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एक दन चित्त नैं राज्जा तै कही, “म्हाराज! थोड़े दन पहल्यां घणे-ए बढिया घोड़े मोल लिए थे । थम उन नैं देख ल्यो तै बढिया रहै । " राज्जा घोड़े देखण मैं राज्जी हो गया । जिब्बै- ए मंतरी गेल्यां चाल पड्या । मंतरी उस नै मिरग बन कान्नीं ले गया । ओड़े अचार्य केस्सी का धरम-बखाण होण लाग रूहूया था । यो देख के राज्जा चौंक्या । बोल्या, “आड़े कित ली आया मन्नैं ? तावला चाल आड़े तै । ”
चाल..
राज्जा अर मंतरी चाल पड़े। माड़ी-सी दूर जा कै राज्जा नैं घोड़ा रोक दिया । कहण लाग्या, “मेरा आग्गे जाण नैं जी-ए कोन्यां करदा । मन्नै ते इसके मिट्ठे बोल याद आवैं सैं। बेरा ना इस साधू नैं मेरे पै के जादू कर दिया ! इस तै मिल्लण का जी करण लाग्या । मन्नै तै यो पहोंच्या होया साधू लाग्गै सै। ”
मंतरी न्यू सुण कै राज्जी हो गया । सोच्ची, राज्जा के बिचार ईब बदलण आले सें । ओ आपणी सकीम की कामयाबी पै भित्तर-ए-भित्तर राज्जी होण लाग रहूया था ।
दोन्नूं अचार्य केस्सी की सभा मैं गए। राज्जा की निग्हा अचार्य केस्सी कान्नीं चुम्बक की तरियां खिंच गी । राज्जा नैं सुणी- 'यो संसार तै झूट्ठा दिखावा सै। असली तै आतमा सै जिसका ग्यान लेणा जरूरी सै ।'
बखाण पूरा होया । राज्जा परदेसी नास्तक था। उसके जी मैं आतमा-परमातमा, लोक-परलोक, पुनर जनम, पाप-पुन्न, धरम के बारे मैं घणे-ए सुआल थे । उसने अचार्य केस्सी तै उनका जुआब बूज्झ्या । अचार्य केस्सी सामी ने राज्जा तैं सारी बात खोल-खोल कै सिमझाई।
साधू का सतसंग / 47