित्तर-ए-भित्तर हांसे । आपणे आप तै बोल्ले, “सै, ईसी एक जंगा सै, जित किस्से जी-जन्तू कै खामखा कोए तकलीफ ना हो अर वा जंगा सै, मेरा पेट | जै इस साग नैं मेरे पेट में जंगा पा गी तै एकला मैं-ए मरूंगा । कम से कम ओर जी-जन्तुओं की जान तै बच-ए जागी। अर फेर, गरू जी के हुकम के दया के समुन्दर/77 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RI112 O ANS हरियाणवी जैन कथायें/78 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुताबक भी काम हो ज्यागा । " न्यूं सोच के उन नैं 'सिद्धे सरणं पवज्जामि' कही अर खूब राज्जी हो कै ओ साग खा लीया । अर संतारा ( मरण बरत) ले लिया। जहर का जिब्बै-ए असर होया । उनका सरीर लीला पड़ गया। माड़ी वार पाछै मुनी जी ये जां अर वो ज्जां! वे मर कै सुरग में पैदा होए । सांझ हो गी । अचार्य धरमघोस नैं देख्या अक चेल्ला ना आया तै चिन्ता - सी हो गी । ओर चेल्लां तै कही अक धरमरूचि नैं टोहो अर उसका बेरा काडूढो । एक चेल्ला उन नैं टोहूण चाल पडूया । ओ चेल्ला जंगल मैं पहोंच्या । देख्या तै हैरान रह ग्या, “रे! यो तै तपस्सी धरमरूची अणगार का मया होया सरीर सै !” दुखी जी तै चेल्ला गरू जी धोरै उलटा आया । उसती गरू तै बताईअक अणगार का सुरगवास हो गया। अचार्य जी जिब्बै सिमझ ग्ये । बूज्झण पै वे बोले- अक धरमरूची तै किसे नैं जहरीला साग दे दीया था । मनैं उसतै कही थी- अक इस साग नैं ईसी जंगा छोड्या जित कोए जी - जन्तू इस खा कै ना मरै । न्यूं लाग्गै सै अक सारे जी-जन्तुओं पै दया करके उसनें सारा साग आपै ए खा लीया । सारे साधुआं नैं या बात सुणी । सारे तपस्सी मुनी जी तै धन्न-धन्न कहण लाग्गे । साच्चें-ए धरमरूची अणगार दया के समुन्दर थे । चम्पानगरी के लोग्गां नैं जिब इस बात का बेरा लाग्या तै सब नै मन - ए | मन में धरमरूची अणगार तै बन्दना कर्थी अर उनकी जै-जैकार बोली । दया के समुन्दर / 79 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभ भौना म्हाभारत के बाद का जिकर सै। किरसन जी इस लोक ते जा लिए थे। उनके जाण तै बलराम का दिल टूट लीया था । किरसन के बिना यो संसार उन नैं कती सून्ना लाग्या करदा । एक दन उन नैं घर-बार छोड-ए दिया। बलराम मुनी बण कै आतमा की साधना मैं लाग गे । एक बर बलराम मुनी भिक्सा लेण खात्तर चाल पड़े। एक नगरी मैं पहोंचे । उस नगरी के बाहर राह में एक कुआं पड्या । ओडै कुछ लुगाई खड़ी थी। कोए बात घडै थी। कोए कुएं तै पाणी काड्ढै थी। आस्ता-आस्ता कुएं पै भीड़ होण लाग्गी । जिब्बै-ए एक लुगाई ओडै पाणी भरण आई। उसकी गेल्यां एक बालक भी था। उसकी निग्हा बलराम मुनी पै पड़ी तै दूसरी लुगाइयां की तरियां वा भी मुनी नै देक्खण लाग्गी । उसनै इस तरियां के भेस आले साधू कदे ना देखे थे। उसनैं कुछ ध्यान ना रया । वा काम भी करदी रही अर मुनी नै देखदी भी रही । उसनैं नेज्जू (जौड़ी) बालटी कै बांधण की बजाय बालक की घिट्टी मैं बांध दी अर कुएं मैं गेरण नै त्यार हो गी। किसे साथ आली नै देख्या तै टोक्की, “तू के करण लाग ही सै?" “कूएं तै पाणी काढूं तूं ।” “अर तन्नै नेज्जू का फन्दा क्या मैं लाया सै, न्यूं ते देख ले ।” हरियाणवी जैन कथायें/80 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vora/ RAMMAR AAS सुभ भौना/81 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यूं सुण के वा नेज्जू कान्नी लखाई तै हैरान रह गी। उस नैं जिब्बै-ए बालक की नाड़ मैं तै रस्सी खोल्ली । बलराम मुनी नै यो सारा सीन देख लिया। बलराम मुनी नैं सौच्ची अक मेरे कारण या लुगाई आपणे होंस भूल गी । मन्ने देख के तै लोग के बेरा के कर सकें सें । मैं नगरी में पां-ए ना धरूं तै ठीक रहेगा। न्यूं सोच के वे जंगल कान्नी उलटे चाल पड्ये | या बात होएं पाछै वे कद्दे नगरी में कोन्यां आए । जंगल मैं-ए रैहण लाग गे। किसे आंदे-जांदे मुसाफर तै रोट्टी मिल जांदी तै ले लेंदे, ना तै । बरती रह कै साधना मैं लाग्गे रहंदे । एक दन बलराम ध्यान में बैठे थे। ओड़े तै एक हिरण का बच्चा उछलता-कूदता होया लिकड्या । मुनी जी के भोले रूप नैं देख कै हिरण का बच्चा ओडै-ए टैर ग्या । मुनी जी के चरणां मैं बैठ गया । मुनी जी नैं प्यार तै ओ देख्या। उस दन तै ओ हिरण का बच्चा ओडै-ए रैहण लाग्या । उसने भी किमे ग्यान हो गया । हिरण का बच्चा घणा स्याणा बण ग्या था। उस जंगल मैं कोए राहगीर रोट्टी खांदा तें हिरण उसनैं देख कै भाज्या होया मुनी जी के धोरै पहौंचता अर उन नै उस मुसाफर धोरै ले आंदा । राहगीर भिक्सा मैं जो कुछ देंदा, मुनी जी ओ-ए ले लेते । एक दन की बात सै । एक राज्जा नैं आपणे खात्ती तै अरथ बणान की लाकड़ी मंगाई । ओ खात्ती उस जंगल में लाकड़ी टोहता होया एक पेड़ धोरै पहोंच्चा । जित बलराम मुनी साधना कऱ्या करते उस तै माड़ी-ए दूर ओ पेड़ था। हरियाणवी जैन कथायें/82 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ المدار ارقي البلاد مرا امام راسره ورک که له ده دا 4 و پیر کا I روانہ با ما روی ة Merch AN به 83/ga art۔ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खात्ती नैं सोच्ची अक 'रोटियां का टैम हो रूहूया सै। पहल्यां रोट्टी खा ल्यूं, फेर पेड़ काट ल्यूंगा ।' न्यूं सोच कै ओ रोट्टी खाण बैठ गया । हिरण नैं खात्ती देख लीया । ओ मुनी बलराम नैं आपणी गेल्लां ओड़ै लीयाया । खात्ती नैं इज्जत करी अर मुनी तै भिक्सा लेण की परारथना करी । मुनी बलराम उस भिक्सा लेण लाग्गे । यो सारा सीन हिरण का बच्चा देक्खण लाग रहूया था। यो सीन उसके जी नैं घणा-ए प्यारा अर सुख देण आला लाग्या । ओ सोच्चण लाग्या - धन्न से मुनी नै, जो तिपस्या करें मैं अर धन्न से इस खात्ती नै जो ईसे तिपस्सी साधू नै भिक्सा देवै सै। जै मैं माणस होन्दा तै मैं भी ईसे तिपस्सी नै भिक्सा दे के आपणी जिनगी नै सुफल कर लेंदा। न्यू सोच-सोच के उसकै आंसू आ ग्ये । दान देण की सुभ भौना उसमें गंगा-जमुना सी बैण लाग गी । संजोग की बात! उस्सै टैम जोर की आंधी चाल्ली। जिस पेड़ नैं खात्ती काटणा चाहूवै था ओ टूट कै ढै पड्या । तीन्नूं उसके तलै दब गे अर तीनुओं का सरीर पूरा हो गया । मुनी बलराम नैं बहमलोक (सुरग) मैं जनम लीया। वे देव के रूप मैं पैद्दा होए । खात्ती अर हिरण का बच्चा आपणे आच्छे करमां के मुताबक उस्सै देवलोक मैं बलराम की सेवा करण आले देव बणे । मुनी नैं आपणी तिपस्या अर साधना तै यो ऊंच्चा पद हासल कर्या, खात्ती नैं दान दे कै अर हिरण के बच्चे नैं आपणी आच्छी अर सुभ भौना ते बढ़िया गत पाई । हरियाणवी जैन कथायें / 84 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो मौत पै भी. ना डिग्या तगरा नां की एक नगरी थी । उसमें एक आदमी रया करता।