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अर चेल्ले के मारण भाज्जे । आग्गै भाजते होए ओ एक खम्भे तै टकरा गे अर ओडै-ए उनका सरीर पूरा हो गया ।
सरपराज चण्डकोसिक नैं आग्गै आपणे ग्यान मैं देख्या- मैं गोभद्दर मुनी की देही छोड कै अगनीकुवार देवता बण्या । ओडै भी मेरा छोह ठण्डा कोन्यां होया । देवता की उमर पूरी कर कै मैं फेर कोसिक नां का बाह्मण बण्या । छोह की मारी सारे मन्नै चण्डकोसिक कैहूण लाग्गे । उस जनम मैं मेरी गेल्लां ओर के के होई? मेरा एक बाग था। उसमें एक दन जिनावर बड़ गे। उन गूंगे जिनावरां नै फल-पोधे खा गरे। न्यू देख के मन्नैं घणा-ए छोह आया । मन्– कुहाड़ा ठाया अर उन नै मारण भाज्या । जिब्बै-ए राह के एक खड्डे मैं लै पड्या अर मेरी मोत हो गी ।
उस्सै छोह का नतीज्जा सै अक आज मैं सांप की जून में आ गया । आपणा बीत्या होया टैम देख के, छोह का नतीज्जा सिमझ के, ओ ठण्डा पड़ गया।
उसनें महावीर की गुवाही ते आपणे भित्तर कद्दे भी छोह ना करण का नेम कर लिया। गेल्लां-ए उसने यो संकलप भी कर लिया अक मन्नैं जो लोग सतावेंगे अर दुःखी करेंगे, जै वे बदला लेंगे, जिब भी मैं ठण्डक राख कै उनके दीए होए दुख बरदास करूंगा। जांए तै उसनें आपणा मूं बाँबी कै मोरे मैं गेर कै, बाक्की देही बाहर छोड दी। अर, बोल-बाला हो कै पड़ गया।
आगले दन पालियां के जी मैं ललक ऊट्ठी अक जो साधू चंडकोसिए के जंगल कान्नी चाल्ले गए थे, उन पै के बीत्ती होगी? सारे के सारे जंगल कान्नी चाल पड़े । चालते-चालते वे ओडै पहोंच गे जित महावीर ध्यान करें थे। धोरै-ए सांप की बाँबी भी थी। वे लुक-लुक के
हरियाणवी जैन कथायें/98