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राज्जा नैं हाल्लो-हाल फैसला कर्या- “ईब मन्नैं राज-पाट छोड़ कै साधू बणना सै”। उस नैं जिब्बै-ए राज छोड्या अर जंगल की राही पकड़ ली । ईब ओ साद्दू बण ग्या । उसके शरीर मैं रोग फैलता - ए चल्या गया । कष्ट भी बढ़ता - ए चल्या गया पर तिपस्या की राही तै ओ माड़ा सा भी कोन्यां डिग्या । आपणे धरम-ध्यान मैं लाग्या रहूया । उस नैं घणी - ए सिद्धी मिल गी । घमण्ड उस तै घणा दूर था । ना कद्दे उसनै बेमारियां की चिन्ता करी अर ना कद्दे आपणी सिद्धियां पै घमण्ड कर्या । उसकै तो बस एक -ए धुन थी - केवल ग्यान हासिल करणा सै ।
देवां के राज्जा इन्दर नैं देख्या - सनत्कुमार मुनि करड़ी तिपस्या करण मैं लाग रे सैं । इन्दर नै फेर आपणी सभा मैं सनत्कुमार की तिपस्या की घणी-ए बड़ाई करी । विजय अर वैजयन्त नाम के देवां नैं फेर सक कर्या अर फेर सनत्कुमार का हिंतान लेण लिकड़ लिए।
दोन्नूं देवां नैं ईब कै बैद का भेस बणाया। सनत्कुमार मुनी धोरै पहोंचे । उन तै रोग का इलाज करण की कहण लाग्गे । मुनी सनत्कुमार तो समता धारे बैट्ठे थे । सरीर की उन नैं माड़ी सी भी परवा ना थी । बैद बार-बार कहण लाग्गे तै वे बोल्ले, “सरीर के रोग दुआइयां तै ठीक हो सकैं सैं पर करमां के रोगां नैं दुआई के ठीक कर सकै सै ?" बैद चुप हो गे । उनके धोरै करमां के रोग्गा की दुआई थोड़े ए धरी थी जो मुनी जी तै दे देंदे ?
बैदां की सिमझ मैं कुछ भी ना आया । मुनी जी ने आपणे मूं मैं आंगली दी । आंगली पै लाग्या थूक सनत्कुमार मुनी नैं आपणे सरीर पै लाया तै जादू सा हो गया। ईब सरीर सोन्ने बरगा हो लिया था । बैद हैरान रहूगे। उनके मन के सुआलां का जुआब देंदे होए, मुनी जी कहण
सुथराई का घमण्ड / 41