उसका नां वणिकदत्त था । उसकी घरआली थी- भदरा। एक छोरा था- अरणक । एक बर अचार्य अरहनमित्तर अर उनके चेल्ले तगरा नगरी मैं पहोंचे। उनकी बाणी सुणन नैं घणे-ए लोग आया करदे । एक दन वणिकदत्त भी आपणी घर आली अर छोरे गेल्लां उनका बखाण सुणन गया । बखाण सुण के सारे घर आला कै बिराग हो गया। सबनैं दिक्सा ले ली अर अचार्य गेल्लां रैहण लाग गे । वणिक दत्त साधू तै बण ग्या था पर ईब ताईं उसका छोरे तै मोह कोन्या छुट्या था । भिक्सा लेण खात्तर लिकड़ता ते बेटे नैं भी गेल्लां ना ले जाता। सोचता अक छोरे तै क्यूं तकलीफ दी । उसकी भिक्सा भी मैं-ए ली आऊंगा । घणे दन ताईं न्यू-ए काम चालदा रया । टैम बदल्या । वणिकदत्त मुनी का सुरगबास हो गया । फेर अरणक मुनी आप्पै-ए भिक्सा लेण जाण लाग्या । एक बै गरमी का महीना था। लू सारे सरीर नैं फूंक थीं। धूप सिर नैं फूंकै थी। जमीन तवे की ढाल तप्पै थी। ईसे मोस्सम मैं अरणक मुनी बेचैन हो गया । बेचैन हो के ओ एक मैहल के छज्जे तलै छांह मैं खड्या हो कै सांस लेण लाग्या । गेल्ल-ए ईसी जिंदगी बिताण खात्तर ओ बार-बार आपणे आप . कोस्सण लाग्या । उस्से टैम उस मैहल के झरोखे मैं तै एक लुगाई नै झांक कै देख्या । उसनै एक दुखी साधू अरणक दीख्या । उसनै बूज्झी, “थम कुण सो ? जो मौत पै भी ना डिग्या/85 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आडै के करो सो ?" अरणक नैं आपणे बारे मैं सब किमे बता दीया । लुगाई नैं उस तै मैहूल में आण की कही। मुनी भित्तर आ गया तै वा बोल्ली, “इब्बै थारी उमर मुनी बणन के लैक कोन्यां ।" या सुण के उसनै सोच्ची अक 'या ठीक-ए है सै। थोड़े दन संसार के सुख भोग ल्यूं । फेर जीसा टैम हो, देख्या जागा ।' फेर ओ उस्सै लुगाई धोरै रैण लाग्या अर संसार के भोग्गां में पड़ गया । अरणक मुनी के साथियां नैं ओ घणा-ए टोया पर कुछ बेरा कोनी लाग्या । बेटे की याद मैं अरणक की मां बौली बरगी हो गी । जंगा-जंगा वा आपणे छोरे नैं टोह्ती रहंदी । न्यू कई बरस बीत गये । एक दन अरणक मैहल मैं बैठ्या था। चाणचक उस नैं झांकी मैं कै देख्या तै एक बावली सी लुगाई हांडती होई दीक्खी । पहल्यां तै वा उसकी पिछाण में कोन्यां आई । ध्यान ला के देख्या तै सिमझ ग्या अक या तै मेरी सती मां सै । मेरी याद मैं-ए इसका यो हाल हो गया । ओ हो......मैं भी कितणा पापी सूं । मन्नै चाल कै माफी मांगणी चहिए ।' न्यू सोच कै ओ जिब्बै सती मां धोरै पहोंच गया। हाथ जोड्य कै बोल्या, 'मां ! मेरे तै भोत बड्डी गलती हो गी । तू मन्नैं माफ कर दे । सती मां बोल्यी- बेट्टा ! तन्नै यू के कऱ्या ! तो धरम नै छोड्य के पाप कै रस्ते हो लिया । अरणक बोल्या- तू मन्नै ईब के माफ करदे । जै मैं तेरा साच्चा बेट्टा हूंगा तै पूरा धरम करकै संजम पाल कै दिखाऊंगा । मां का जी पसीज ग्या । उस नैं अरणक ते असीरवाद दीया । उसकी हरियाणवी जैन कथायें/86 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WOM Y Aut १५... जो मौत पै भी ना डिग्या/87 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंक्खां ते पाणी बहण लाग्या । दोन्नूं एक-दूसरे नैं देख रहे । मां ते अग्या ले के अरणक फेर अचार्य अरहन्मित्तर धोरै पहौं च्या । आपणी गलती की माफी मांग्गी । अचार्य जी नैं उस तै हट के मुनी - दिक्सा दे दी । एक दन अरणक मुनी नैं अचार्य अरहमित्तर तै कही, "अचार्य जी ! आप मन्नैं सब तै ऊंच्ची साधना बताओ। वा चाहे कितणी-ए मुस्किल हो। मैं उसनैं जरूर करूंगा। ईब मेरे मन मैं कोए डर कोनी रहूया ײן फेर अचार्य जी नैं उन तै परम समाधी ( संथारा) का तरीका बताया। बोल्ले, “जै समभाव ते कोए इस समाधी की साधना कर ले तै उसनें मुकती मिल ज्या।" अरणक मुनी नैं अचार्य जी तै असीरवाद ले कै वा परम समाधी धार ली । वे पहाड़ां मैं किस्से सूं- सां जंगा मैं एक सिला पै जम कै बैठगे अर समाधी मैं खू गे । इतणा बेरा भी ना रहूया अक बाहर के होण लाग रहूया सै । कद तै सूरज लिकडूया अर कद छिप गया। वे पहाड़ की तरियां जम्मे रहे । धूप तै उनका सरीर जल ग्या पर अरणक नैं आंख भी कोन्यां झपकी । इस समाधी मैं उन नैं एक दन परम ग्यान हो गया। वे सारे दुक्खां तै छूट के मुकती मैं चाल्ले गए । मुनियां नैं अर गिरस्तियां नैं जिब बेरा लाग्या तै सबनैं या-ए बात कही, "अरणक मुनी का मन पहल्यां कितना कमजोर था अर फेर ओ-ए मन कितना ठाड्डा हो गया । मोत पै भी ओ डिग्या कोन्यां । धन्न हो अरणक मुनी नैं । हरियाणवी जैन कथायें / 88 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्तर का चिमत्कार __एक सेट था। उसकी नौकार मंतर मैं करड़ी सरधा थी। ओ सेट नरम सुभा का था अर उसके जी मैं दया-धरम भी था। ओ सोच्या करता अक ब्योपार करण खात्तर जिब मैं परदेस जाऊं तो सैहूर के ओर हीणे लोग्गां नै भी आपणी गेल्लां ले जाऊं। न्यूं सोच के परदेस जाण तै पहलां उसने एक दन सैहूर मैं डूंडी पिटवाई- “जो कोए ब्योपार करण खात्तर परदेस जाणा चावै, ओ मेरी गेल्लां चाल्लै । किस्से धोरै पूंज्जी ना हो तो मैं उसनें पूंज्जी यूंगा | ब्योपार मैं घाट्टा हो गया तो ओ भी मैं ए भरूंगा ।” । या खबर सुण कै घणे-ए हुमाए मैं भरे लोग उसकी गेल्लां हो लिए। पूरे लस्कर नैं ले के सेट चाल पड्या। सफर करती हाणां उनका लस्कर ईसे भारी जंगल में कै लिकड्या, जित डाक्कू रया करते । डाकुआं नैं ओ लस्कर निगाह लिया। ओं भी लुक-छप कै उसके पाच्छै-पाच्छै चाल पड़े। सांझ होई। लस्कर नैं एक जंगा पड़ा गेर लिया । लस्कर के लोग्गां नैं रोट्टी-पाणी त्यार कऱ्या अर खा-पी लिया। सोण की त्यारी करण लाग्गे तै सोच्ची- अक यो जंगल सै। सारे सो ज्यांगे तो कुक्कर काम चाल्लैगा । थोड़े-से लोग्गां नैं तै पैह्रा देणा चहिए। सेट बोल्या- तम सारे अराम तै सो जाओ। रूखाली करण की जुम्मेदारी मेरी सै। सारे सो गे। न्यूं देख के