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स्वकथ्य
कथा-कहानी मानव-जीवन की प्रतिच्छवि अथवा प्रतिबिम्ब है। यह प्रतिबिम्ब यदि जीवन के प्रणेता-सूत्रधार अरिहन्त भगवन्तों द्वारा बिम्बित/चित्रित हो तो उसे देख-समझ कर मानव अपना जीवन सफल-सार्थक कर सकता है। इसमें किंचित् भी संदेह नहीं हैं। तीर्थंकरों/ महापुरुषों द्वारा कथित कथाएँ हमें न केवल जीवन रस ही देती है, अपितु जीवन में सुधारस घोल देती हैं। ये कथायें जीवन-संदेश तथा जीने की कला का महान् बोध भी देती हैं।
जीवन-दर्शन को जितनी सरलता से कथा-कहानियों के माध्यम से आत्मसात् किया जा सकता है, उतनी सरलता से उपदेशों या अन्य विद्याओं के माध्यम से नहीं। यही कारण है कि भगवान महावीर ने अपनी धर्म-देशना में कथा-कहानी और दृष्टान्तों को अपने संदेश/उपदेश का सफल माध्यम या साधन बनाया। इससे यही सिद्ध होता है कि कहानी की शक्ति-क्षमता असंदिग्ध है। विषाद से भरे रीते-सूने दिनों में भी कहानी का पाथेय बड़ी राहत देता है। वनवास के सूने जीवन में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम, लक्ष्मण और सीता को कथा-कहानियां सुनाकर धर्मपथ पर दृढ़ रहने का संबल देते थे :
कहहिं पुरातन कथा कहानी।
सुनहिं लखन सिय अति सुखु मानी।। यह सब होने पर भी कहानी की सहज ग्राह्यता, स्व में रचा-पचा लेने की सहजता, अपनी-स्वकीय भाषा-बोली में अधिक संभव है। यह भी कह सकते हैं कि कथा यदि स्वर्ण है तो स्वभाषा या बोली उस स्वर्ण में बसी सुगन्ध है । भगवान महावीर द्वारा कथित कहानियों के प्रसार-प्रचार का मुख्य कारण यह भी था कि उनका प्रस्तुतीकरण उस युग की जन-भाषा 'प्राकृत' में हुआ था।
जैन कथा-साहित्य का प्रणयन राष्ट्र-भाषा हिन्दी में प्रचुर परिमाण में हुआ तथा हो रहा हैं। इससे जैन कथा-साहित्य प्रभूत लोक प्रिय बना है, फिर भी स्व अंचल की भाषा में कथित कहानी की अपनी विशिष्टता और भीतर की पहचान होती है। इसीलिए गुजराती, कन्नड़, राजस्थानी आदि भाषाओं के जैन लेखकों/संतों ने अपनी भाषा-बोली में जैन-कथा-साहित्य का