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भगवान महावीर की स्वमुखी कथाएं हैं, कुछ जैनाचार्यों द्वारा कथित कथायें हैं । यह विश्वास भी आपको देना चाहूँ कि इनकी उपादेयता/उपयोगिता असंदिग्ध है ।
कथाओं की हरियाणवी प्रस्तुति कैसी है, इसका निर्णय तो हरियाणवी भाषा के विद्वान् ही करेंगे। मेरा उद्देश्य तो इतना ही था की हरियाणवी क्षेत्र का आम आदमी भी अपनेपन की अनुभूति के साथ इसे पढ़े और लाभ उठायें। फिर भी पुस्तक की भाषा के हरियाणवी स्वरूप पर कुछ कहना प्रासंगिक होगा। हरियाणवी के भाषाविद् और रचनाकारों को भाषा सम्बन्धी सुझाव देने और भाषागत दोषों को इंगित करने में कदाचित कुछ सुविधा हो, इसी विचार से पुस्तक की भाषा के सम्बन्ध में कुछ कह रहा हूँ ।
ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी की ही तरह ही हरियाणवी भी बोली और भाषा ( डायलेक्ट एण्ड लैग्वेज) दोनों है । जैसा कि पूर्व में कहा है, यह हिन्दी की उपभाषा है, पूर्णतः हिन्दी से अलग भाषा नहीं है। कोई भी भाषा चार अंगों के अलगाव से अलग और भिन्न होती है । वे चार अंग हैं- सर्वनाम, अव्यय, क्रिया और विभक्तियाँ। जिस भाषा की ये चारों चीजें भिन्न नहीं होंगी, उसकी लिपि बदलने पर भी भाषा भिन्न नहीं होती। यही कारण है कि भिन्न लिपि होने पर भी विद्वान् लोग उर्दू को हिन्दी ही मानते हैं 1, क्योंकि इसके सर्वनाम, अव्यय, क्रिया और विभक्तियाँ वहीं हैं, जो हिन्दी की हैं। जैसे, मैं जाता हूँ, वाक्य का उर्दू में अनुवाद नहीं हो सकता, लेकिन अंग्रेजी और संस्कृत में इसके अनुवाद क्रमशः 'आई गो' और 'अहं गच्छामि' हो जाएंगे । अतः अंग्रेजी और संस्कृत का भाषा-अस्तित्व हिन्दी से अलग है, उर्दू का नहीं । यह बात अलग है कि जिस हिन्दी को हम उर्दू कहते हैं, उसमें कुछ भिन्नता इसलिए भासती है कि उसमें अरबी-फारसी के परकीय शब्दों की बहुलता / अधिकता है।
भाषा के इसी अलगाव की दृष्टि से हरियाणवी पर भी विचार करें। हिन्दी का उत्तम पुरुष सर्वनाम 'मैं' है । ब्रजभाषा में यह सर्वनाम यद्यपि 'हू' या 'हौं' है, पर 'मैं' का भी प्रयोग होता है, जैसे- 'हूँ तोइ बताऊँ' और 'मैं तोइ बताऊँ'- दोनों प्रयोग हैं। लेकिन विभक्तियाँ बदली हैं- तुझे या तुझको की जगह तोइ का प्रयोग हुआ है। यहाँ यह भी दृष्टव्य है कि 'तोइ' बोली गत प्रयोग है, साहित्यिक लेखन रचना में भाषागत प्रयोग 'तोहि' होगा, जैसा कि विनयपत्रिका में तुलसी ने किया है- मोहि तोहि नाते अनेक मानिए जो भावै । इसी तरह सूर ने 'हौं-मैं' दोनों सर्वनामों का प्रयोग किया है, यथा
प्रभु हौं सब पतितन को टीको । और पतित सब द्यौस चारि के हौं जन्मान्तर ही कौ।।
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