सेट नैं आपणे भगवान नौकार मंतर का पाठ करकै लस्कर के चारूं कान्नी एक चक्कर लाया । चक्कर ला कै ओ भी सो ग्या। मन्तर का चिमत्कार/89 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिब सारे माणस सो गे तो डाकुआं नैं आपणा काम करण की सोच्ची । वे हथियार ले के हमला करण खात्तर आग्गे नैं सरके । उनती देख्या- अक लस्कर के तै सारे लोग सोण लाग रहे सैं अर पैंतीस फौजी जुआन घोड़ां पै बैट्ठे चारूं कान्नीं घूम-घूम के पैहूरा देवैं सैं। फौजी जुआन्नां नैं देख कै डाकुआं की हमला करण की हिम्मत कोन्यां पड़ी । लुके होए वे बोल - बाले देखदे रहे । डाक्कू सोच मैं पड़गे अक लस्कर गेल्लां तै फौजी ना थे । रातूं-रात चाणचक ये कित तै आगे? गेल्ला-ए एक ओर चिमतकार होया । एक फौजी ईसा दीख्या, जिसकै सिर ना था । अर, ओ भी पैहूरा देण लाग रहूया था। तड़का होया तै डाक्कू मूं-अंधेरे देक्खण आए अक फौजी दिन मैं कित चाल्ले जां सैं । फौजी कोन्यां दीक्खे । डाक्कू दूसरे दन फेर लस्कर के पाछै लाग लिए । दूसरे दन भी न्यूं-ए बणी जो पहलड़े दन बीती थी । डाकुआं नैं ओर भी अचम्भा होया । वे तीसरे दन भी गेल्लां लाग लिए। तीसरी बर भी उनका काम कोन्यां बण्या | चौथे दन डाक्कू सूधे सेट के धोरै पहोंच गे । सेट नैं उनके बारे मैं बूज्झया। डाक्कू बोल्ले- हम तै डाक्कू सैं पर इस टैम थारे धोरै एक बात बूज्झण आए सैं। दन मैं जिन फौजियां का नाम नसान भी कोन्यां दीखदा, वे चाणचक रात नैं कित तै आ ज्यां सैं ? गेल्लां - ए या बात ओर बताओ अक दुनिया मैं हमनै आदमी ते घणे देक्खे पर ईसा कोए कदे ना देख्या जिसका सिर ए ना हो । थारे इस मूंडकटे फौजी का भी जुआब कोन्यां । चाल्लै सै, पैहरा दे से पर उसनें दीक्खै क्यूकर सै, या बात सिमझ मैं कोन्यां आई । हरियाणवी जैन कथायें / 90 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेट नैं डाकुआं की बात सुणी । ओ भी हैरान रह गया। माड़ी वार कुछ सोच कै बोल्या, “इस बात का बेरा रात नै लाग्गैगा । आज रात नैं तम फौजियां नै फेर देखियो ।” सेट की बात मान कै डाक्कू चाल्ले गए । सेट कै बिस्वास हो ग्या अक यो सारा नौकार मंतर का असर सै । ये फौजी भी नौकार मंतर के पैंतीस अक्सरां के हुकम पै चाल्लण आले देवता सैं । एक फौजी के सिर ना होण का मतबल सै अक मेरे मंतर के पाट मैं कोए कमी सै । उदन रात होई तै सेट नै पूरे ध्यान तै नौकार मंतर पढ्या । पढती हाणा उसनैं बेरा पाट्या अक मंतर के आखरी सबद की बिन्दी उसपै बोल्ली-ए ना जा थी । उस टैम सेट नैं मंतर का सुध पाठ कर्या अर सो गया। डाक्कू आए। उन नैं देख्या अक फौजी पैहूरा देण लाग रहे हैं पर बिना सिर का जो फौजी था ओ उन मैं कोन्यां । तड़कै उनती सेट आग्गै रात नैं बीत्ती होई सारी बात कैह दी । सेट नैं कही- “भाइयो! बात या सै अक मैं एक मंतर का जाप करूर्या करूं । उसका नां सै नौकार मंतर। उसके पांच सबद अर पैंतिस अक्सर सैं । तमनैं जो फौजी देक्खे, वे फौजी कोन्यां थे । वे तै देवता सैं । वे नौकार मंतर की पूजा करण आले सैं अर पूज्जा करण आलां की इमदाद भी कर्या करें । एक अक्सर की बिन्दी मेरे पै बोल्ली ना जा थी, जाएं तै तमनैं बिना सिर का फौजी देख्या था । उसका सारा रूप बाद मैं परगट होया जिब मन्नैं मंतर का सुध पाट कर्या । " सेट ते नौकार मंतर की मैहूमा सुण के डाकुआं नैं बूज्झी के हम नैं भी इस मंतर का बेरा लाग सकै सैं? सेट बोल्या, “लाग क्यूं ना सकदा? तम मन्तर का चिमत्कार/91 - Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये मूंडे काम छोड़ द्यो अर इस मंतर का पाट करण लाग ज्याओ । थारे सारे पाप भी यो मंतर धो देगा । थारी आतमा मैं लुक्या होया देवता परगट हो ज्यागा । जणा-जणा थारी इज्जत करण लाग ज्यागा ।" ____डाकुआं नैं सेट की कही मान ली। वे भले माणस बणगे अर मंतरां के राज्जा नौकार मंतर का जाप करण आले बणगे । 10 हरियाणवी जैन कथायें/92 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर अर चण्डकोसिया सांप भगवान् महावीर जैन धरम के चोबिसमें तिरथंकर थे। एक बर वे चाल्ले जां थे। जिस राही पै वे आग्गे नैं चालते जां थे वा घणे डूंगे जंगल कान्नी जा थी। जिब्बै-ए पाच्छे तै भाजते होए दो-चार पालियां नै महावीर तै बोल दे के कया “बाब्बा..... ओ बाब्बा! ठहर जा! इंग्घे नै मतन्या जा।” महावीर सैहर गे। धोरै आए पालियां तै महावीर नैं बूज्झ्या - “क्यूं? के बात सै? तम मन्नै क्या खात्तर बोल द्यो थे?" पाली बोल्ले-“आग्गै एक खतरनाक सांप रहे सै। उसका नां सै चण्डकोसिया । ओ घणा-ए जैह्री सै | आदमियां की तै बात - ए के सै...... जिनावर भी उसकी फफकार तै डरै सैं। उसनै तो मोक्का मिलणा चहिए। उसकी फफकार मैं इतणी जान सै अक अकास में उड़ते होए पक्सी भी खिंच के तलै आ पड़ें सैं । जंगल के पेड़-पौधे भी उसके जैहर तैं भसम हो लिए सैं- इसा सांप इस जंगल में रहै सै । जाएं तै इंग्घे कै मतन्या जाओ। हाम थमनें दूसरी राही बता देंगे। ओड़े के लिक्कड़ जइओ।" महावीर नै चण्डकोसिया सांप के खतरे के बारे में सुण्या। उनके भित्तर प्यार उमडूयाया। वे बोल्ले, “सांप तै मेरा दोस्त-ढब्बी सै । मैं उस्सै के धोरै जां सूं ।” ग्वाले देखदे रैगे । महावीर आग्गे नैं चाल पड़े। चालते-चालते महावीर सांप की बाँबी धोरै पहोंच गे। ओडै पहोंच के वे ध्यान करण लाग्गे । भगवान महावीर अर चण्डकोसिया सांप/93 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ram Ja HINDIN Gobia ROO हरियाणवी जैन कथायें/94 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INY JJAIN pomm INRNIRBE TRICCHE भगवान महावीर अर चण्डकोसिया सांप/95 EVARANPSARKAHall TAILERA Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाँबी के भित्तर पड़े सांप नैं आदमी की खसबू आई। ओ फफकारता होया बाँबी से बाहर लिकड्याया। उसनैं बाँबी धोरै एक आदमी खड्या देख्या तो उस नैं छोह आ गया। सब तैं पहलां उसने महावीर पै आपणी जैहरीली फफकार छोड्डी। चण्डकोसिया की फफकार मैं इतणा जैहर था अक वा जिसकै भी लाग जांदी, ओ हे मर जांदा । पर महावीर पै उसका माड़ा-सा भी असर कोन्यां होया । सांप नै आपणी दूसरी ताक्कत दिखाई । वा ताक्कत थी- आंख्यां का जैहर । जैहरीली आंक्खां तै ओ लगातार महावीर नैं