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जो मौत पै भी. ना डिग्या
तगरा नां की एक नगरी थी । उसमें एक आदमी रया करता।उसका नां वणिकदत्त था । उसकी घरआली थी- भदरा। एक छोरा था- अरणक ।
एक बर अचार्य अरहनमित्तर अर उनके चेल्ले तगरा नगरी मैं पहोंचे। उनकी बाणी सुणन नैं घणे-ए लोग आया करदे । एक दन वणिकदत्त भी आपणी घर आली अर छोरे गेल्लां उनका बखाण सुणन गया । बखाण सुण के सारे घर आला कै बिराग हो गया। सबनैं दिक्सा ले ली अर अचार्य गेल्लां रैहण लाग गे ।
वणिक दत्त साधू तै बण ग्या था पर ईब ताईं उसका छोरे तै मोह कोन्या छुट्या था । भिक्सा लेण खात्तर लिकड़ता ते बेटे नैं भी गेल्लां ना ले जाता। सोचता अक छोरे तै क्यूं तकलीफ दी । उसकी भिक्सा भी मैं-ए ली आऊंगा । घणे दन ताईं न्यू-ए काम चालदा रया ।
टैम बदल्या । वणिकदत्त मुनी का सुरगबास हो गया । फेर अरणक मुनी आप्पै-ए भिक्सा लेण जाण लाग्या । एक बै गरमी का महीना था। लू सारे सरीर नैं फूंक थीं। धूप सिर नैं फूंकै थी। जमीन तवे की ढाल तप्पै थी। ईसे मोस्सम मैं अरणक मुनी बेचैन हो गया । बेचैन हो के ओ एक मैहल के छज्जे तलै छांह मैं खड्या हो कै सांस लेण लाग्या । गेल्ल-ए ईसी जिंदगी बिताण खात्तर ओ बार-बार आपणे आप . कोस्सण लाग्या ।
उस्से टैम उस मैहल के झरोखे मैं तै एक लुगाई नै झांक कै देख्या । उसनै एक दुखी साधू अरणक दीख्या । उसनै बूज्झी, “थम कुण सो ?
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