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मेघ कुवार मुनी
मगध देस मैं राजगीर नाम का एक सहर था। ओडै राज्जा सरेणिक राज का करदा । उसकी एक राणी का नां था धारणी अर दूसरी का था नंदा। नंदा के एक छोरा होया । उसका नां था- अभै कुवार | धारणी के कोए बालक ना था। उसनै इसकी करड़ी फिकर रह्या करती । राज्जा नै वा घणी-ए समझाई पर उसकी सोच कोन्यां मिट्टी।
एक बर रात नैं धारणी नैं सुपने मैं एक धौला हाथी दीख्या । उसनैं यो सुपना राज्जा तै बताया । राज्जा नैं पंडतां तै सुपने का मतलब बूझ्या । पंडत बोल्ले, “म्हाराज! राणी नै भोत सुथरा सुपना देख्या सै । उसकै एक ईसा छोरा होवैगा जो घणा-ए नाम कमावैगा ।”
पंडतां की या बात सारे सहर में हवा की तरियां फैलगी। जन्ता सुण-सुण कै घणी-ए राज्जी होई। तीन म्हीने बीत ग्ये । एक बै राणी का ईसा जी का अक वा अकास मैं काले-काले बादल देक्खै । हाथी पै चढ के वैभार गरी नाम के पहाड़ पै हांडै । पर राणी के जी की कूक्कर पूरी हो सके थी। बारिस का टैम तै लिकड़ लिया था । फेर काले बाद्दल अकास मैं कित ते आंदे? राणी फेर दुखी-दुखी-सी रहण लाग्गी।
राज्जा नैं बूज्झी तै राणी नैं आपणे जी की बताई । राज्जा भी इसमें के कर सकै था! या सिमस्या तै उसके बस की थी नहीं। ओ भी बोल-बाला रहण लाग्या। राज्जा के छोरे अर राजगीर के मंतरी अभै कुवार नै राज्जा तै बूज्झी अक बात के सै? राज्जा नै राणी के जी की बात
मेघ कुवार मुनी/69