देखदा रह्या । देखदा-ए रया। सांप जिब किस्से दूर के पराणी नैं भी इस तरियां देख्या करता ते ओ माड़ी वार मैं-ए बेहोस हो कै लै पड्या करदा । इसा जैह्र था उसकी आंक्खां मैं । पर महावीर पै उसका भी कोए असर ना होया। ईब तै चण्डकोसिया के जी मैं आग लाग गी । उसनें पूरे छोहू मैं भर के आपणी तीसरी ताक्कत का इस्तेमाल कऱ्या । गुस्से मैं भरे फफकारते होए सांप नैं ध्यान में खड़े महावीर के पायां मैं डंक माऱ्या | ईब के उसके जैहरीले दांद महावीर के पां के गूंठे मैं गड गे। महावीर के गूंठे तै खून की जंगा दूध बैहण लाग्या । न्यूं देख के सांप नैं घणा ताज्जब होया । ओ लखता-ए रैहू ग्या अक यो किसा आदमी आया । यो आदमी सै अक द्यौता? खून ते सारे माणसां मैं कै लिकड्या करै सै पर यो महापुरस कुण सै जिसके सरीर तै खून की जंगा दूध बैहण लाग रह्या सै? हरियाणवी जैन कथायें/96 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर नैं दया-धरम का इमरत बरसाते होए कहूया रै सांप्पां के राज्जा! सिमझ! सिमझ !! समझ !!! छोहू का नतीजा तन्नैं देख लिया । तू आपणा बीत्या होया टैम याद कर । तू इसा क्यूकर बण ग्या? सरप की जून मैं क्यूं आया? ईब इस हाल नैं छोड दे । महावीर की बात सुण कै चंडकोसिया सांप नैं होंस आया। उस नैं आपणे पाछले जनम का ग्यान हो गया । इस ग्यान मैं चंडकोसिया नैं आपणे पहल्यां के जनम देक्खे। ओ देक्खण लाग्या पराणे टैम के एक जनम मैं ओ मुनी था। उसका नां गोभद्दर था । लापरवाही तै चालती हाणां गोभद्दर मुनी के पायां तलै एक मींडक आ ग्या। मींडक ओड़े-ए मर ग्या । मुनी नै बेरा ना पाया । पाछै-पाछै आंदे चेल्ले नैं सब किमे देख लिया। उसनैं गरू जी कै या बात याद कराई अर आपणी आतमा की सफाई करण की कही । गोभद्दर मुनी नैं छोह आ गया । वे बोल्ले, “तन्नैं घणा दीक्खै सै? मन्नैं तै कितै ना दीख्या । पडूया होगा राह मैं पहल्यां तै- ए मरूया होया । मैं मींडक क्यूं मारदा ?" चेल्ला चुप हो गया। रात नै ध्यान ( परति-करमण) करदी हाणां चेल्ले नै गरूजी के फेर वा-ए बात याद कराई। कहूया- “गरू जी! आलोचना कर ल्यो ।” गोभद्दर मुनी कै या बरदास कोन्यां होई । उन नैं आपणा डण्डा ठाया भगवान महावीर अर चण्डकोसिया सांप / 97 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर चेल्ले के मारण भाज्जे । आग्गै भाजते होए ओ एक खम्भे तै टकरा गे अर ओडै-ए उनका सरीर पूरा हो गया । सरपराज चण्डकोसिक नैं आग्गै आपणे ग्यान मैं देख्या- मैं गोभद्दर मुनी की देही छोड कै अगनीकुवार देवता बण्या । ओडै भी मेरा छोह ठण्डा कोन्यां होया । देवता की उमर पूरी कर कै मैं फेर कोसिक नां का बाह्मण बण्या । छोह की मारी सारे मन्नै चण्डकोसिक कैहूण लाग्गे । उस जनम मैं मेरी गेल्लां ओर के के होई? मेरा एक बाग था। उसमें एक दन जिनावर बड़ गे। उन गूंगे जिनावरां नै फल-पोधे खा गरे। न्यू देख के मन्नैं घणा-ए छोह आया । मन्– कुहाड़ा ठाया अर उन नै मारण भाज्या । जिब्बै-ए राह के एक खड्डे मैं लै पड्या अर मेरी मोत हो गी । उस्सै छोह का नतीज्जा सै अक आज मैं सांप की जून में आ गया । आपणा बीत्या होया टैम देख के, छोह का नतीज्जा सिमझ के, ओ ठण्डा पड़ गया। उसनें महावीर की गुवाही ते आपणे भित्तर कद्दे भी छोह ना करण का नेम कर लिया। गेल्लां-ए उसने यो संकलप भी कर लिया अक मन्नैं जो लोग सतावेंगे अर दुःखी करेंगे, जै वे बदला लेंगे, जिब भी मैं ठण्डक राख कै उनके दीए होए दुख बरदास करूंगा। जांए तै उसनें आपणा मूं बाँबी कै मोरे मैं गेर कै, बाक्की देही बाहर छोड दी। अर, बोल-बाला हो कै पड़ गया। आगले दन पालियां के जी मैं ललक ऊट्ठी अक जो साधू चंडकोसिए के जंगल कान्नी चाल्ले गए थे, उन पै के बीत्ती होगी? सारे के सारे जंगल कान्नी चाल पड़े । चालते-चालते वे ओडै पहोंच गे जित महावीर ध्यान करें थे। धोरै-ए सांप की बाँबी भी थी। वे लुक-लुक के हरियाणवी जैन कथायें/98 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देक्खण लाग्गे- महावीर तै चुप खड़े सैं । सांप का पूरा सरीर तै महावीर के सामीं पड़या सै अर मूं बिल मैं सै। सारे हैरान रैगे। . महावीर चण्डकोसिक तैं ग्यान दे कै चाल्ले गए। गुआल्लां नैं गाम आला तै जैहरीले सांप के बदलण की अर जैहर तै इमरत बणे होए सांप की आंख्या देक्खी कथा सुणायी । चंडकोसिया भगवान महावीर के उपदेस तैं कती बदल ग्या। ईब ओ ना ते किस्से पै फफकार छोड कै सताता अर ना-ए छोह करता। गाम आला नै जिब या खबर सुणी तै उसनैं साच्चे-ए नाग देवता सिमझ के दूध दही अर घी तै पूज्जण लाग्गे।। कई लोग्गां नैं चण्डकोसिया पै छोह आया । पहल्यां जिब चंडकोसिया फफकारा करदा तो डर के मारी वे उसके लवै ना लाग्नें थे। ईब जिब उसनें छिमा धार ली तै लोग न्यूं कैह-कैह के उसके पत्थर मारण लाग्गे अक इसनै म्हारे फलाणे रिस्तेदार/ढिकड़े यार-बास के डंक मार्या था । उन लोग्गां नैं मार पत्थरां, मार पत्थरां ओ सारा फोड़ गर्यो । ना तै ओ पत्थर मारण आला ते दुसमनी करदा अर ना पूज्जण आला तै प्यार करदा । सारे उसके खात्तर बराब्बर थे । छोह करणा उसने छोड दिया था। दूध अर घी की मैड्क तै ओड़े भूरी कीड़ी आ गी। उन मैं नोच-नोच के सांप की घायल देही खाणी सरू कर दी । चण्डकोसिया कै मूंडी बेदना लाग गी । पर ओ बोल-बाला पड्या रह्या । उसनें अनसन कर लिया । धरम-ध्यान करदे होए उसने सांप की देही छोड्डी। अर ओ सहसरार नां के सुरग (देवलोक) मैं पैदा होया । इस तरियां उसनें आपणा जनम सुधार लिया । 