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आंक्खां ते पाणी बहण लाग्या । दोन्नूं एक-दूसरे नैं देख रहे ।
मां ते अग्या ले के अरणक फेर अचार्य अरहन्मित्तर धोरै पहौं च्या । आपणी गलती की माफी मांग्गी । अचार्य जी नैं उस तै हट के मुनी - दिक्सा दे दी ।
एक दन अरणक मुनी नैं अचार्य अरहमित्तर तै कही, "अचार्य जी ! आप मन्नैं सब तै ऊंच्ची साधना बताओ। वा चाहे कितणी-ए मुस्किल हो। मैं उसनैं जरूर करूंगा। ईब मेरे मन मैं कोए डर कोनी रहूया
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फेर अचार्य जी नैं उन तै परम समाधी ( संथारा) का तरीका बताया। बोल्ले, “जै समभाव ते कोए इस समाधी की साधना कर ले तै उसनें मुकती मिल ज्या।"
अरणक मुनी नैं अचार्य जी तै असीरवाद ले कै वा परम समाधी धार ली । वे पहाड़ां मैं किस्से सूं- सां जंगा मैं एक सिला पै जम कै बैठगे अर समाधी मैं खू गे । इतणा बेरा भी ना रहूया अक बाहर के होण लाग रहूया सै । कद तै सूरज लिकडूया अर कद छिप गया। वे पहाड़ की तरियां जम्मे रहे । धूप तै उनका सरीर जल ग्या पर अरणक नैं आंख भी कोन्यां झपकी । इस समाधी मैं उन नैं एक दन परम ग्यान हो गया। वे सारे दुक्खां तै छूट के मुकती मैं चाल्ले गए ।
मुनियां नैं अर गिरस्तियां नैं जिब बेरा लाग्या तै सबनैं या-ए बात कही, "अरणक मुनी का मन पहल्यां कितना कमजोर था अर फेर ओ-ए मन कितना ठाड्डा हो गया । मोत पै भी ओ डिग्या कोन्यां । धन्न हो अरणक मुनी नैं ।
हरियाणवी जैन कथायें / 88