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साद्धू का सतसंग
राज्जा था
केकय देस का राज्जा था- परदेसी । उसके पड़ोसी देस कुणाल का जितसतरू | दोनूं राज्जा आपस में ग्रे अर करड़े ढब्बी थे। दोन्नुआं की सोच - सिमझ मैं अर उनके बिचारां मैं घणा-ए फरक था । राज्जा परदेसी जिद्दी अर घमण्डी था । धरम-करम नैं जाण्या ना करदा अक यो भी किम्मै चीज हो सै । जितसतरू सरल सुभा का अर सूधा माणस था । धरम के काम्मां मैं उसकी पूरी दिलचस्पी थी ।
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जो कोए इन दोनुआं के मित्तर- परेम की बात सुणता उस्सै नैं अचम्भा होंदा ।
एक बर राज्जा परदेसी आपणे मंतरी चित्त तै बोल्या, “मैं न्यूं चाहूं सूं अक तू म्हारी ओड़ तै म्हाराज जितसतरू तै कोए चीज भेंट कर्या । उसके राज मैं एक तै एक ग्यानी ध्यानी रहैं सैं। उनके धोरे थोड़े दन टैर कै राजनीती पढ़ ले ।” राज्जा का हुकम सुण के मंतरी कुणाल देस कान्नी चाल पडूया ।
ओड़े पहौंच के ओ राज्जा तै मिल्या । उस तै राज्जा परदेसी का संदेश सुनाया। कीमती चीज भेंट करी । राज्जा नैं मंतरी के ठहरण का इंतजाम करा दिया ।
एक दन चित्त नैं बेरा पाट्या, भगवान पारस नाथ की परम्परा के ज्ञानी अचार्य सरमण केस्सी ओड़े आण आले सैं। उनके आण का टैम भी आ गया। जिसनें भी खबर सुणी, ओ-ए अचार्य केस्सी के दरसनां
साधू का सतसंग / 43