00 भगवान महावीर अर चण्डकोसिया सांप/99 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साचा भगत कामदेव सरायग एक बर सुरंग मैं सभा होण लाग रही थी। ओड़े सारे देवता बैठे थे । इन्दर महाराज नैं धरती का जिकर छेड़ दिया। भरी सभा मैं न्यूं कहण लाग्या, “इस टैम सारी धरती पै कामदेव बरगा कोये भी जैन धरम का भगत कोन्यां । " या बात सुण कै घनखरे देवता कामदेव की जय बोल्लण लाग गे पर एक मिथ्या देव ने इस बात का यकीन कोन्या आया । ओ खड़ा हो कै कहण लाग्या "हे इंदर महाराज! या बात तै मन्नै झूठ लाग्गै सै। जिब ताईं उसकी भगती का हिंतान ( इम्तिहान ) ना हो ले, उस तैं पहल्यां सब तै ऊंचा भगत कहणा कोये अक्कलबंदी ना सै । " इन्दर महाराज बोल्या, “भाई! तू उसका हिंतान ले कै देख ले । जै तू उस नै सब तैं ऊंचा भगत ना कहता आवै तै मन्नै कह दिए । " उस मिथ्या देव नैं इंदर तै हुकम ले कै कामदेव का बेरा कर्या । इंदर तैं उस के बारे मैं घणी-ए बात बूझ ली। उसका हिंतान लेण खातर ओ सुरग तै धरती कान्हीं चाल पड्या । चालते -चालते ओ चम्पा नगरी मैं कामदेव के घर धोरै आ लिया। आ के उसने बेरा पाट्या अक कामदेव ने आपणा सारा कारबार अपने बड्डे छोरे तै सिंभलवा दिया सै । इस टैम ओ पोसदसाला मैं पोसा (पौषध व्रत) करके भगती करण लाग रहूया सै । मिथ्या देव नै सोची अक यो ऐन मोक्का सै। मै उसके धोरै राक्सस का रूप बणा कै जाऊं अर उसने उसके धरम तै डिगा कै दिखाऊंगा । फेर के था । उस नै जिब्बै-ए राक्सस का रूप बना लिया। रात का हरियाणवी जैन कथायें / 100 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टैम था। ओ धरम की जंगा मैं बड़ ग्या । देख्या तै कामदेव अपणे धरम-करम में लाग रहा था । उसने देख के राक्सस टाड्या, "रै कामदेव! तू किसकी भगती करै सै? अर किस नै पूज्जै सै? तू या भगती अर पूज्जा छोड दे । नहीं तै या तीन हाथ की तलवार दीखै सै ना? एक सिकंड मैं तेरा सिर तार ल्यूंगा ।” कामदेव उस नै के गोलै था? ओ तो अपणे धरम मैं लाग्या रया । राक्सस नै ओर भी छोह आया । ओ कामदेव के सरीर नैं जंगा-जंगा तै काट्टण लाग्या । कामदेव के दरद तो घणा-ए होया, पर ओ भी घणा पक्का भगत था । लाग्या रया आपणे धरम मैं । उस देव नैं सोची अक ईब खाली तलवार तै काम कोन्यां चाल्लै । कोये और तरकीब करणी पड़ेगी। धरम की जंगा तै बाहर आ कै उसने राक्सस का रूप तै छोड दिया अर एक बड्डे हाथी का रूप बणा लिया । हाथी बण के ओ धाड़ता अर चिंघाड़ता होया फेर कामदेव के धोरै पहौंच लिया। उस तै फेर कही अक तू धरम छोड़ दे, नहीं तै तेरा निसान भी टोया नहीं पावैगा । ओ उसके ऊपर झपट्या । पर, कामदेव के तै बाल भी कोन्यां कांपे। ओ तै धरम मैं न्यू लाग्या रया जाणुं हाथी ओडै था-ए ना। यू देख कै हाथी नै छोह मैं बौला होणा-ए था। उसनै कामदेव अपणी सूंड मैं लपेट लिया अर धम्म देणे-सी जमीन पै दे माऱ्या । पायां तै उसनैं छेत्तण लाग्या । बोल्या-तेरे हाड-हाड दरड़ यूंगा। ईब के तै कामदेव के पहलां तै भी घणा दरद होया पर ओ अपणे धरम तै डिग्या कोन्या । . ____ हाथी फेर ओड़े तै लिकड़ आया। बाहर आ के उसनैं लाम्बे अर काले सांप का रूप बणाया । फफकारता होया ओ कामदेव धोरै पहोंच्चा । अर बोल्या, “ईब के तू किस्से ढालां ना बच्चै । देख ले ईब भी मोक्का साचा भगत कामदेव सरावग/101 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SEAN हरियाणवी जैन कथायें/102 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सै। मेरी बात मान ज्यागा तै मैं तन्नै कुछ ना कहूं । अर, नहीं मान्नैगा तै मैं तन्नै डस ल्यूंगा। मेरे जहरीले दांद तन्नै सांस लेणा भुला देंगे।" कामदेव नै ईब कै भी उसकी बात कान्नां ऊपर तै टाल दी। धरम पै उसकी पूरी सरधा थी । धरम मैं तै ताकत होया-ए करै सै । सांप नै उसकै कई बर डंक मारे पर उसका ना बिगड्या कुछ भी। ओ तै पहलां की तरियां अपणे धरम मैं-ए लाग्या रया । ओ मिथ्या देव सारे बिघन कर-कर के हार लिया। उसका घमंड कामदेव के सामीं चूर-चूर हो लिया। उसने सोची अक इन्दर महाराज साच्ची कहै था । यो तै घणा करड़ा लिकड्या। देव नैं सांप का रूप छोड्या अर अपणे असली रूप में आ गया । देवता के रूप में कामदेव तें बोल्या, “भाई! तू तै घणा-ए ऊँचा अर साचा भगत सै | या सारी माया तै मन्नै तेरा हिंतान लेण खातर बणाई थी। तेरै तकलीफ होई ते भाई मन्नै माफ करिये।" कामदेव यो देख के हैरान रह ग्या। कहण लाग्या, “देवता! तनैं तै मेरे तै साच्ची राही बता दी। तेरे हिंतानां मैं पास हो के नैं मेरे भाग जाग गे। तम तै मेरे तै बड्डे सो। मेरे तैं माफी मांग कै मन्नै सरमिंदा ना करो ।” उसकी मिट्टी बात सुण के देव घणा-ए राज्जी होया । अर बोल्या-मांग ले तन्नै जो किमे मांगणा हो । तेरे जी की ईब तै सारी बात पूरी करूंगा। कामदेव नै कह्या-मन्नै दुनिया की किमे-भी तिमन्ना कोन्या । मन्नै नहीं चाहिये दुनिया की कोये भी चीज । मैं तै भगवान् की भगती मैं लाग्या रहूँ, बस यू हे वरदान चाहूं सूं । साचा भगत कामदेव सरावग/103 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या बात सुण कै ओ देवता कामदेव की घणी तारफ करण लाग्या । बोल्या- तू धन सै, तू साचा जैन सरावग सै, तेरी भगती जमा साची सै । न्यूं कहैन्दा-कहैन्दा सुरग कान्नी चाल्या गया। जाकै उसनै इन्दर महाराज तैं सारी बात बताई अर, कामदेव की घणी-ए बड़ाई करी। उसकी बात सुण के सारे देवत्यां नैं कामदेव की जै-जैकार करी। हरियाणवी जैन कथायें/104 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो करै सै ओए भरै सै राजगीर मैं एक कसाई रहूया करता । उसका नां था- कालसौकरिक । ओ रोज पांचसै झोट्टे मार्या करता । यो-ए उसका धंदा था, जिस तै उसके घर-कुणबे का गुजारा होया करता । एक दन राजगीर के राज्जा सरेणिक नै कालसौकरिक आपणे दरबार मैं बलाया अर उस ते कहूया, “तू झोट्टे मारणे छोड़ दे। जै तू यू भंडा काम छोड़ देगा तै मैं तन्नैं घणा-ए धन दूयूंगा। तेरा गुजारा पूरे ठाट तैं होया करैगा । " कसाई बोल्या, “हे म्हाराज! मैं आपणे धंदे नै कोन्यां छोड़ सकदा । ओर कोए सेवा मेरे जोग्गी हो तैं मन्नै हुकम यो। मैं थारे हुकम नैं खूब राज्जी हो कै मान्नूँगा । , राज्जा नैं ओ कसाई घणा सिमझाया पर ओ किस्से तरियां भी कोन्या मान्ना । राज्जा नै जिब्बै-ए, ओ एक कूएं मैं रुकवा दिया। कूआं डूंगा था पर उस मैं पाणी ना था । उसमें झाड़-झंखाड़ जाम रे थे उस मैं चौबिस घण्टे अंधेरा रहूया करै था । उसके तले की माट्टी मुलाम थी । राज्जा सरेणिक भगवान महावीर धोरै पहौंच्या । कहण लाग्या “हे भगवान ! मन्नैं ओ कसाई कालसौकरिक कूएं मैं रुकवा दिया सै । ईब उसनै मजबूर हो कै आपणी झोट्टे मारण की आदत छोडणी पड़ेगी । " भगवान बोल्ले, “उसकी आदत के छूटै सै !” जो करे से ओए भरे सै/105 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "हे भगवान! मन्नै जिस कूएं मैं ओ रोक राख्या सै, ओडै ओ झोटै क्यूकर मार सकैगा?” राज्जा नै हैरान होकै बूझी। "उस कुएं की माट्टी मुलाम सै। माड़ी मोट्टी सील उस माट्टी मैं रह री सै । ओ उस माट्टी के झोटे बणावैगा अर फेर उन नैं मारैगा ।" भगवान महावीर नैं राज्जा तें समझाया । भगवान के दरसन करें पाछै राज्जा उस कूएं पै गया। देख्या ते सांच्चे ए ओ माट्टी के झोटे बणान लाग रह्या था अर उन नै काट्टण लाग रया था। राज्जा सरेणिक नै सोच्ची अक भगवान महावीर ठीक कहें थे। इसकी आदत के छूटै सै! इस ती कुएं मैं रोक्कण का भी के फैदा?" राज्जा नै ओ छोड दिया। थोड़े दन पाछै कालसौकरिक मर ग्या। टैम न्यू-ए लिकडे गया । एक दन सारे रिस्त-नाते आले कालसौकरिक के छोरे धोरै आए । उस छोरे का नां सुलस था। सब नैं कहीं अक “आपणे बाप का झोट्टे मारण का धंदा सिम्भाल ले । आपणी घर-गिरस्ती बसा ले ।” हाथ जोड़ के सुलस कहण लाग्या, “मन्नै भगवान महावीर की बाणी सुण राक्खी सै। मैं तै यो मुंडा काम कोन्यां करूं।" सारे यारे-प्यारे बोल्ले, “तू सोच मतन्या करै । तेरे पापां मैं हम भी हिस्से बँटावेंगे।" न्यूं सुणतां-ए सुलस नै कुहाड़ा ठाया। सबनै सोच्ची अक झोट्टे मारण नैं कती त्यार हो लिया । पर यो के? उसनें तै कुहाड़ा आपणे पां हरियाणवी जैन कथायें/106 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TRY 30 MAHAM NBA जो करे से ओए भरे से/107 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं दे माऱ्या । लहुआं की धार चाल पड़ी। दरद के मारे ओ दोहरा हो ग्या । बेहोस हो कै है पड्या । न्यूं देख कै नैं सबकी आंख पाट गी अर सारे खड़े के खड़े रहगे । माड़ी वार पाछै सुलस होंस मैं आया। कूल्हते होए ओ मित्तर-प्यारां तै कहण लाग्या, “थम सारे मेरे पापां मैं हिस्सा बँटाण नै त्यार सो । भोत आच्छी बात । इस टैम तै मेरै इतणा दरद सै के, मेरा जी लिकड़ण नैं हो रह्या सै । थारे मैं तै ईसा कोए हो जो मेरे इस दरद मैं हिस्सा बँटा सकै?” न्यूं सुण के सारे हैरान रहगे। एक-दूसरे का मूं देखण लाग्गे । जाणूं बूझते हों अक दुनिया में कदे कोए किसे के दरद का भी साज्झी बण्या सै! साज्झी बणन नै कोए भी आग्गै कोन्यां आया। सारे बोल-बाले खड़े दरद की मारी लोचते होए सुलस बोल्या, “ईब तै थम मेरे पापां में हिस्सा बंटाण की कहण लाग रे थे, अर ईब मेरे दरद का साज्झी बणन नै कोए त्यार कोन्यां । फेर मैं न्यूं क्यूकर मान ल्यूं अक दुनिया में किसे के पापां नैं कोऐ बँडा सके सै? जो करै सै, ओए भरे सै। भोगणा भी उस्सै नै पड़े सै। मेरे बाप के पापां नैं ओ खा लिया, अर ईब मैं भी ओएं पाप करूं! या बात कोन्यां होवै ।" या बात सुण कै सबके होंट सिम गे । किस्से धोरै उसका कोए जुआब ना था । थोड़े दिनां मैं सुलस ठीक हो गया। भगवान महावीर की बाणी ओ पहल्यां तै भी धणे ध्यान तै सुणन लाग्या । सारी जिन्दगी ओ नेक्की की राही चालता रह्या! 00 हरियाणवी जैन कथायें/108 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ জল 3g০-got एक सेट था। उसके धोरै घणाए धन था। उसके चार छोरे थे। चारूं ब्याहे-थ्याहे थे। घर आली घणे दन पहलां गुजर ली थी। एक दन सेट सोचण लाग्या-मन्नै भतेरा धन कमा राख्या सै | घर मैं सब तरियाँ की मौज सै । घर आली तै पहलां-ए राम नै प्यारी हो ली । अर ईब मैं भी बूड्ढा हो लिया तूं। कदे भी लुड़क ज्यांगा । मन्नै फिकर-सी लागी रहैगी अक मेरे मरें पाछै घर की जुम्मेवारी कुण-सी बहू आच्छी तरियां सिंभालेगी! चारुआं का हिन्तान (इम्तिहान) ले ल्यूं तैं माड़ी-मोटी तसल्ली रहेगी। जुण-सी बहू काबल होगी उस्सै नै सारा हिसाब-किताब समझा के चाबी सोंप दूंगा। सकीम बणा के एक दन सेट नैं चारूँ बहू बलाई । चारूआँ तै धान के पांच-पांच दाणे दे दिए। बोल्या-इन नै सुथरी ढाल सिंभाल कै राखियो । चारूआँ नै धान के दाणे ले लिए। सब तै बड्डी का नां था-उज्झिका । दाणे ले कै वा सोचण लाग्गी अक मेरा सुसरा तै बुढापे मैं अक्कल के पाछै लठ लिए हांडै सै। कद्दे हो कुछ भी कह दे सै। ईब उसनै कोए बूज्झण आला हो- के जरूत सै ये दाणे सिंभालण की? न्यू बोल्या अक सुथरी ढाल सिंभालियो......जाणू ये चांदी-सोन्ने हों....अर म्हारे धोरै कोए घर का काम ना हो! न्यूं सोच कै उज्झिका नै वे दाणे न्यूं-ए गेर दिए । बुहारी लाग्गी तै कूड़े गेलां वे दाणे भी सम्हरे गए। दूसरी का नां था- भोगवती। उसनै सोची अक सुसरा बड्डा आदमी सै। कुछ सोच के ये दाणे दिए होंगे। मेरे खातर तै यो मेरे सुसरे का अक्कल आपणी-आपणी/109 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिया होया परसाद सै । उसने पांचूँ दाणे मुँह मैं घाल लिए अर हजम करगी। तीसरी का नां था- रक्सिका । उसनै सोची - सुसरे नै ये सिंभाल के धरण खातर दिए सैं । ये घणे-ए कीमती होंगे। ये जरूर सिंभाल कै धरणे चाहिएँ। कदे मांगेगा तै काढ़ के दे यूंगी। किसे भी तरियां ये खोये ना जाँ । उसनै वे दाणे खूब सिंभाल कै चौक्कस धर दिए। सब तै छोट्टी का नां था- रोहिणी। उसने सोची अक सुसरा तजरबेकार आदमी सै अर अकलबंद भी पूरा-ए सै। न्यूं लाग्गै सै अक चारूआँ तै ये दाणे उसनै चारूआँ की अक्कल देखण खातर दिए हो । छोट्टी नै न्यूं सोच कै धान के वे दाणे खेत में बुआ दिये । थोड़े-ए दन मैं वे जाम्याए। उनकी देख-भाल करी । अपणे टैम पै वे होगे। उन तै जितणा भी धान होया वो फेर न्यूं का न्यू बुआ दिया । न्यूं करते-करते कई साल गुजर गे। ___एक दन फेर तड़के-तड़क सेट नै चारूँ बहू बलाई । बला कै बूज्झा अक मन्नै थारे तै पांच-पांच दाणे धान के दिए थे। तमनै के कऱ्या उनका? कित सैं वे दाणे?" ___बड्डी बहू उज्झिका बोल्ली- मन्नै तै वे न्यू-ए गेर दिए। दूसरी बहू भोगवती बोल्ली- मन्नै तै वे परसाद समझ के खा लिए । तीसरी बहू रक्षिका का नम्बर आया तै वा हुमाये मैं भरी पहोंची अर चांद्दी की डब्बी खोल कै वे हे दाणे सुसरे के हाथ पै धर दिए । तीनुआँ का ढंग देख के सेट छोट्टी कान्नी लखाया वा, जिसका नाँ रोहणी था, बोल्ली- जो दाणे हरियाणवी जैन कथायें/110 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www маймай Gere ARA 64, Er goo Lee Levy aal del gol gy अक्कल आपणी आपणी/111 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्नै लिए थे, वे दाणे तै इब गाड्डियां मैं आ सकें सैं | किसे एक आदमी के बसके वे ठा कै ल्याणे कोन्या ।" “आच्छा.... वे पांच दाणे गाड्डी मैं आवेंगे? न्यूं क्यूक्कर?" सेट नै घणा-ए अचम्भा होया । "ना तै मन्नै वे दाणे गेरे, ना खाये.... अर ना-ए ताले भीतर धरे. ... मन्नै तै वे खेत मैं बुआ दिये थे। जाहें तै ईब वे घणे-ए दाणे हो लिए अर गाड्डी मैं-ए आ सकैं सैं ।” रोहिणी बोल्ली । या बात सुण कै सेट की बूड्ढी आंख्याँ मैं पाणी भर आया। उसने अपणा फैसला सुणाया- जो फैंकण मैं माहिर सै वा सारे घर की सफाई का काम सिंभालेगी। खाण मैं माहिर बहू घर की रसोई बणाया करैगी । जुण-सी सिंभालणा जाणै सै वा घर के खुज्जाने की देख-भाल करैगी अर सब तै छोट्टी बहू सारे घर की सरपंच रवैगी। एक वा हे सै जो धान्नाँ की तरियाँ घर की इज्जत अर घर का धन-मान बढा सकै सै। न्यूं कह कै सेट नै चाबियां का पूरा गुच्छा सब तै छोट्टी बहू के हाथ पै धर दिया । 00 हरियाणवी जैन कथायें/112 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साच्चे गरू योगिराज सिरी रामजीलाल जी म्हाराज भारत बरस में एक महान संत होए परम सरधेय योगिराज सिरी रामजी लाल जी म्हाराज । उनका जनम हरियाणे कै बड़ौदा गाम मैं सम्मत १९४७ के भादुए के म्हीने की बदी नौमीं के दन (अगस्त १८६०ई.) होया था। उनके पिता जी चोधरी सुखदयाल अर माता सिरीमती लाड्डो बाई थी। बालक के जनम तैं उननैं मन मांगी मुराद मिलगी। बात या थी चौधरी सुखदयाल हर तीन भाई थे। उन तीनुआं के योगिराज जी-ए एकले छोरे थे । जाएं तै उनके होण की खुसी चोगरदे के ओर भी घणी थी । जिब उन नैं जनम लिया तै सारे कुणबे नैं त्युहार मनाया। बालक का नां धर्या रामजीलाल । खेल - कूददे होए बालक रामजीलाल दूज के चन्द्रमा की ढालां बड्डे होण लाग्गे । सब उनत्ती घणा-ए लाड प्यार करें थे। रामजीलाल जी आपणे बड्यां की खूब ए इज्जत करें थे। उनका कहूया मानें थे । आस्ता-आस्ता वे जुआन हो ग्ये । जुआन हो कै वे पूरे ए कद्दावर लिकड़े । जितनी ताक्कत उनकी देही मैं थी, उनके जी मैं उस तै भी घणी हिम्मत थी । न्यूं देख कै बड़ोद्दे के जुआन उनके धोरै कट्ठे होण लाग्गे । रामजीलाल जी उनके परधान बण गे । सारे गाम मैं उनकी जुआन पाल्टी का रूक्का पड़ गया। छोरां की इस पाल्टी ते सारे लोग डर्या करदे । साच्चे गरू योगिराज सिरी रामजीलाल जी म्हाराज / 113 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत् १६६८ (सन् १९११) मैं उस जमान्ने के सब ते ऊंच्चे संत चारित्तर चूड़ामणी सिरी मायाराम जी महाराज का चमास्सा बड़ोद्दे मैं होया । उस चमास्से मैं बड़ा धरम ध्यान होया । सारा-ए गाम जैन धरम की भगती मैं लाग्य ग्या। एक दन गाम के बड्डे-बडेरां नै सिरी मायाराम जी म्हाराज तै कहूया गरू महाराज ! थाम नैं सारा गाम धरम मैं ला दिया । चुगरदे नै थारी जै-जैकार हो रही सै। बाकी म्हारे जी नै सांती जिब आवै, जिब थाम रामजीलाल नै अर उसकी पाल्टी ने सुधार दूयो । यू रामजीलाल कुण सै भाई? सिरी मायाराम जी म्हाराज ने बूज्झा! बडेरां ने म्हाराज तैं सारी बात बताई। सुण कै म्हाराज बोल्ये- देखोकोसस करूंगा, जुआनां नै समझाण की। उस चमास्से मैं सिरी मायाराम जी तै योगिराज जी मिल्ले । अर उनका उपदेस सुण कै धरम ध्यान में लाग ग्ये । फेर उनके जी मैं आया यू संसार झूट्ठा सै। साधु बण कै आपणी आतमा का किल्लाण करणा चहिए। जिब इस बात का बेरा मां-बांपां नै लाग्या तै सब नैं सिमझाण खात्तर पूरा जोर लाया पर रामजीलाल पै तै मायाराम जी का रंग चढ रहूया था। ओ के उतरे था! दो साल पाच्छै उस रंग के चिमकण का टैम आ गया। पर देखो.. करम की बात | जिब रंग चिमकण का बखत आया तै रंग चढ़ाण आले मायाराम जी ए ना रहे । फेर उसनें के सब ते छोटे चेल्ले सिरी सुखी राम जी म्हाराज गरू बणाए । रामजीलाल जी नैं उनके चरणां मैं दिल्ली के सदर बजार मैं सम्मत १६७१ के मंगसिर के महीने मैं किरसन पक्स की चोदस के दन (१६ नवम्बर, सन् १६१४ ) साधू बणन की दीक्सा ले ली। ईब वे मुनी रामजीलाल कुहाण लाग्गे । गरू की सेवा अर धरम का आचरण छोड़ कै हरियाणवी जैन कथायें / 114 - Page #138 --------------------------------------------------------------------------  Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन नैं आपने जीवन में तीसरी चीज नहीं आण दी। सैहूज-सैहूज उनके दन रात बस ग्यान का सुबेरा बण गे । उनके ग्यान का चांदणा चारूं कान्नीं बिखरण लाग्या । आपणे गरु के चरणां मैं जैन सास्तर पड्ढे । पडूढे अर उनकी बात्तां पै चाल्ले । साधू बणें पाच्छे आपणे जी मैं तिरिस्ना का उन नैं नाम-निसान नहीं छोड्या । ना तै उनमैं इस बात की तिरिस्ना थी अक मेरे नाम के झण्डे गड ज्यां अर ना-ए इस बात की तिरिस्ना थी अक मैं छूट के चेल्ले कर ल्यूं । उन नैं तै बस आपणा आप्पा पढ्या अर ग्यान का परसाद साऱ्यां तै दिया । आपणी आखरी सांस ताईं वे मन तै भी साधू रहे, बचन तै भी अर करमां तै भी। उन नै तै आपणा पूरा ध्यान योग में ला राख्या था । बाहूर की दुनिया मैं उनका कुछ ना था । उनका जो कुछ था ओ भीतर की दुनिया मैं ए था । सारी तिरिस्ना छोड़ के उन नैं मन अर आतमा एक बणा राखे थे । बरमच की ताक्कत तै उनकी योग-साधना ऊप्पर ताईं पहोंच गी थी । जाएं तै सन् १६३३ मैं राजस्थान के अजमेर सैहूर मैं साधुआं नैं अर गिरस्तियां नैं उन तैं 'योगिराज' का पद दिया। सारी जिनगी वे आपणी योग-साधना मैं-ए लाग्गे रहे। उनकी साधना पै ना तै योगिराज कुहाण का कोए फरक पडूया अर ना ए साधुओं के संघ नायक बणन का। हरियाणा के जींद सैहूर मैं सन् १६६४ मैं वे साधुआं अर सरावगां नैं 'संघ नायक' बणाए थे। उनकी निगाह मैं बड्डे -छोटे अर जात-पांत का कोए भी भेद-भाव ना था । योग-साधना, धरम- ध्यान अर तिपस्या तैं उनकी आत्मा सुद्ध अर पवित्तर बणगी थी । बड्डी-बड्डी सिद्धियां उन मै परगट होगी थी । उनकै साच्चे गरू योगिराज सिरी रामजीलाल जी म्हाराज / 116 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूं तै जो भी बाणी लिकड़ ज्यादी, वा न्यूं-ए पूरी बणै थी अर पूरी हो थी । उनकी दया-दिरस्टी कदे खाली ना जा थी। जिसपै उनकी निंग्हा पड़ ज्यांदी हो-ए न्हाल हो जांदा। चारू कान्नीं उनके नां का रूक्का था । हरयाण की परजा उनती भगवान मानै थी। उनकी दया-दिरस्टी अर वचन सिद्धी की एक-दो बात आड़े बताई जा रही सें 1 एक बर योगिराज जी का चमास्सा हरियाणा के पुरखास गाम मैं था । या सम्मत् १६७४ की बात सै। उन दिनां सारे कै कात्तक की बेमारी फैल रही थी । दुनिया उस बेमारी मैं गलग होण लाग रही थी। रोहा-राट्र माच रूहूया था चोगरदे कै । डागदरां धोरै कोए इलाज ना था । पुरखास के लोग भी उस बेमारी के कब्जे में थे। योगिराज जी जात-पांत का भेद-भाव करे बिना गाम के सारे घरां मैं होज नेम तै मंगली सुणान जाया करते । भगतां नैं खूब सिमझाए अक या छूत की बेमारी सै । आप न्यूं मंगली सुणाते मत न्यां हांडूया करो पर योगिराज जी कोन्यां मान्ने । वे तै एक-ए बात मान्नैं थे अक साधू तै ओरां खात्तर जीया करै । वे मंगली सुणाते पूरे गाम मैं हांडते रहे। एक दन तड़कैं-ए तड़क जंगल हो कै थानक ताईं आंदे आंदे वे भी बेमार हो गे । सिरी अमीलाल जी म्हाराज उन खातर दूध लेण लिकड़े । करम कर के दूध तै कोन्यां मिल्या पर ल्हासी मिलगी । थानक मैं वा ल्हासी धर के फेर गए । योगिराज जी नैं तिस लाग्गी ते जी भर के छाछ पी ली। सिरी अमीलाल जी म्हाराज गरम दूध ले कै आए तै देख्या अक योगिराज जी कत्ती ठीक हो लिए सैं। दूध की बूज्झी तै वे बोल्ले - मन्नै तै छाछ पी ली अर मैं ठीक हो गया। दूध किसे ओर साधू तै दे दूयो । साच्चे गरू योगिराज सिरी रामजीलाल जी म्हाराज /117 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज जी सिमझ गे अक कात्तक की बेमारी का इलाज लिकड्याया सै। वे पहला की तरियां मंगली सुणान जाण लाग्गे । लोग्गां नैं बेरा पाट्या । फेर वे भी ल्हासी पीण लाग्गे । फेर के था। या कात्तक की बेमारी की दुआई बण गी। छाछ पी-पी के सारे ईसे हो गे- जाणुं बेमार पड़े-ए ना थे। सारे गाम मैं रूक्का पाट ग्या अक योगिराज जी की किरपा तै सारा गाम बच गया। ना तै बेरां नां के होंदी। इस बात तै सार्यों के अँच गी अक यू साधू तै परमात्मा का रूप से । । एक बर उनका चमास्सा हरियाणे के कैथल सैहूर मैं था। एक दन जिब वे तड़के-ए जंगल गए तै एक आदमी नैं आपणी जोत्तस लाई अर थानक ताईं उनके पाच्छै-पाच्छै आ लिया । राम-राम कर के बोल्या, "म्हातमा जी! मैं थारा भगत कोन्यां । मैं तै आपनें जुहारात का ब्योपारी जाण कै पाच्छै लाग लिया था पर आड़े आ कै बेरा पाट्या अक मेरी जोत्तस झूठी सै। मैं जिनगी तै हार लिया सूं । घर में कोए काम-धंधा भी कोन्यां । घर तै मैं न्यू-ए लिक्कड़ लिया था। आप दीख गे तै जोत्तस ला कै देख्या अक आप जुहारात के घणे बड्डे ब्योपारी सो। पर आप तै साधू लिकड़े। मन्नैं आप तै के फैदा हो सकै सै ?" योगिराज जी मैं बूज्झी अक “तू कुण-सा काम जाणै सै अर घर का काम-धंधा कित गया?" उसने बताई, “मैं हिकमत जाणूं सू । पहल्यां इस्सै सैहर मैं हिकमत की दुकान कऱ्या करता । बखत नै ईसा धक्का दीया अक दुकान बंद करणी पड़गी। आज रोटियां का भी तोड़ा हो गया ।" योगिराज जी बोल्ले अक "तेरी जोत्तस झूट्ठी कोन्यां । हम सांच्चे-ए जुहारात के ब्योपारी सैं । मैं तन्नें तीन रतन ईसे दे दूंगा अक ना तै उनकी चोरी होवै साच्चे गरू योगिराज सिरी रामजीलाल जी म्हाराज/118 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरना ए वे कित्तै खूर्वै । तू हिकमत जाणै सै ना! ये तीन्नूं रतन आपणे भित्तरले मैं सिंभाल ले अर हिकमत कर। पैहूला रतन सै अक कदे किसे बेमार तै नकली दुआई मत न्यां दिए। दूसरा रतन सै अक जो बेमारी काब्बू की ना हो उसका इलाज मतन्यां करिए, अर, तीसरा रतन यो सै अक गरीब आदमी तै कदे फीस मत न्यां लिए। ये रतन ले ज्या । हम भी देखेंगे। अक तेरे घर का दलद्दर कद ताईं ना लिकड़े। चार म्हीने मैं आड़े ए ठेहरूंगा । होज बखाण हो सै। टैम काढ़ कै बखाण सुणन भी आया करिये । ” तीसरे दन ते उसनैं हिकमत सरू करी । योगिराज जी मैं उसकी दुकान पै जा कै मंगली सुणाई। चार म्हीने पाच्छै जिब योगिराज ओड़े तै चाल्लण लाग्गे ते उसनैं भरी सभा मैं कही, “भाइयो! बड़े करमां तै ईसे साधुओं के दरसन हों सैं। इनकी किरपा तै मन्नै फेर हिकमत करी अर आपणे घर तै दलद्दर धोया । मेरी जोत्तस झूट्ठी ना थी । ये तै साच्चें एं जुहारात के ब्योपारी सैं । ” सिरी योगिराज जी म्हाराज नै भारत के गाम-गाम मैं हांड-हांड कै साच्चै धरम का परचार कर्या । लाख्यां आदमियां तैं अहिंसा-सत्तै परेम की राही बताई । परेम-प्यार तैं हैणा सिखाया अर भूंडे काम छोड्य कै सदाचार तै जीणा सिखाया । उनकै उपदेसां तै हज़ारां आदमियां ने जूआ खेलना मांस - अण्डा खाणा, सराब पीणा जिसे जिसे भूंडे काम छोडूय दिए । साच्ची बात ते या सै अक वे साच्चे साधू थे अर साच्चे गरु थे । साच्चे साधू की पिछाण-ए या हो सै, ओ काम, किरोध, मोह, लोभ, मान बड़ाई का त्यागी हो सै । जीउ मात्तर तैं ओ परेम कर्या करै । जाती-पांत्ती अर ऊंच-नीच का ओ फरक कोन्या करता। ओ सब नै साच्चे गरू योगिराज सिरी रामजीलाल जी म्हाराज/119 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक-सा सिमझा करै । योगिराज सिरी रामजीलाल जी म्हाराज इसे-ए साच्चे गरु थे। उनकै धोरै हिन्दू, मुसलमान, सिरदार, बाल्मीकि मतबल सारै धरमां के माणस आवें थे अर उनती आपणा गरु मान्नै थे । उन नैं साधना करते-करते जिब देख्या अक यो सरीर ईब आतमा की साधना मैं साथ कोन्यां देंदा तै उन नैं ओ छोड दिया। उनका आखरी चमास्सा अमीनगर (मेरठ, उत्तर प्रदेश) मैं था। ओड़े की माट्टी मैं आस्सुज म्हीने की अंधेरी पांचम के दन, सम्मत् २०२४ मैं योगिराज सिरी रामजीलाल जी म्हाराज नैं आपणी देही छोड्डी। उस टैम ओडै देस जुड़ ग्या । च्हाणियां ताईं जै कारे बोलती होई दुनिया गई। योगिराज जी म्हाराज चंदन की तरियां दुनियां मैं आपणी मैइक छोड गे । योगिराज जी म्हाराज का सरीर बेस्सक खतम हो ग्या पर उनका जीणा अमर हो गया। ___ उनके चेल्ले जैन सासन सूरज गरूदेव सिरी रामकृसन जी म्हाराज अर सिरी सिवचंद जी म्हाराज ईब भी उनके चरणां के निस्सान्नां पै चाल्लण लाग रहे सैं । योगिराज जी म्हाराज की किरपा तै सिरी रामकृसन जी म्हाराज नैं धरम के ठाठ ला राक्खे सैं । जंगा-जंगा योगिराज जी की किरपा तै हस्पताल अर सकूल चाल्लण लाग रहे सैं अर दुनिया का भला हो सै। सिरी योगिराज जी म्हाराज के चरणां मैं म्हारी हाथ जोड्य कै बंदना! Gya साच्चे गरू योगिराज सिरी रामजीलाल जी म्हाराज/120 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * परिशिष्ट RAJESH SHARMA